विश्लेषण : कश्मीर न अलग है न होगा

Last Updated 27 Aug 2016 04:19:20 AM IST

पिछली आठ जुलाई को आतंकवादी बुरहान वानी के मारे जाने के बाद से जम्मू-कश्मीर की आग बुझ नहीं पा रही है.


कश्मीर न अलग है न होगा

हिंसा और प्रतिहिंसा का दौर थम नहीं रहा है. पर्यटन, व्यापार-व्यवसाय ठप हो गया है. लोगों के सामने रोजी-रोटी का संकट खड़ा हो गया है. लगता है जैसे समूचा राज्य तंत्र चरमरा गया है.

केंद्रीय गृह मंत्री राजनाथ सिंह की दो दिवसीय कश्मीर यात्रा से वहां शांति बहाली की जो थोड़ी बहुत उम्मीद बंधी थी, वह भी टूट गई है. उनकी ‘कश्मीरियत, इंसानियत और जम्हूरियत’ के दायरे में बातचीत करने की बात को किसी ने गंभीरता से नहीं लिया. अब लगभग यह  तय हो गया है कि कश्मीर की समस्या कानून-व्यवस्था की समस्या नहीं है. और अगर यह  राजनीतिक समस्या है, तो बेहद गंभीर समस्या है. वहां से आ रही सूचनाएं बता रही हैं कि इस बार का उन्माद कट्टर धार्मिकता से प्रेरित है. यानी वहां पाकिस्तान तो अपनी कुटिल चालों में सफल हो ही रहा है. आईएस की विचारधारा भी अपनी जड़ें जमाता प्रतीत हो रहा है. यानी इस बार का अलगाववादी-पृथकतावादी आंदोलन आईएस के इरादों में ढला लग रहा है.

सवाल यह  है कि कश्मीर को इस विस्फोटक स्थिति में पहुंचाने का जिम्मेदार कौन है? इसके लिए कश्मीर के राजनीतिक इतिहास में लौटना होगा. अध्ययन बताता है कि केंद्र की सत्ता में रही कांग्रेस पार्टी ने वहां अपनी  हुकूमत जारी रखने के लिए जोड़-तोड़, पल्रोभन और राजनीतिक स्वार्थ की ओछी राजनीतिक संस्कृति को विकसित किया. वहां का स्थानीय नेतृत्व इससे अछूता नहीं रहा. यही वजह है कि प्राय: देखा जाता है कि जब स्थानीय राजनीतिक पार्टियां राज्य की सत्ता में होती हैं, तो भारतीय राज्य व्यवस्था के साथ खड़ी होकर केंद्र की सत्ता, चाहे किसी की भी हो, का भरपूर दोहन अपने हित साधने में लगी रहती हैं और सत्ता से हटते ही पृथकतावादी शक्तियों के साथ गलबहियां करने लगती हैं. कश्मीर का स्थानीय नेतृत्व मुस्लिम बहुल कश्मीर की समस्या का समाधान धर्म यानी इस्लाम में ढूंढता है यानी इस्लामिक राजनीतिक समाधान निकालने का आग्रह करता है. इसका अर्थ है वे कश्मीर को भारतीय राज्य व्यवस्था से अलग करने का प्रयास कर रहे हैं. जम्मू-कश्मीर की समस्या को राजनीतिक समस्या के नजरिये से देखना बेहद गंभीर मसला है. क्योंकि वहां राष्ट्रपति शासन लागू नहीं है. वहां लोकप्रिय सरकार चल रही है. एक लोकप्रिय सरकार के होने के बावजूद अलग राजनीतिक समाधान की जिद खतरनाक है.

इसका अर्थ है कि कश्मीर के अलगाववादियों की शर्त को स्वीकार करना और पाकिस्तान की चाल को सफल होने देना. भारतीय राजव्यवस्था कभी ऐसा होने नहीं देगी. ऐसा होने का मतलब दक्षिण एशिया को पश्चिम एशिया बन जाने देना. यहां आईएस जैसे किसी भी प्रयोग को सफल नहीं होने दिया जा सकता. कश्मीर समस्या का राजनीतिक समाधान की आवाज उठाने वालों को यह याद दिलाने की जरूरत है कि 22 फरवरी, 1994 को संसद के दोनों सदनों ने एकमत से जम्मू-कश्मीर के बारे में अपना दृढ़ संकल्प व्यक्त किया है कि ‘संपूर्ण जम्मू-कश्मीर भारत का अभिन्न अंग है और पाकिस्तान को इस राज्य के उन हिस्सों पर से अपना अवैध कब्जा हटाना ही होगा.’

सही अर्थों में जम्मू-कश्मीर में कोई समस्या है ही नहीं. जो समस्या दिखाई दे रही है, वह सिर्फ पाकिस्तान निर्मित है. वास्तविक समस्या तो पीओके में है. इसे पाकिस्तान ‘आजाद कश्मीर’ कहता है. कहने को यहां चुनाव भी होते हैं और प्रधानमंत्री भी नियुक्त होता है. लेकिन वास्तविक अथरे में यहां का शासन-सूत्र पाकिस्तान के हाथों में है. पाकिस्तान ने यहां आतंकवादियों के अनेक प्रशिक्षण शिविर बना रखे हैं. वह यहीं से प्रशिक्षित आतंकवादियों को जम्मू-कश्मीर और भारत के अन्य हिस्सों में आतंक फैलाने के लिए भेजता रहता है. यहां के लोगों पर पाकिस्तानी सेना और पुलिस का दमनचक्र अनवरत जारी है. दिलचस्प बात यह  कि पीओके के लोग भारत में विलय के लिए पलक-पांवड़े बिछाए बैठे हैं. इसलिए भारतीय राज्य व्यवस्था को पीओके का सियासी समाधान निकालना चाहिए जो संसद द्वारा एकमत से पारित संकल्प में अंतर्निहित है.

वास्तव में कश्मीर समस्या के तीन आयाम हैं-पहला-कश्मीर की जनता, दूसरा- अलगाववादी  और तीसरा-पाकिस्तान. भारतीय राज्य व्यवस्था को इन तीनों आयामों से अलग-अलग पेश आना होगा. यानी सबसे पहले वहां की जनता को लोकतंत्र और उसके अंतर्निहित आदशरे को समझाना होगा. कश्मीर की जनता को लोकतंत्र के सारे अधिकार प्राप्त हैं. उन्हें अपना प्रतिनिधि चुनने का अधिकार है, संविधान द्वारा प्रदत्त उनके मौलिक अधिकार सुरक्षित हैं. उन्हें समझाना होगा कि सीरिया, इराक और अफगानिस्तान में आतंकवाद की सबसे ज्यादा मार वहां की जनता को ही झेलनी पड़ रही है. उन्हें ये भी बताना होगा कि बलूचिस्तान और पीओके में इस्लामिक समूह ही बहुसंख्यक हैं. मगर  पाकिस्तान से त्रस्त हैं. उन्हें पाकिस्तान का आईना दिखाना होगा कि वह एक बार विभाजित हो चुका है और अब तक एक स्थिर राज्य नहीं बन सका है.

इसलिए भारत में बने रहने से उनको जो लोकतांत्रिक अधिकार मिले हुए हैं, वे कहीं और नहीं मिलेंगे. इसी तरह अलगाववादियों को यह समझाया जाना चाहिए कि जम्मू-कश्मीर भारत के बहुलतावादी लोकतंत्र का शीरमौर्य और पहचान है. भारतीय संसद का संकल्प है कि अपनी इस पहचान को किसी भी कीमत पर बचाए रखेगा. कश्मीर का सिर्फ धर्म के आधार पर अलग होने का मतलब है भारतीय राज्य व्यवस्था का चरमरा जाना. यही संदेश पाकिस्तान को भी देना होगा कि वह कितनी भी कोशिश कर ले, उसकी कुटिल चालों को कभी सफल नहीं होने देंगे.

दिलीप चौबे
लेखक


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