बैंकिंग सुधार लाजमी
यकीनन बैंकिंग सुधार भारतीय अर्थव्यवस्था की अहम जरूरत बन गए हैं. हाल ही में ग्लोबल क्रेडिट एजेंसी फिच द्वारा प्रकाशित बैंकिंग रिपोर्ट में कहा गया है कि भारत की विकास दर बढ़ाने के लिए बैंकिंग संबंधी दो प्रमुख सुधारों की जरूरत है.
बैंकिंग सुधार लाजमी (फाइल फोटो) |
एक ओर वर्तमान वैश्विक परिप्रेक्ष्य में देश के सरकारी बैंकों को मिलाकर कुछ बड़े बैंक बनाए जाने चाहिए. वहीं दूसरी ओर, बैंकिंग धोखाधड़ी और डूबते बैंक कर्ज से अर्थव्यवस्था को बचाया जाना चाहिए. इसी परिप्रेक्ष्य में पिछले दिनों जहां 17 अगस्त को राष्ट्रपति प्रणब मुखर्जी ने बैंक कर्ज नहीं लौटाने पर संपत्ति जब्त करने के कानून को मंजूरी दी है. वहीं 18 अगस्त को भारतीय स्टेट बैंक के निदेशक मंडल ने पांच सहायक बैंकों व भारतीय महिला बैंक के विलय प्रस्ताव को मंजूर किया है. वस्तुत: किसी देश का स्थिर बैंकिंग सिस्टम कुछ बड़े स्तंभों पर खड़ा होता है.
ऐसा सिस्टम ऑस्ट्रेलिया, सिंगापुर, थाईलैंड और मलयेशिया जैसे बाजारों में मौजूद है. भारत में स्टेट बैंक ऑफ इंडिया जैसे बड़े बैंकों में सहायक बैंकों के विलय से जहां उद्योग कारोबार व विभिन्न वगरे की कर्ज जरूरत भी पूरी होगी, वहीं सरकार का वित्तीय समायोजन का लक्ष्य पूरा होगा. साथ ही मजबूत बैंकिंग सिस्टम से देश की अर्थव्यवस्था को भारी लाभ होगा. गौरतलब है कि एसबीआई के निदेशक मंडल ने मजबूत बैंक बनने के परिप्रेक्ष्य में विलय करने की दिशा में कदम बढ़ाते हुए शेयरों की अदला-बदली का अनुपात भी मंजूर कर लिया है.
स्टेट बैंक ऑफ बीकानेर एंड जयपुर, स्टेट बैंक ऑफ हैदराबाद, स्टेट बैंक ऑफ मैसूर, स्टेट बैंक ऑफ पटियाला और स्टेट बैंक ऑफ त्रावणकोर का विलय मूल बैंक के साथ करने की योजना को मंजूरी के लिए आरबीआई के पास भेजा जाएगा, जो विलय प्रस्ताव का अध्ययन करने के बाद इसे केंद्र सरकार के पास भेजेगी. यद्यपि इस प्रस्तावित विलय का संबंधित बैंकों के अधिकारियों और कर्मचारियों द्वारा विरोध किया जा रहा था और विरोध का कारण विलय के बाद कर्मचारियों के हितों का नुकसान होना बताया जा रहा था. लेकिन एसबीआई के निदेशक मंडल ने कहा है कि जिन बैंकों का विलय किया जा रहा है, उनके कर्मचारियों के वेतन, भत्तों और अन्य सुविधाओं के मामलों में कोई नुकसान नहीं होगा.
अब प्रस्तावित विलय के बाद एसबीआई 550 अरब डॉलर की परिसंपत्ति के साथ दुनिया का 44वां सबसे बड़ा बैंक हो जाएगा. इसकी शाखाओं की संख्या 22500 और एटीएम की संख्या 58 हजार और ग्राहकों की संख्या 50 करोड़ से अधिक हो जाएगी. उल्लेखनीय है कि दुनिया के सबसे बड़े बैंकों की सूची में पहले पायदान पर चाइनीज बैंक आईसीबीसी है, जिसकी कुल परिसंपत्तियां 3,432 अरब डॉलर है. निसंदेह देश के बैंकों के समक्ष बढ़ते हुए वसूली नहीं हो रहे कर्ज (एनपीए) भी एक बड़ी चुनौती है. बढ़ते एनपीए से परेशान केंद्र सरकार ने कानून बनाया है कि यदि बैंक कर्ज नहीं लौटाया तो कर्ज लेते समय गारंटी स्वरूप रखी गई संपत्ति और प्रतिभूति को बैंक जब्त कर सकता है. इस कानून की जरूरत पिछले दिनों वैश्विक वित्तीय संगठन \'कॉपरेरेट डेटाबेस एसक्विटी\' की रिपोर्ट से लगाई जा सकती है. इस रिपोर्ट में कहा गया है कि भारत में बढ़ते हुए बैंकों के एनपीए भारतीय अर्थव्यवस्था के लिए खतरनाक संकेत हैं.
रिपोर्ट में कहा गया है कि भारत के बैकिंग सेक्टर के लिए वित्त वर्ष 2015-16 खासा चुनौतीपूर्ण रहा है. इस दौरान 25 सरकारी और प्राइवेट बैंकों के मुनाफे में करीब 35 फीसद गिरावट आई, जबकि ब्याज से होने वाली आय महज एक अंक में बढ़ी है. इसकी सबसे बड़ी वजह पिछले दो वर्षो में बैंकों के एनपीए का बढ़कर दो गुना हो जाना है. स्थिति यह है कि मौजूदा बाजार भाव के हिसाब से 25 बैंकों का एनपीए बढ़कर कुल मार्केट कैप का एक तिहाई हो गया है. 31 मार्च 2016 की स्थिति के अनुसार देश के सरकारी बैंकों के 100 सबसे बड़े फंसे हुए कर्जदारों पर कुल 1.73 लाख करोड़ रुपये बकाया है. देश में 7,686 ऐसे इरादतन डिफॉल्टर हैं, जिन पर सरकारी बैंकों के 66,190 करोड़ रुपये बकाया हैं.
उद्योग मंडल एसोचैम की रिपोर्ट में कहा गया है कि मार्च 2016 के अंत तक बैंकों की कुल दबाव वाली संपत्तियां (एनपीए और पुनर्गठित संपत्तियां) बढ़कर 10 लाख करोड़ रुपये पर पहुंच गई हैं. बैंकों की ऐसी दबाव वाली संपत्तियों में बैंकों के बड़े कर्जदाताओं की संख्या चिंताजनक रूप से बढ़ गई है. 70 फीसद के करीब एनपीए औद्योगिक घरानों का है. इस फंसे हुए ऋण ने बैंकों के मुनाफे को बुरी तरह प्रभावित किया है.
यद्यपि देश में बैंकिंग क्षेत्र में धोखाधड़ी रोकने व डूबे हुए कर्ज की वसूली के लिए कई कानून हैं. लेकिन इन कानूनों से कोई कारगर परिणाम नहीं मिल पा रहे हैं. वस्तुत: बैंकों को यह अधिकार दिया जाना चाहिए कि बैंक दोषी कंपनियों का प्रबंधन अपने हाथ में लेकर अपने कर्ज की वसूली के लिए रणनीतिक प्रयास करें. दोषी कंपनियों की संपत्ति बेचने के नियम-कायदे भी सरल किए जाने चाहिए. बैंकों को अनुमति दी जानी चाहिए कि वे अपने डूबे हुए लोन के लिए संकटग्रस्त कंपनी की संपत्ति को खुली नीलामी से बेचने की व्यवस्था से हटकर सीधे बेचने की डगर पर आगे बढ़ें.
देश के कई अर्थविशेषज्ञों का मत है कि केवल बैंकों का सुदृढ़ीकरण मौजूदा समस्याओं को खत्म नहीं कर पाएगा. ऐसे में बैंकों में सरकारी हिस्सेदारी को 51 फीसद से कम करना एक अधिक प्रभावी उपाय हो सकता है. मौजूदा अधिनियमों में संशोधन करने की आवश्यकता है ताकि सरकारी बैंकों में शासन की हिस्सेदारी को कम करके 33 प्रतिशत तक किया जा सके. आशा करें कि आरबीआई के नए गवर्नर सफल मौद्रिक नीति के अपने अनुभवों का इस्तेमाल कर बैंकों को मजबूत बनाने और कर्ज से बीमार अर्थव्यवस्था को पटरी पर लाने में सफल होंगे.
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