उदारीकरण का सियासी अर्थशास्त्र

Last Updated 24 Aug 2016 04:59:39 AM IST

नवउदारवाद के ढिंढोरचियों ने बड़ा शोर-शराब भरा प्रचार अभियान छेड़ा हुआ है.


उदारीकरण का सियासी अर्थशास्त्र

दावे किए जा रहे हैं कि 1991 में देश के वित्त मंत्री की हैसियत से मनमोहन सिंह ने नवउदारवादी सुधारों की जो प्रक्रिया शुरू की थी, उसके बाद गुजरी चौथाई सदी में देश में ऐसी जबर्दस्त खुशहाली आयी है, जो इसके सिवा और किसी भी तरह से आ ही नहीं सकती थी. पुन: यह भी बताया जा रहा है कि इन सुधारों को आगे बढ़ाने का रास्ता ही ऐसा अकेला रास्ता है जिस पर चलकर भारत अपनी कल्पना के स्वर्ग में पहुंच सकता है. इनको देखते हुए, इन सुधारों के फलस्वरूप हमारी जनता की और हमारी राजनीतिक व्यवस्था की ही क्या गत बनी है, इसका वस्तुगत आकलन करना जरूरी हो जाता है. सच तो यह है कि इस चौथाई सदी में नवउदारवादी सुधारों की प्रक्रिया ने एक देश में दो देशों को गढ़ने की प्रक्रिया को बहुत मजबूत कर दिया है. एक ओर जहां मुट्ठी भर लोगों के लिए शाइनिंग या दमकता इंडिया है, तो दूसरी ओर हमारी जनता के विशाल बहुमत के लिए सफरिंग या सिसकता भारत.
 
नवउदारवादी सुधारों का मुख्य मकसद है-मुनाफे अधिकतम करना. यही तो पूंजीवाद के अस्तित्व का मूल तर्क है. मुनाफे अधिकतम करने का लक्ष्य मुख्यत: हमारी जनता के विशाल बहुमत के आर्थिक शोषण को तेज करने के जरिए ही हासिल किया जा सकता है. इसके चलते जो आर्थिक असमानताएं बढ़ रही हैं, वही तो यह सुनिश्चित करती हैं कि अमीरों के पक्ष में आय पुनर्वितरण हो और गरीबों को और गरीब बनाया जाए. इस टिप्पणी में हम विस्तार से इन नवउदारवादी नीतियों के आर्थिक निहिताथरे की और इस चौथाई सदी में विभिन्न क्षेत्रों पर उनके प्रभावों की पड़ताल नहीं कर सकते हैं. इसलिए, इस टिप्पणी में हम सिर्फ कुछ ही तथ्यों की ओर ध्यान खींचना चाहेंगे, जो दिखाते हैं कि किस भीषण तरीके से एक देश के दो में बांटने की प्रक्रिया आगे बढ़ रही है. भारत के संदर्भ में केडिट सुइस की रिपोर्ट बताती है कि आबादी के सबसे धनी 1 फीसद हिस्से के हाथों में देश की कुल संपदा के 53 फीसद की मिल्कियत है और सबसे ऊपर की सीढ़ी पर खड़ी 10 फीसद आबादी के हाथों में, देश की कुल संपदा का 76.3 फीसद हिस्सा है. दूसरे शब्दों में, 90 फीसद से ज्यादा भारतीयों के हाथों में देश की कुल संपदा का चौथाई हिस्सा भी नहीं है.

वास्तव में दुनिया के प्रमुख देशों में भारत में ही डॉलर अरबपतियों की वृद्धि दर सबसे ज्यादा है. दूसरी ओर, 2011 की जनगणना के आर्थिक आंकड़े दिखाते हैं कि 90 फीसद भारतीय परिवारों में मुख्य रोटी कमाने वाले की आय, 10 हजार रु. महीना या उससे भी कम ही है. 1991 में, जब आर्थिक सुधारों की शुरुआत हुई थी, भारत की अधिकांश श्रम शक्ति के लिए मजदूरी औसतन 146 रु. प्रतिदिन थी. 2004 में यह औसत मजदूरी 272 रु. प्रतिदिन थी, जो जीवनयापन मूल्य सूचकांक में बढ़ोतरी बहुत कम बढ़ोतरी को दिखाता है. आर्थिक सुधारों के पैरोकार इस आंकड़े को बार-बार दोहराते हैं कि 1991 में भारत का प्रति व्यक्ति सकल घरेलू उत्पाद 310 डॉलर था, जबकि अब यह आंकड़ा बढ़कर 1500 डॉलर पर पहुंच चुका है.



यह आंकड़ा न सिर्फ बढ़ती असमानता की सचाई को छुपाता है; बल्कि आंखें खोलने वाले तरीके से इस बढ़ती असमानता के परिणामों को भी दिखाता है, जहां प्रति व्यक्ति आय में बढ़ोतरी का आंकड़ा, जनसाधारण की बदहाली को ढांपने का काम करता है. सच तो यह है कि नवउदारवादी सुधार के रास्ते को अपनाने के साथ भारत के सत्ताधारी वर्ग ने अपनी पहले की इसकी कोशिशों को करीब-करीब त्याग ही दिया था कि भारत में पूंजीवादी विकास की एक स्वायत्त गुंजाइश बनायी जाए. ऐसी अंतरराष्ट्रीय परिस्थिति में, जहां सोवियत संघ के पतन के बाद, वि स्तर पर राजनीतिक ताकतों का संतुलन साम्राज्यवाद के पक्ष में झुक गया था और दूसरे वि युद्ध के बाद के शांतिपूर्ण पूंजीवादी विकास की आधी सदी के दौरान हुए पूंजी के भारी संचय के  बल पर, अंतरराष्ट्रीय वित्तीय पूंजी बड़ी ताकत बनकर सामने आयी और उसने एक जबर्दस्त साम्राज्यवादी विीकरण के चरण को आगे बढ़ाया.

मुनाफे अधिकतम करने की पूंजी की तलाश में एक के बाद एक, इसके नीतिगत नुस्खे लाए गए कि देशों की सीमा के बीच पूंजी की आवाजाही पर लगे सारे नियंत्रणों को हटाया जाए. साथ ही, निजी पूंजी संचय के लिए सार्वजनिक संसाधनों तथा सार्वजनिक उद्यमों के हड़पे जाने का खेल भी चल रहा था. इन सुधारों से सार्वजनिक सेवाओं के क्षेत्र में भी अतिक्रमण किया और बिजली, परिवहन, पानी, शिक्षा, स्वास्थ्य आदि, एक-एक सेवा का निजीकरण किया गया, ताकि मुनाफे अधिकतम करने का दायरा और बढ़ाया जा सके. इन परिस्थितियों में भारत के पूंजीपति वर्ग ने, तेजी से तथा कहीं ज्यादा मुनाफे बटोरने की प्रत्याशा में, साम्राज्यवादी विीकरण का अभिन्न हिस्सेदार बनने का ही रास्ता चुना. इसका सिर्फ अर्थव्यवस्था पर ही नहीं, बल्कि राजनीतिक, सामाजिक, सांस्कृतिक, विदेश नीति संबंधी, आदि जीवन के सभी पहलुओं पर भारी असर पड़ा है.

यह नवउदारवादी नीतिगत दिशा, संविधान में समायी हुई भारत राष्ट्र की अवधारणा को नकारती है. समावेशी विकास की प्रक्रिया का फलना-फूलना सुनिश्चित करने के जिस लक्ष्य को लेकर चला जा रहा था, जिसमें  इस महादेश की भारी विभिन्नताओं के पार जाकर सभी को विकास की धारा में खींचा जा सके और जो तबके पहले भारी सामाजिक उत्पीड़न के शिकार रहे हैं; उन्हें विकास की मुख्यधारा में लाया जा सके, उस लक्ष्य को तो बढ़ती असमानताओं ने सीधे-सीधे ही नकार दिया है. इस तरह,नवउदारवादी सुधारों की यह चौथाई सदी एक ऐसा दौर साबित हुई है, जब एक समावेशी भारतीय राष्ट्रीयत्व तथा विकास प्रक्रिया के रास्ते पर आगे बढ़ने के बजाए, भारत वास्तव में इस लक्ष्य से और दूर चला गया है.  

 

 

सीताराम येचुरी
राजनेता


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