नदियों में गाद बड़ी चुनौती

Last Updated 24 Aug 2016 04:30:38 AM IST

गंगा के नाम पर खेल करने वालों के लिए फरक्का का मामला हमेशा आखिरी छोर का रहा है. मगर अब फरक्का का मामला आखिरी छोर का नहीं रह गया.




नदियों में गाद बड़ी चुनौती (फाइल फोटो)

मुख्यमंत्री नीतीश कुमार ने फरक्का पर मजबूती से बात उठाकर इसे केंद्रीय विषय बना दिया है, जो बहुत पहले से होना चाहिए था. हालांकि, नीतीश जिस फरक्का बैराज को खत्म करने की बात कर रहे हैं, उसे अचानक और एकबारगी से खत्म करना तो संभव नहीं. बिहार का लगभग 73 प्रतिशत भूभाग बाढ़ के खतरे वाला इलाका है. पूरे उत्तर बिहार में हर साल बाढ़ के प्रकोप की आशंका बनी रहती है. इस बार भी यह बेहद डरावने रूप में है. इसलिए नीतीश का पूरा जोर सिल्ट मैनेजमेंट पर केंद्रित है. उन्होंने प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी से मिलकर सिल्ट मैनेजमेंट नीति बनाने की अपील की है.

उत्तर बिहार में बहने वाली लगभग सभी नदियां जैसे-घाघरा, गंडक, बागमती, कमला, कोसी, महानंदा आदि नेपाल के विभिन्न भागों से आती हैं और खड़ी ढाल होने के कारण अपने बहाव के साथ अत्यधिक मात्रा में गाद लाती हैं. कभी-कभी अत्यधिक गाद के एक स्थान पर जमा होने पर वहां गाद का टीला बन जाता है. अगर गंगा को देखा जाए तो चौसा, पटना या फरक्का या कहीं भी इसे जहां सबसे गहरी होना चाहिए, वहीं यह उथली हो चुकी है. धीरे-धीरे अगर उस उथलेपन का विस्तार नदी की चौड़ाई में फैलता है, तो नदी का स्वाभाविक प्रवाह ही अवरुद्ध हो जाता है. तब नदी टुकड़े-टुकड़े में पोखर या तालाब जैसी दिखने लगती है. गंगा नदी के मामले में तो स्वाभाविक गाद जमा होने की क्रिया पुराने समय से चल ही रही थी. फरक्का बैराज के निर्माण के बाद से इसमें गाद जमा होने की दर कई गुना बढ़ गई. फरक्का बैराज जहां है, वहां गंगा अबूझ पहेली जैसी बनती है. कई धाराओं में बंटी हुई नजर आती है.

बांग्लादेश सीमा के नजदीक पश्चिम बंगाल में 1975 में जब फरक्का बैराज बना था तो मार्च के महीने में भी वहां 72 फुट तक पानी रहता था. अब बालू-मिट्टी से नदी के भरते जाने की वजह से नदी की गहराई 12-13 फुट तक रह गई है. फरक्का के पास गंगा 27 किलोमीटर तक रेतीले मैदान बना चुकी है. तो, लाख टके का सवाल यह कि फरक्का का निर्माण ही क्यों हुआ था, यह तब भी वैज्ञानिकों को समझ नहीं आया था. सभी नदियां अपने साथ मिट्टी और गाद वगैरह लेकर आती हैं, वह मिट्टी-गाद फरक्का जाते-जाते रुक जाता है, क्योंकि नदी का स्वाभाविक प्रवाह वहां रुक जाता है. गाद और मिट्टी कचरा फरक्का में रुकता है. फिर वह बैराज के पास जमा होता है.

नदी पानी पीछे की ओर धकेलती है. गाद जहां का तहां जमा होता है. इसके बाद नदी किनारे के इलाकों का तेजी से कटाव होता है. दिक्कत यह है कि हमारे देश में रिवर इंजीनियरिंग का अलग से कोई ठोस रूप विकसित नहीं हो सका है. जो नदियां हैं और उन पर जो निर्माण हैं, उनका असेसमेंट नहीं होता. अगर फरक्का बैराज का असेसमेंट हुआ होता तो कब का इसे हटा दिए जाने की अनुशंसा की गई होती.



तो बिहार में बाढ़ के कहर की एकमात्र वजह फरक्का बैराज ही है? एक वजह तो है. मगर मेरा मानना है कि एकमात्र वजह बिल्कुल नहीं है; क्योंकि फिलवक्त बाढ़ की जो तस्वीर न्यूज चैनलों में बेबस और लाचार जनता की दिख रही है, इसके पीछे सरकारी मशीनरी की उदासीनता भी एक अहम वजह है. नेताओं ने कभी भी इस मसले पर गंभीर चर्चा नहीं की कि तटबंध टूटने की समस्या पर कैसे काबू पाया जाए? बाढ़ राहत के क्या विकल्प हो सकते हैं? सबसे पहले सरकार को बाढ़ नीति बनानी चाहिए और इससे संबंधित सलाह में बाढ़ प्रभावित व्यक्ति, शोधकर्ता, चिंतक, नीति-निर्माता, सामाजिक कार्यकर्ता व पत्रकारों को शामिल करना चाहिए.

यह विचारणीय बिंदु है कि हर साल किसी राज्य की जनता प्रकृति से ज्यादा मानवजनित गलतियों के कारण सब कुछ गंवाने को मजबूर हो और नेता हवाई दौरा करने पर ही खुश हो लें. इस सोच को बाढ़ में ही दफनाने की जरूरत है. यह सच है कि आने वाले दिनों में फरक्का गंगा के लिए और गंगा के जरिए देश के दूसरे हिस्से के लिए परेशानियों का पहाड़ खड़ा करने वाला है. बहरहाल, फरक्का बांध की उपयोगिता इस तस्वीर का दूसरा पहलू है. ऐसे में आवश्यक है कि विषय विशेषज्ञ संपूर्ण परिदृश्य का समग्र एवं गहन अध्ययन करें और उनकी संस्तुतियों के आधार पर ही केंद्र और राज्य सरकार आगे बढ़ें.

 

 

राजीव मंडल
लेखक


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