समाज : दायित्व दलित की बेटी का भी है

Last Updated 31 Jul 2016 04:40:27 AM IST

'वेश्या' शब्द गाली क्यों है? भंगी, चूड़ा, चांडाल जैसे शब्द गाली क्यों हैं? सामाजिक व्यवस्था में जो समूह निचली पायदान पर होता है, उसी की पहचान का सूचक शब्द गाली बन जाता है.


समाज : दायित्व दलित की बेटी का भी है

भारत की जाति व्यवस्था में जो जातियां सबसे निचले स्तर पर बिठा दी गयी थीं, जिन्हें राजनीतिक, आर्थिक और हर तरह की सामाजिक शक्ति से वंचित कर दिया गया था, उन्हीं जातियों के नाम सामाजिक व्यवहार में गाली बन गये. इस अर्थ में जो जितना अधिक दलित, उसकी पहचान उतनी ही बड़ी गाली. बीसवीं सदी की सामाजिक करवट ने भले ही बहुत-सी गालियों को अपराध में बदल दिया हो, लेकिन भारत के ग्रामीण अंचलों में अब भी इन गालियों का धड़ल्ले से प्रयोग होता है.

जाति व्यवस्था का तमाशा देखिए कि अगर एक पंडित दूसरे पंडित को भंगी या चूड़ा कह दे तो यह दूसरा पंडित तिलमिला जाता है, मरने-मारने पर उतारू हो जाता है. इसके विपरीत, अगर किसी दलित को कोई व्यक्ति पंडितजी कहकर संबोधित कर दे तो उस दलित को कतई अपमानबोध नहीं होता. जिन लोगों ने या जिस व्यवस्था ने निचले जाति समूहों का निर्माण किया और फिर उनकी पहचान को गाली बनाया उनकी परंपरा के पोषक लोग अब भी मूछों पर ताव देते हैं. उनको किसी अपराध के कटघरे में खड़ा नहीं किया जाता. उनकी गर्वीली पहचान कभी गाली नहीं बनती, जबकि दलित की पहचान गाली बन जाती है. जब से दलित समूहों ने शक्ति अर्जित करना शुरू किया है, राजनीतिक व्यवस्था में उनका सीधा हस्तक्षेप हुआ है, तब से उनकी पहचान गालियों की परिधि से बाहर होने लगी है. लेकिन क्योंकि वेश्या समाज की सबसे बड़ी दलित है, उसकी कोई राजनीतिक या नैतिक शक्ति नहीं है, उसका आज भी कोई सामाजिक हस्तक्षेप नहीं है. इसलिए उसका नाम सबसे बड़ी गाली है, दलित समूहों के बीच भी सबसे बड़ी गाली.

इसीलिए जब सवर्ण मानसिकता का प्रतिनिधित्व करने वाले एक राजनेता ने मौजूदा भारत में दलित शक्ति की सबसे बड़ी प्रतीक राजनेत्री के विरुद्ध आलोचनात्मक वक्तव्य देते हुए वेश्या का उपमान खड़ा कर दिया तो कोहराम मच गया. सड़क से संसद तक इस राजनेता और उसकी मातृ संस्था के प्रति निंदा-र्भत्सना के स्वर गूंजने लगे. राजनीतिक दबाव ने उस मुंहफट बेलगाम राजनेता को ही नहीं, बल्कि उसकी समूची पार्टी को ही क्षमायाचना की घुटनाटेक मुद्रा में ला दिया. लेकिन क्षमायाचना का तत्काल स्वीकरण इस महान नेत्री की राजनीतिक बिसात का चालू मोहरा नहीं बन सकता था इसलिए क्षमायाचना ठुकरा दी गयी. अभद्र, अश्लील और बेलगाम राजनीति खुलकर नग-नृत्य पर उतर आयी.

एक पक्ष की मानसिक और भाषाई अभद्रता ने जो राजनीतिक असंतुलन पैदा किया था, उसे दूसरे पक्ष की अभद्रता ने संतुलित कर दिया. बेलगाम नेता की पत्नी ने बेलाग सवाल किया कि क्या सिर्फ दलित नेत्री का अपमान ही अपमान होता है; क्या वह नेत्री ही अपशब्दों से आहत हो सकती हैं; क्या उसका और उसकी बेटी का अपमान अपमान नहीं है; उन्हें जो गालियां दी गयी हैं; क्या उनसे वे आहत नहीं हो सकतीं? दलित नेत्री को भी क्षमायाचना करनी चाहिए. अगर अभद्र भाषा के लिए उसके पति को गिरफ्तार किया जा सकता है तो अभद्र भाषा के लिए ही दलित नेत्री और उसके समर्थकों को भी गिरफ्तार किया जाना चाहिए. यह औरत के अपमान का प्रश्न है और इस अपमान के निराकरण के दो पैमाने नहीं हो सकते. अभद्रता के प्रतिकार और प्रायश्चित के भिन्न मापदंड नहीं हो सकते.
लेकिन दलित नेत्री के पक्ष ने जैसी कुतर्कपूर्ण सफाइयां प्रस्तुत कीं, जैसा पश्चातापविहीन रुख अपनाया, निहित तौर पर जैसे सिर्फ अपने अपमान को ही बड़ा अपमान ठहराकर राजनीतिक खेल शुरू किया, उसमें अधिक गंदी अभद्रता निहित थी. देखते ही देखते समूचा प्रकरण दलित पार्टी बनाम राष्ट्रवादी पार्टी हो गया; दलित जाति बनाम क्षत्रिय जाति हो गया; और क्योंकि दलित नेत्री का प्रतिनिधित्व एक मुसलमान कर रहा था, इसलिए यह मामला मुसलमान बनाम हिंदू हो गया. देश की राजनीति जिस रसातल में चली गयी है, वह रसातल उभरकर ऊपर आ गया.

यहां सवाल सिर्फ औरत की मान रक्षा का नहीं है, बल्कि समूची राजनीति की मान रक्षा का है, सामाजिक व्यवहारों की मान रक्षा का है, व्यक्तिगत आचरण की मान रक्षा का है. अगर हम यह मान लें कि राजनीति सिर्फ गंद और बदबू फैलाएगी और जो भी गंद और बदबू फैलाएगा उसका राजनीतिक दल आंख बंद करके उसके पुट्ठे सहलाएगा तो यह अभद्र राजनीतिक व्यवहार हमें कहां ले जाएगा? मर्यादाओं और भद्रताओं के निर्वाह की जिम्मेदारी दलित समूहों और दलित राजनीतिक जमातों की भी है, बल्कि उनकी ही जिम्मेदारी ज्यादा बड़ी है. सवर्णतावादी अभद्रताओं का जवाब दलितवादी अभद्रता नहीं हो सकती. अगर ऐसा करने की कोशिश की जाएगी तो फिर दलितवाद और सवर्णतावाद के बीच की विभाजन रेखा कहां रहेगी? क्या फर्क रहेगा इन दोनों में? सवर्णतावादी समूहों ने दलित जाति समूहों की पहचान को गाली में बदला है. उन्होंने वेश्या के स्वयं उन्हीं द्वारा रचित-प्रेरित कर्म को घृणास्पद बनाकर वेश्या जाति समूह की पहचान को गाली में बदला है. तो क्या दलित समूह भी यही करेंगे?

गाली-प्रति गाली के क्षुद्र प्रकरण में दलित नेत्री के पैरोकारों ने बेहद चाटुकाराना ढंग से दलित नेत्री को मर्यादा परे ठहराने की कोशिश की है. उन्हें एक ऐसे व्यक्ति के रूप में प्रतिष्ठित करने की कोशिश की है, जिसकी गलती गलती नहीं होती, अपशब्द अपशब्द नहीं होते, जिसकी अभद्रता अभद्रता नहीं होती और जिसे कभी क्षमायाचना की जरूरत भी नहीं होती. जाति, संप्रदाय विभाजित समाज में यह स्थापना बेहद खतरनाक है. ऐसी स्थापनाएं विभाजनों को और गहरा करेंगी, उन्हेंऔर घृणात्मक बनाएंगी, उनकी शत्रुताओं को और तीखा करेंगी. इसके परिणाम कहां ले जाएंगे, भारतीय समाज के तौर पर हमें कैसे समाज में ले जाकर खड़ा करेंगे, इसकी कल्पना की जा सकती है. इस स्थिति की गंभीरता को बाकी सबको तो समझना ही चाहिए, उस दलित देवी को सबसे ज्यादा समझना चाहिए जिसके ऊपर जातीय वर्चस्वविहीन समतावादी समाज के निर्माण की बड़ी जिम्मेदारी है. अगर वह तात्कालिक क्षुद्र राजनीतिक लाभ के लालच में इस बड़ी जिम्मेदारी से बचने की कोशिश करेंगी तो इतिहास बहुतों की तरह उन्हें भी निर्थकता के कूड़ेदान में डालकर आगे बढ़ जाएगा.

विभांशु दिव्याल
लेखक


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