मीडिया : खोजी पत्रकारिता कहां गई?
हमारे चैनलों को जो करना चाहिए वो नहीं करते, वे किसी भी एक घटना पर हल्ला मचाकर तुरता न्याय की मांग कर खामोश हो रहते हैं.
सुधीश पचौरी |
चैनलों ने गुजरात के ‘ऊना’ में दलितों के उत्पीड़न की न घटना का ‘फॉलो अप’ दिया. ‘फॉलोअप’ सिर्फ प्रिंट मीडिया ने दिया और दो अतिरिक्त सूचनाएं दीं: पहली यह कि उत्पीड़न करने वालों का पहला प्लान दलित युवकों को जिंदा जलाने का था, लेकिन पुलिस को खबर लगने के कारण इस प्लान को रद्द कर दिया गया. कार से बांध कर नंगा कर पीटा गया. दूसरी खबर यह आई कि जिस गाय की हत्या का आरोप इन दलित युवकों पर लगाया गया उसे किसी और ने मारा था.
प्रिंट में आने के बावजूद, ये दोनों ही खबरें इलेक्ट्रॉनिक मीडिया से गायब ही रहीं. कायदे से तो यह काम उन चैनलों को करना था, जिन्होंने इस मुददे को दलित उत्पीड़न का मुददा बनाया और न्याय की मांग को उठाया; जो सर्वथा उचित था. लेकिन कहानी का ‘फॉलोअप’ बिलकुल नहीं किया! ऐसी कितनी घटनाएं होती हैं जो चैनलों में एक-दो दिन तूफान मचाती हैं और फिर गायब हो जाती हैं. उनका फॉलोअप करना जरूरी नहीं समझा जाता, जबकि फॉलोअप करना पत्राकारिता का एक जरूरी काम है.
ऐसी ही एक अन्य घटना का चैनल ट्रीटमेंट देखें. यह रियो जाने के लिए विवादित एक पहलवान से जुड़ी है. तीन-चार दिन तक एक अंग्रेजी चैनल यह बताता रहा कि चौहत्तर किलो वर्ग में कुश्ती के मुकाबलों के लिए रियो ओलम्पिक्स में जाने वाले पहलवान नरसिंह यादव डोप टेस्ट में वर्जित पदार्थ लेने के दोषी पाए गए हैं. इस प्रकरण में, रियो जाने के लिए नरसिंह के प्रतिस्पर्धी रहे सुशील कुमार के कोच सतपाल से एक एंकर बार-बार पूछता रहा : क्या आपने पता लगाया कि उसके खाने में किसने गड़बड़ की? सतपाल कहते रहे कि हमें क्या मालूम क्या हुआ? एंकर ने आरोप लगाया ऐसा नरसिंह के ना जाने किसका फायदा है? सतपाल ने कहा कि देखिए आप आरोप न लगाएं. मैं भी पहलवान हूं. कोई भी जाए बस देश के लिए पदक लेकर आए.
एंकर पूरे आधे घंटे सतपाल को इसी तरह कुरेदता रहा: ‘क्या आप ने पता लगाया कि किसने उसके खाने में मिलाया? अंत में सतपाल ने कहा कि आपके आरोप बेबुनियाद हैं. सुशील का जाना तो तभी बंद हो गया, जब अदालत ने फैसला दे दिया. मुझे खुद नरसिंह के टेस्ट में फेल होन से धक्का लगा है. मैं चाहता हूं कि चाहे कोई जाए देश के लिए पदक सबसे महत्त्वपूर्ण है. ‘जांच’ का काम तो चैनलों का था. वे पता लगाते कि किसने क्या किया? लेकिन अपना काम नजरअंदाज कर एंकर सतपाल से ही पूछता रहा कि आपने खबर खोज क्यों नहीं की?
एक अन्य अंग्रेजी चैनल ने रसोइयों का स्टिंग ऑपरेशन करके यह ‘तथ्य’ निकाला कि रसोई में कोई आया था, जिसने मिलाया होगा! लेकिन इस चैनल ने भी रसोइयों की बात को अंतिम मान लिया. उनसे यह न पूछा कि उनके होते हुए किसी ने मिलावट कैसे की? मिलावट के लिए उनको भी तो जिम्मेदार माना जा सकता है! चैनलों में यह कहानी अंतत: ‘षड्यंत्र सिद्धांत’ की ओर मुड़ गई. राजनीतिक षड्यंत्र खोजा जाने लगा ‘नरसिंह यादव को ‘अयोग्य’ सिद्धांत कराने से किसे फायदा होना था, जैसे सवाल दुहराए जाने लगें. ‘षड्यंत्र’ की लाइन के बार-बार प्रसारण से एक चलती जांच भी पक्षपाती हो सकती है, इसकी चिंता चैनलों ने नहीं की!
एक बड़ा दोष तो स्पोर्ट्स अथॉरिटी के लगे शिविर की ‘सुरक्षा व्यवस्था’ में ही नजर आता है. यह कैसा कैंप था, जिसमें खिलाड़ियों का भोजन तक सुरिक्षत नहीं था. ‘स्टिंग’ में रसोइए के कथन से साफ था कि कैंप में शायद कोई ‘स्टेंर्डड ऑपरेशन सिस्टम’ नहीं था. सिस्टम होता तो उसकी जांच से छनकर ही कैंप का राशन सप्लाई होता और रसोई में भोजन पकता और परोसा जाता! जिस तरह से एक दूसरे पर आरोप लगाने वाले दो स्पद्र्धी अखाड़े सामने आए उससे स्पष्ट है कि कैंप में लापरवाही रही.
अंत में सातवें दिन एक चैनल ने ‘नेशनल एंटी डोप अथॉरिटी’ के हवाले से बड़ी खबर दी कि ‘अथॉरिटी’ के आगे नरसिंह यादव डोप कांड में अपनी ‘मासूमियत’ सिद्ध नहीं कर सका. इस खबर ने ‘साजिश’ की कहानी बेकार कर दी! अगर चैनल केस के अंदर जाते तो ‘साजिश’ की थियरी को ‘पूरा सच’ न मान लेते. लेकिन ‘फॉलो अप’ करने, ‘खोज’ का कष्ट कौन करे? साजिश की कल्पना में जो आसानी और मजा है, वह सचाई खोजने के काम में कहां?
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