प्रसंगवश : फिर करें भारत की खोज

Last Updated 31 Jul 2016 04:25:42 AM IST

ज्ञात इतिहास इस बात का साक्षी है कि भारत अपनी हजारों वर्ष की सुदीर्घ सांस्कृतिक यात्रा में साहित्य, कला, शिक्षा, व्यापार, स्थापत्य और नीति आदि के क्षेत्रों में आगे बढ़ता रहा है और अनेक प्रतिमान भी स्थापित कर चुका था.




गिरीश्वर मिश्र

काल क्रम में अनेक बाह्य शासकों के आक्रमण हुए और उनके साथ उनकी संस्कृतियां भी आई. भारतीय संस्कृति में इन सब के तत्व घुले-मिले और एक विविधवर्णी भारतीय संस्कृति का निर्माण होता रहा. इस प्रक्रिया में निरंतरता और परिवर्तन दोनों के ही तत्व शामिल थे. कुछ पुराना शेष रहा और कुछ नया जुड़ गया. पर संस्कृति की यह यात्रा पूरी तरह निर्विघ्न नहीं थी. इसकी गाथा संघर्ष भरी थी. निकट इतिहास की लें तो अंग्रेजों की गुलामी के समय यह संघर्ष अपने चरम पर पहुंचा.

इस दौरान देश का इतिहास और भूगोल भी बदलता रहा. भारत की अपनी पहचान भी बनती बिगड़ती रही. सभ्यता के सभी पक्षों बौद्धिक से ले कर भौतिक तक-बुद्धि-विचार, खान-पान, वेश-भूषा आदि सबमें बदलाव आते गए. यह बदलाव न केवल बाहरी स्तर पर हुए, बल्कि हमारे सोचने का नजरिया भी बदला और हमारी अपनी छवि भी बदली. अंग्रेजी राज ने व्यवस्थित रूप से भारतीयता को संशय में डाल दिया और हमें अपने को पश्चिम के आईने में देखने-समझने की आदत डाली. औपनिवेशिक प्रभाव पूरी तरह भिन गया. अंग्रेजी दृष्टिकोण इस तरह मन में रच-बस गया कि हमने शिक्षा, राजनीति, विधि और स्वास्थ्य आदि जीवन के सभी महत्त्वपूर्ण क्षेत्रों में अपनाते गए. संस्कृति के इस नए ककहरे के सीखने के साथ हमने अपनी संस्कृति को अनसीखा किया, भुलाया या फिर उसकी नई व्याख्या सीखी.

अंग्रेजियत की गिरफ्त में हम कुछ ऐसे आए कि तमाम कोशिशों के बावजूद उससे निजात नहीं मिल पा रही है. जो हमने अपनाया उसमें काफी अंश अनावश्यक और आरोपित आडम्बर था. हमारी मजबूरी ऐसी कि हम बड़ी ईमानदारी से उसे अभी तक ढोते चले आ रहे हैं. ज्ञान की दृष्टि से शास्त्रों या अनुशासनों का गठन और पठन-पाठन का पूरा ढांचा बिना किसी विचार के ज्यों का त्यों अपना लिया. संस्कृति से मेल न खाने पर भी हमने उसे सार्वभौम मान कर स्वीकार किया और उसे पढ़ते हुए अपने देश की सभ्यता, संस्कृति और ज्ञान की परम्परा से दूर होते गए. एक खास तरह की पढ़ाई करते हुए हम स्वयं अपनी सभ्यता और संस्कृति के बारे में अनपढ़ भी होते गए.

अंग्रेजों द्वारा स्थापित शिक्षा के चलते हमारे दिमाग पर सोचने की पाश्चात्य शैली इतनी चढ़ गई कि इस सोच में दीक्षित हो कर हममें से बहुतों को किसी तरह की (अनिवार्यतया मौलिक!) भारतीयता की बात असंभव और अनावश्यक-सी लगने लगी. उनकी नजर में यह बेमतलब का मुद्दा (नान इशू) या गड़ा मुर्दा है. इसकी चर्चा शुरू होते ही कई लोगों को पुनरुत्थानवादी (रिवाइवलिस्ट) होने की बू आने लगती है. हालत यह है कि अब ‘देश’ को अप्रासंगिक (विचार) ठहराते हमारे अनेक प्रखर बुद्धिजीवी देश की अखण्डता को कोई महत्त्व नहीं देते और अभिव्यक्ति की आजादी के तहत देश के बारे में कुछ भी कहने-सुनने की छूट लेने और देने के हिमायती हुए जा रहे हैं. वे ‘देश की एकता’ की बात करने से कन्नी कटाते हैं और देश के भीतर की ‘क्षेत्रीय एकता(ओं)’ की असुरक्षा पर चिंता जताते नहीं थकते.

यह एक कड़वी सच्चाई है कि राजनैतिक स्वतंत्रता मिलने के बाद भी हमारी सोच और नीति में कोई ऐसा सार्थक बदलाव नहीं आ सका जो हमें अपने ढंग से अपने को समझने और अपनी समस्याओं को सुलझाने की छूट दे पाता. हम रीति-नीति में पूरी तरह पश्चिमाभिमुख ही बने रहे मानों कोई दूसरा विकल्प है ही नहीं. ‘भारत केन्द्रित’ विकास की अवधारणा ‘वि-विकास की एकल धारा’ के आगे अनावश्यक और व्यर्थ हो गई जबकि यह सबको पता है कि वि-विकास के सारे दांव-पेच और संस्थाएं विकसित देशों के ही हित की पक्षधर होती हैं. 

गांधीवादी अर्थशास्त्री और विकास के बारे में उनके विचार देश के आर्थिक विकास में बाधक ही माने जाते रहे हैं. विकास की योजनाओं में उन्हें खास महत्त्व शायद ही कभी मिला हो. पर आज विकास के एकांगी आर्थिक मॉडल को लेकर चारों ओर लोगों में संदेह और अविश्वास फैल रहा है. अब ‘टिकाऊ विकास’ को महत्त्व दिया जाने  लगा  है. लोग अब यह महसूस करने लगे हैं कि वैश्विक के बदले स्थानीय दृष्टि की ज्यादा दिनों तक अनदेखी नहीं की जा सकती.



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