नारी अस्मिता : तार-तार करते सियासी दल

Last Updated 30 Jul 2016 05:58:18 AM IST

बीते दिनों देश में दो घटनाएं घटित हुईं. ये दोनों राजनैतिक दलों से संबंधित थीं, इसलिए इन्हें राजनैतिक घटनाएं कहना उचित होगा.


भारतीय जनता पार्टी की उत्तर प्रदेश इकाई के उपाध्यक्ष दयाशंकर सिंह

हुआ यूं कि पहली घटना में भारतीय जनता पार्टी की उत्तर प्रदेश इकाई के उपाध्यक्ष दयाशंकर सिंह ने बहुजन समाज पार्टी की अध्यक्ष मायावती से संबंधित अमर्यादित टिप्पणी की. इस पर बहुजन समाज पार्टी सहित देश के समस्त राजनीतिक दल बिफर उठे और संसद तक में इसकी गूंज सुनाई दी. दयाशंकर सिंह के खिलाफ कार्रवाई की मांग की गई. नतीजतन भाजपा ने दयाशंकर सिंह को पार्टी से निष्कासित कर दिया.

उत्तर प्रदेश में उनके खिलाफ प्राथमिकी भी दर्ज की गई और उनकी गिरफ्तारी की मांग की गई. दूसरी घटना दयाशंकर सिंह की अमर्यादित टिप्पणी के खिलाफ लखनऊ में हुए बहुजन समाज पार्टी के प्रदर्शन में खुलेआम दयाशंकर सिंह की पत्नी, बेटी और मां के खिलाफ अमर्यादित, अपमानजनक नारे लगाए जाने और बसपा कार्यकर्ताओं द्वारा हाथों में अभद्र भाषा में लिखे पोस्टर लहराए जाने की है.

विडम्बना यह कि जो प्रदर्शन मायावती के खिलाफ अमर्यादित टिप्पणी किए जाने के विरोध में आयोजित किया गया था, उसी में दयाशंकर सिंह की पत्नी, बेटी और मां के खिलाफ बसपाइयों द्वारा अपमानजनक अमर्यादित टिप्पणियां कीं और वह भी बार-बार. जबकि प्रदर्शन के दौरान मंच पर बहुजन समाज पार्टी के दिग्गज नेता मौजूद हों. असल में हमारे देश में विरोधियों के खिलाफ अभद्र भाषा का इस्तेमाल या गाली-गलौज करना आम बात है. इस पर अंकुश लगना अनिवार्य है.

ऐसे तत्वों के खिलाफ कठोर से कठोर कार्रवाई की जानी चाहिए. इसकी ज्योतिष एवं द्वारिका पीठाधीवर जगतगुरू स्वामी स्वरूपानंद सरस्वती जी महाराज, इन्फोसिस के संस्थापक नारायण मूर्ति, फिल्म अभिनेता ओमपुरी, मुस्लिम धर्मगुरु मौलाना कल्बे सादिक सहित कई बुद्धिजीवियों-समाजसेवियों-चिंतकों ने कड़ी निंदा की है और कहा है कि ऐसे प्रयास किए जाएं, जिससे अभद्र भाषा का इस्तेमाल तुरंत बंद हो. यह सच है कि भारतीय समाज में आजादी के साढ़े छह दशक बाद भी दलितों को बराबरी का दर्जा हासिल नहीं है, जिसके लिए वह बराबर संघर्ष कर रहे हैं.

यह भी कड़वा सच है कि जब तक हमारा समाज जातियों में बंटा रहेगा, देश की उन्नति असंभव है. इतिहास गवाह है कि जातियोें की अहमन्यता के चलते दलित लगातार अत्याचार और अपमान के शिकार होते रहते हैं. यह सिलसिला आज भी जारी है. इसमें पिछड़े और अल्पसंख्यक भी अछूते नहीं रहते. गाहे-बगाहे वह भी इसके शिकार होते ही रहते हैं. अब तो पिछड़ों में एक उच्च वर्ग पैदा हो गया है जो अपने से पिछड़ों पर जुल्म करने में पीछे नहीं हैं. फिर मायावती एक दलित नेता हैं. वह भी एक महिला. देश में खासकर उत्तर प्रदेश में दलितों की वह सर्वमान्य नेता हैं.

उनके खिलाफ टिप्पणी पर दलितों की नाराजगी स्वाभाभिक है. उन पर अमर्यादित टिप्पणी से वे लोग जो दलित न होते हुए भी समतावादी समाज के समर्थक हैं, आहत हुए हैं. लेकिन बसपा नेता नसीमुद्दीन सिद्दीकी का बयान और लखनऊ में बसपा के प्रदर्शन के दौरान बसपाइयों द्वारा दयाशंकर सिंह की पत्नी, मां और नाबालिग बच्ची के खिलाफ जो अमर्यादित टिप्पणियां की गई, अभद्र भाषा का इस्तेमाल किया गया, उसे क्या उचित कहा जा सकता है? दुख इस बात पर है कि मायावती पर की गई टिप्पणी पर हायतौबा मचाने वाले नेता और उस प्रदर्शन में मौजूद बसपा नेता इस पर चुप क्यों हैं?

वह इसे रोष में की गई टिप्पणी की संज्ञा दे रहे हैं. टीवी चैनलों पर बसपा के नेता इस पर मौन क्यों हैं. इन टिप्पणियों पर माफी मांगने के सवाल पर वह क्यों बगलें झांकने लगते हैं? बसपा महासचिव व सांसद सतीश चंद्र मिश्र कहते हैं कि उन्होंने ऐसा कुछ सुना ही नहीं. बसपा नेता नसीमुद्दीन सिद्दीकी के बयान कि लखनऊ में जो हुआ वह कानूनी था, पर मायावती और सतीश चंद्र मिश्र की चुप्पी का मतलब क्या है? विडम्बना कि इस पर दूसरे दल भी मौन साधे बैठे हैं.

बसपा नेता यह आरोप लगाना नहीं भूले कि इस बार भी भाजपा ने दयाशंकर के परिवार को आगे करके राजनीति करनी शुरू कर दी है और नारी सम्मान बचाओ के नाम पर उसने बसपा का विरोध करने का निर्णय लिया है. यहां दयाशंकर की पत्नी स्वाति सिंह का बयान महत्त्वपूर्ण है कि दयाशंकर सिंह ने जो किया, कहा, कानून उसके खिलाफ कार्रवाई करेगा. लेकिन मेरी बेटी, मां यानी सास और मेरा इसमें क्या दोष है? क्या दलित की बेटी का सम्मान महत्त्वपूर्ण है? इससे सिद्ध होता है कि आम स्त्री का, उसकी बेटी का सम्मान सम्मान नहीं है.

देश में दलित का तो सम्मान है, अन्य वह चाहे सवर्ण हो या अन्य कोई, उसके सम्मान का तो सवाल ही कहां उठता है? क्या गुस्से में अभद्र भाषा के इस्तेमाल की इजाजत दी जा सकती है. जबकि बसपा नेता इसे गुस्से में कही बात कहकर दरगुजर करने का प्रयास कर रहे हैं. गौरतलब है कि सार्वजनिक रूप से किसी भी महिला के बारे में, भले वह दलित हो या सवर्ण या फिर किसी अन्य वर्ग-समुदाय की ही क्यों न हो, ऐसी टिप्पणी करना सामाजिक मर्यादा के अनुरूप तो कदापि नहीं कहा जा सकता है. सवाल यह कि इस अभद्रता पर अंकुश कब लगेगा. इसमें दिनों-दिन बढ़ोतरी ही हो रही है. लेकिन राजनेता इस सवाल पर चुप्पी साध जाते हैं.

वह खुद तो कुछ नहीं कहते लेकिन कार्यकर्ताओं को उन्होंने इसकी खुली छूट दे रखी है. सबसे बड़ी बात यह कि आजतक किसी भी नेता ने अपने समर्थकों-कार्यकर्ताओं को अपनी भाषा में संयम बरतने की सलाह नहीं दी. ऐसा कोई उदाहरण नहीं है. हमारे यहां लोकतंत्र की हर बात पर दुहाई दी जाती है लेकिन क्या असलियत में देश में लोकतंत्र है. दलों के अंदर तो कदापि नहीं. अधिकतर दलों मे तो मुखिया का राज चलता है. ऐसे में लोकतंत्र कलंकित होता रहेगा और नारी की अस्मिता को इस तरह की मानसिकता वाले दल तार-तार करते रहेंगे.

ज्ञानेन्द्र रावत
लेखक


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