विश्लेषण : इतिहास की संघ पट्टी

Last Updated 28 Jul 2016 04:32:21 AM IST

जब संघ परिवार सत्ता में प्रभावी होता है, तब-तब वह भारतीय इतिहास एवं संस्कृति का सच्चा हितैषी होने का जोर-शोर से दावे करने लगता है.


इतिहास की संघ पट्टी

इतिहास से मार्क्‍सवाद की बुराइयों और औपनिवेशिक मलिनताओं को निकाल बाहर करने की घोषणा करता है. इतिहास को समग्रता में नए सिरे लिखने का वादा करता है. यह भी कि प्राचीन गौरव से ओत-प्रोत राष्ट्रवादी इतिहास लिखेगा. लेकिन अपने पहले कार्यकाल या सत्ता पर काबिज होने के अभियानों के दौरान या अभी इसने गलत ऐतिहासिक तथ्यों का ही अवलंबन ही किया है.

नरेन्द्र मोदी ने 2014 में लोक सभा के चुनावी अभियान के समय तक्षशिला और अलेक्जेंडर की पराजय के ‘स्थान’ बिहार में बताए जबकि हाल में एक पूर्व मंत्री ने फरमाया कि शिवाजी ने चंगेज खान के हाथों आशंकित तबाही को टालकर वास्तव में सराहनीय कार्य किया था. यकीनन पूर्व मंत्री को लगता है कि खान उपनाम वाला विध्वंसक मुस्लिम ही था.

पूर्व मंत्री को स्पष्टत: कोई जानकारी नहीं थी कि  चंगेज खान मुस्लिम नहीं था. और तथ्य यह है कि वह मुस्लिम सल्तनतों पर कहर बनकर टूटा था. उसके पौत्र हलाकू ने बगदाद को तहस-नहस कर डाला था और 1258 में अब्बासिद की खिलाफत नेस्तानाबूद कर दिया था. हम इतिहास के पेशेवर कुछ गंभीर अकादमिक परिणाम मिलने की उम्मीद बांधे थे. उम्मीद में थे कि केएम मुंशी के चर्चित कार्य ‘हिस्ट्री एंड कल्चर ऑफ द  इंडियन पिपुल’ या आरसी मजूमदार के अनेक शोधकार्यों से आगे बढ़ सकेंगे ताकि बेहद विषालु और अतिरंजित ‘औपनिवेशिक-मार्क्‍सवादी’ ऐतिहासिक स्थापनाओं से निदान मिल सके.

1998 से 2004 के बीच के समय और हाल के दो से ज्यादा साल के कार्यकाल में हमें बस ये दावे ही सुनने को मिले हैं कि तमाम तरह की वैज्ञानिक, तकनीकी, शल्य चिकित्सा और दर्शन संबंधी ज्ञान का उदय भारत में वेदों से हुआ है. सच तो यह है कि यह दावा दशकों से बार-बार दोहराया जाता रहा है. ज्योतिष, गणित, शल्य चिकित्सा और दर्शन में प्राचीन भारत के साथ ही अन्य अनेक पश्चिमी और पूर्वी तथा उत्तरी और दक्षिणी सभ्यताओं की देन को समूचे विश्व के पेशेवर इतिहासकारों ने माना है.

प्राचीन भारत की वैज्ञानिक उपलब्धियों को दर्शाने के लिए आईसीएचआर द्वारा हाल में आरंभ की गई परियोजना सराहनीय कदम है बशर्ते इससे अच्छे नतीजे मिलें और इंडियन नेशनल साइंस एकेडमी द्वारा प्रकाशित पचास वर्ष पुरानी प्रतिष्ठित पत्रिका हिस्ट्री ऑफ साइंस जानकारियों से परिपूर्ण हो सके. लेकिन इस परियोजना से ज्यादा बदलाव शायद ही आए. दरअसल, वैकल्पिक इतिहास की सूची में अब और इजाफे की गुंजाइश कम ही बची है. खासे शोध के पश्चात लिखी पुस्तक की तो बात ही क्या कहें, हमें ऐसा कोई आलेख तक देखने को नहीं मिला है जिससे शुद्धतावादी इतिहास और संस्कृति की समझ के बारे में कुछ जानने को मिल जाए. और ऐसा अकारण नहीं है.

इतिहास का क्षेत्र परिवार की हद से खासे आगे निकल चुका है कि मनसुहावन निष्कर्ष नहीं गढ़े जा सकते. शासक की धार्मिक पहचान से संचालित इतिहास वह क्षेत्र है जिसे औपनिवेशिक इतिहास लेखन ने सर्वाधिक प्रभावित किया. प्राचीन और मध्यकालीन भारत के इतिहास की बहुपक्षीय विवेचना हुई. उससे पहले के इतिहास में हिंदू-मुस्लिम-ब्रिटिश काल जैसा त्रिकोण वजूद में नहीं था.

इसका उल्लेख तो 1818 में जेम्स मिल्स ने किया. कुछ दशकों बाद इलियट और डॉसन ने आठ वॉल्यूम की पुस्तक हिस्ट्री ऑफ इंडिया में त्रिकोण के घातक स्वरूप को दर्शाया. प्रयास के पीछे की इस मंशा को छुपाया नहीं गया : ‘आडंबरों से घिरे तमाम लोगों को बताया जाना है कि ब्रिटिश शासन ने मुस्लिम शासकों के अत्याचार से निजात दिला दी’-बांटो और राज करो का समूचा दर्शन ही तो था यह. 

आजादी के पश्चात मार्क्‍सवादी समेत तमाम वैचारिकी के इसिहासकारों ने औपनिवेशिक दौर के इतिहास लेखन को चुनौती देते हुए नया  प्रतिप्रेक्ष्य अपनाया. इतिहास को शासकों और उनके दरबारों से मुक्त कराकर किसानों, हुनरमंदों और बाद में मातहतों तक के जमीनी स्तर तक इसका विस्तार किया. कोशिश थी कि इतिहास पर बहुपक्षीय रोशनी पड़ सके जहां धार्मिक पहचान, केवल शासकों की ही नहीं, बल्कि सामाजिक और राजनीतिक समूहों की पहचान की भी अनदेखी न  होने पाए.

राजवंशों के उत्थान-पतन की व्याख्या  की जाने लगी. न केवल कमजोर या ताकतवर शासक के तौर पर बल्कि सामाजिक, आर्थिक, वैचारिक और सांस्थानिक संघर्ष के जटिलताओं के मद्देनजर जांच-परख हुई. लैंगिक संबंधों, पारिस्थतिकी, साहित्य, चित्रकारी, लोकजीवन, जीवन-मृत्यु के प्रति रवैया, यौनिकता, परिवार आदि तमाम संदभरे की व्याख्या की  जाने लगी.

इस प्रकार के इतिहास को केवल धार्मिक पहचान से प्रेरित किसी शासक द्वारा मात्र हिंदू-मुस्लिम के सीमित नजरिये में नहीं बांधा जा सकेगा. संघ परिवार की यही समस्या है. गौमांस खाने वालों के खिलाफ लामबंदी करके अगर वह ‘बांटो और राज करो’ की नीति से कोई उम्मीद बांध बैठा है, तो इतिहास के पुनर्लेखन और प्राचीन भारत के गौरव को लौटा लाने का उसका मंसूबा दूर का सपना भर है. परिवार ने स्कूली स्तर पर पाठय़पुस्तकों में इतिहास के पुनर्लेखन की योजना बनाई है. कारण, औपनिवेशिक, मिल-इलियट-डॉसन तरह का इतिहास युवा दिमागों में भरा जा सकता है.

इसकी प्रेरणा आरएसएस की शाखाओं से ली गई है जहां इस प्रकार का इतिहास ‘राष्ट्रवाद’ के रूप में समझाया जाता है. यही सब तो मुरली मनोहर जोशी ने पिछली भाजपा-नीत सरकार का शिक्षा मंत्री रहते में किया था. स्थानीय स्तर पर इतिहास पुनर्लेखन की पूरक रणनीति अपनाई जा रही है, जहां समन्वयवादी विरासतों के जरिए छवि निर्माण या फायदा उठाने की गरज से संघर्ष के हालात बनाने में भी मदद मिल सकती है. इस काम को अच्छे से अंजाम दिया जा सकता है.

प्रो. हरबंस मुखिया
लेखक


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