दलित : जाएं तो जाएं कहां
ज्यादातर टिप्पणीकार और उत्तर प्रदेश की राजनीतिक स्थिति के जानकार, इस पर प्राय: एक राय हैं कि दयाशंकर सिंह ने, दलितों के एक बड़े हिस्से को अपनी ओर खींचने की भाजपा की सारी मेहनत पर, कम-से-कम उत्तर प्रदेश में तो पानी फेर ही दिया है.
दलित : जाएं तो जाएं कहां |
इसी का दूसरा पक्ष यह भी है कि मायावती को बहुत की भौंडे तरीके से निशाना बनाकर, भाजपा के इस अति-अल्पकालिक राज्य उपाध्यक्ष ने, बसपा को पिछले कुछ महीनों से लगातार आ रही टूट-फूट की बुरी खबरों से उबरकर, अपनी कतारों को एकजुट तथा सक्रिय करने का मौका दे दिया है.
लेकिन इस सचाई को ओर टिप्पणीकारों का कम ही ध्यान गया है कि बहनजी के खिलाफ तत्कालीन भाजपा नेता की इन शर्मनाक टिप्पणियों को, लखनऊ में बसपा के रोष प्रदर्शन में जिस तरह दयाशंकर सिंह के परिवार की महिलाओं के खिलाफ दोहराया गया है, उसने भाजपा को भी दो-घोड़ों पर एक साथ सवारी की दुविधा से उबरने का कारण दे दिया है.
गौरतलब है कि भाजपा ने इसके बाद, सिर्फ दयाशंकर सिंह और उनकी टिप्पणी से खुद को बचाने की मुद्रा ही नहीं छोड़ी बल्कि इस पूरे मामले को अभद्र भाषा के प्रयोग की ‘दयाशंकर बनाम बसपा कार्यकर्ता होड़’ का मामला बनाकर, उसकी तोहमत से खुद एक हद तक पीछा छुड़ाने के मौके के लिए दरवाजा भी बंद कर दिया. इसके बजाए, ‘बेटी के सम्मान में, भाजपा मैदान में’ के नारे के साथ खासतौर पर पूर्वी उत्तर प्रदेश में सड़कों पर उतरकर, भाजपा ने अपने सवर्ण आधार को इसका भरोसा दिलाना ही ज्यादा जरूरी समझा कि दलितों से झगड़े में वह उनके साथ है.
यह दिलचस्प है कि भाजपा ने दुविधा छोड़कर इस विकल्प को अपनाने का एलान ठीक उस रोज किया, जिस रोज प्रधानमंत्री गोरखपुर के दौरे पर, भाजपा-विहिप के संतों की इसकी अपीलें सुन रहे थे कि आदित्यनाथ को ही उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री पद का उम्मीदवार घोषित किया जाए क्योंकि वही अयोध्या में राम मंदिर का निर्माण कराएंगे. इस तरह, इस विवाद को बसपा और भाजपा, दोनों ने ही अपने परंपरागत आधार को संभालने तथा मजबूत करने के मौके में तब्दील कर लिया है.
यह दूसरी बात है कि इस चक्कर में दोनों के ही सीमित सामाजिक आधार को दिखाने वाले मूल चेहरे चमककर सामने आ गए हैं. इसका उत्तर प्रदेश के आने वाले चुनाव पर क्या असर पड़ेगा यह तो आने वाला समय ही बताएगा, लेकिन इतना तय है कि इसमें उत्तर प्रदेश के आने वाले चुनाव में, पिछले आम चुनाव के मुकाबले कहीं बहुत तीखा सामाजिक ध्रुवीकरण होने के संकेत छुपे हुए हैं.
यह भाजपा के लिए अच्छी खबर नहीं है. दयाशंकर सिंह का बयान उत्तर प्रदेश के चुनाव में उसके लिए वैसे ही भारी पड़ सकता है, जैसे बिहार के इतने ही महत्त्वपूर्ण चुनाव में आरक्षण पर पुनर्विचार का आरएसएस प्रमुख, भागवत का बयान पड़ गया था.
भाजपा के दुर्भाग्य से, दलितों के महत्त्वपूर्ण हिस्से को, अंबेडकर के समारोहों/ भव्य स्मारकों और ‘अछूत घर भोज’ के प्रतीकों के ही जरिए, भाजपा के साथ जोड़ने की मोदी-शाह जोड़ी की कोशिशों पर पानी फेरने वाले, एक दयाशंकर सिंह ही नहीं हैं.
उल्टे दयाशंकर सिंह से होड़ लेकर, इन कोशिशों की वास्तविक सीमाओं ने भी पिछले ही दिनों अपना जोर दिखाया है. वास्तव में बसपा ने भले ही खुद को मुख्यत: मायावती के खिलाफ टिप्पणियों पर केंद्रित रखा हो, संसद में इससे उठी बहस स्वाभाविक रूप से गोरक्षा के नाम पर देश के विभिन्न हिस्सों में खासतौर पर चमड़े का काम करने वाले दलितों पर और मवेशियों की खरीद-फरोख्त करने वाले मुसलमानों पर हो रहे भयानक हमलों की ओर मुड़ गई.
याद रहे कि गुजरात के उना में दलितों की पिटाई इस तरह की पहली घटना किसी भी तरह नहीं थी. ऐसा भी नहीं है कि तथाकथित गोरक्षकों के हिंसक हमले, गाय का मांस खाने के नाम पर अखलाक की नृशंस हत्या से लेकर, गो-तस्करी के संदेह के नाम पर हरियाणा, हिमाचल, झारखंड आदि में मुसलमानों की बर्बर हत्याओं तथा हिंसक हमलों तक ही सीमित रहे हों.
गाय की खाल उतारने के लिए दलितों पर हमले की यह पहली घटना हर्गिज नहीं थी. इसके बावजूद, यह घटना जिस तरह खासतौर पर गुजरात में दलितों के विक्षोभ के अभूूतपूर्व विस्फोट के लिए पलीता बनी, वह दलित राजनीति की विडंबनाओं को ही दिखाता है.
दलित संगठनों के आह्वान पर गुजरात बंद के दौरान 20 से ज्यादा युवाओं के आत्महत्या के प्रयास करने को, जितना विकास के गुजरात मॉडल की असलियत का खुलासा माना जाएगा, उतना ही देश में दलितों का प्रतिनिधित्व कर सकने वाली राजनीति से निराशा माना जाएगा. इसमें दलितों का प्रतिनिधित्व करने वाली सबसे बड़ी पार्टी होने की दावेदार, बसपा से निराशा भी शामिल है.
फिर भी अंबेडकर की भाजपा की दुहाई ही नहीं, देश में दलितों के नाम पर चल रही राजनीति से, सबसे बढ़कर दलितों की ही निराशा तथा नाराजगी की और भी आंखें खोलने वाली अभिव्यक्ति, आंबेडकर भवन ढ़हाए जाने के खिलाफ इसी महीने के मध्य में मुंबई में हुई विराट रैली में देखने को मिली. मुंबई में मूल अंबेडकर भवन को गिराकर, उसकी जगह पर अत्याधुनिक व भव्य भवन खड़ा किए जाने के विचार को ठुकराने के लिए जमा हुए दसियों हजार दलितों की रैली को जाने-माने दलित लेखक तथा सिद्धांतकार आनंद तेलतूमड़े ने, अपेक्षाकृत संपन्न दलितों के खिलाफ साधारण, गरीब दलितों का विद्रोह यूं ही नहीं कहा है.
बसपा समेत मौजूदा दलित पार्टियां उस मुकाम पर पहुंच गई हैं, जहां वे भाजपा जैसी पार्टियों की अपनी सवर्णवादी विचारधारा के बावजूद, अंबेडकर जैसे दलित आइकनों को हड़पने की कोशिशों का कारगर तरीके से मुकाबला तो नहीं ही कर पा रही हैं, वे दलितों के बढ़ते असंतोष को भी कोई दिशा, भरोसा नहीं दे पा रही हैं.
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