दलित पिटाई- गुजरात मॉडल का सच

Last Updated 25 Jul 2016 05:20:48 AM IST

गुजरात में दलितों की रक्षा के लिए अधिकारियों की नाकामी निश्चित रूप से चौंकाने वाली है.




गुजरात में दलितों की पिटाई (फाइल फोटो)

अब हालात सवाल कर रहे हैं कि क्या यही गुजरात मॉडल है? पिछले दिनों चार दलित युवकों को गुजरात में कपड़े उतारकर पीटा गया था. गुजरात के उना शहर में उन युवकों को अर्धनग्न कर जिस स्पोर्ट्स यूटिलिटी व्हीकल (एसयूवी) से बांधा गया वह हमारी अर्थव्यवस्था की रफ्तार का प्रतीक है.

जाइलो की कीमत साढ़े आठ लाख से साढ़े दस लाख के बीच है. इसी गाड़ी से बांधकर दलित युवकों को शहर में अर्धनग्न कर घुमाया गया और लाठियों से कई बार मारा गया. गांव में मारा गया. फिर शहर लाकर मारा गया, ताकि शहर भी देखे. दलित युवकों की पीठ पर बरसती लाठियों की आवाज बता रही थी कि वह तमाम सदियां और दस्तूर अभी जिंदा हैं, जिनमें दलित कभी जिंदा नहीं. दलित के हर आवाज को दबाकर उनके स्वाभिमान को कुचला जा रहा था. प्रतीत हो रहा था कि दलित की पीठ की कोई कीमत नहीं. उसके स्वाभिमान-सम्मान की कोई कीमत नहीं. उसकी नागरिकता की कोई कीमत नहीं. कीमत उस जाइलो एसयूवी की है, जिस पर एक भी लाठी नहीं लगती.

कई दिन से उनकी पीठ पर बरसती लाठियां की आवाज गूंज रही हैं, मगर हमारा समाज उसे संगीत समझकर मगन है. क्या यह लड़ाई अकेले दलित की है? क्या उन युवाओं की पीठ पंचायत का चबूतरा है, जहां कोई भी दबंग बैठकी लगा ले? वह लाठी बता रही है कि हमारे बीच क्रूरता मौजूद है. हमारी चुप्पी बता रही है कि हम उस क्रूरता से सहमत हैं और दलित की पीठ, लात और लाठी के लिए बनी है. क्या यह तस्वीर काफी नहीं है कि गैर-दलित समाज अपने भीतर की इस धार्मिंक और सांस्कृतिक क्रूरता के खिलाफ चीत्कार उठे. इन सबसे बड़ा सवाल यह है कि क्या इसी गुजरात मॉडल की बात करके वर्ष 2014 में नरेन्द्र मोदी चुनाव जीते थे.

ये तमाम इस प्रकार के सवाल हैं, जिसका जवाब सबसे पहले देश प्रधानमंत्री से मांगेगा. गुजरात में दलितों की पिटाई के बाद इस समुदाय के बीच भड़का आक्रोश शांत नहीं हो रहा है जबकि दूसरी ओर इस मुद्दे पर राजनीति भी गर्मा गई है. पिछले दिनों गुजरात में अहमदाबाद सहित कई भागों में दलितों ने हिंसक प्रदशर्न किए. इस दौरान दो लोगों की मौत हो गई. सूचना के अनुसार पथराव के दौरान एक हेड कांस्टेबल की मौत हो गई, जबकि कुछ दलितों ने जहर खाकर आत्महत्या की कोशिश की. इनमें से एक की जान चली गई. भारत आज़ादी की आजादी के करीब 70 वर्ष हो गए हैं.

प्रधानमंत्री मोदी ने अपनी पार्टी से कहा है कि वे तिरंगा सप्ताह मनाएं. गली-गली में तिरंगा रैली निकालें. सवाल उठ रहा है कि किसके लिए निकलेगी तिरंगा रैली? कब तक हम ऐसे राष्ट्रवादी आयोजनों की आड़ लेकर इन सवालों से बचेंगे? कब तक हम आंख-से-आंख मिलाकर बात नहीं करेंगे कि आज भी दलित को वह जगह नहीं मिली, जो मिलनी चाहिए.



संविधान से उसे अधिकार और संरक्षण नहीं मिला होता तो आजाद भारत का समाज उनके साथ क्या करता, गुजरात की घटना प्रमाण है. आप लोकतंत्र के नौटंकीबाज सोशल मीडिया को खंगालकर देखिए. वहां जातिवाद और संप्रदायवाद किस कदर जिंदा है. सब अपने जातिवाद को बचाने के लिए तिरंगे और राष्ट्रवाद का सहारा ले रहे हैं. हम अपने पूर्वाग्रहों के गुलाम हैं. हम अपने भीतर की नफरतों के ग़ुलाम हैं. हम आजाद नहीं हैं. सिर्फ दलित ही क्यों निकलते हैं दलित हिंसा के खिलाफ. मीडिया भले गुजरात में प्रदशर्नों को जितना व्यापक बता ले, मगर हकीकत यही है कि इस व्यापकता में भी दलितों का अकेलापन झलक रहा है.

लोकसभा में अनुसूचित जाति और जनजाति के 100 से भी अधिक सांसद हैं. इन सांसदों ने भी दलितों को अकेला छोड़ दिया है. ये सभी बाबा साहब केवल बाबा साहब का नाम लेते हैं. दलितों की पीठ पर आज़ाद भारत की मानिसक ग़ुलामी की लाठी बरस रही है. गुजरात के कुछ दलित युवकों ने जहर पीकर आत्मविलोपन करने का प्रयास किया है. गुजरात ही नहीं, बिहार से लेकर यूपी तक क्यों है इनके खिलाफ इतनी नफरत. बहरहाल, अब देखना यह है कि गुजरात की इस घटना का असर क्या होता है और सरकार दोषियों के खिलाफ सख्त कार्रवाई में कितनी तत्परता दिखा पाती है?

 

 

राजीव रंजन तिवारी
लेखक


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