सियासत की जुबान
उत्तर प्रदेश में पिछले दिनों हुए \'गालीकांड\' को भाजपा और बसपा से इतर देखने की जरूरत है.
सियासत की जुबान (फाइल फोटो) |
बयान के बाद प्रतिबयान ने न सिर्फ सियासत को शर्मिदा किया है बल्कि जनता को यह सोचने को मजबूर किया है कि ऐसे लोगों के हाथों सत्ता सौंपी जा सकती है क्या? राजनीति में भाषा को स्तर को लेकर लंबे समय से चिंता जताई जा रही है. लेकिन भाषा जब गाली बन जाए तो क्या? ऐसा नहीं है कि राजनीति में भाषा कभी बेहद आदर्शवाद की स्थिति में रही है. लेकिन कुछ अपवादों को छोड़कर एक समान्य राजनीतिक शिष्टाचार हमेशा मौजूद रहा.
ऐसा भी नहीं है कि यह अमर्यादित बयानबाजी भारतीय राजनीति में पहली बार हुई है. हाल के10-15 वर्षो में जिस स्तर पर राजनीति की भाषा का क्षरण हुआ है, उसमें मीडिया भी कुछ हद तक सहभागी की भूमिका में रही है. 1998-1999 के आम चुनाव से खासकर इलेक्ट्रॉनिक मीडिया का फैलाव शुरू हुआ.
बयान और उस पर प्रतिक्रिया और खबरों की राजनीति. सोशल मीडिया की क्रांति के बाद तो भाषा की कोई लक्ष्मण रेख ही नहीं बची. इसकी झलक सोशल मीडिया खासकर ट्विटर में झांकने पर हो जाएगी. वैसे, इस बार गाली-गलौज का चलन पहले की सारी सीमा को लांघती नजर आती है तो इसकी भी बड़ी वजह है. कमोबेश हर सियासी दलों में ऐसे \'बयानवीर\' मौजूद हैं, जो पार्टी में अपना वजन बढ़ाने के वास्ते ऐसे ऊलजुलूल बयान देते रहे हैं.
कभी-कभी तो पार्टी भी उनकी आपत्तिजनक बोली पर झूम उठती है और अहम ओहदे से नवाजती भी है. चूंकि, अधिकतर राजनीतिक बहस एक-दूसरे की आलोचना के बजाय अपशब्दों पर केंद्रित होकर रह गई है.
असंसदीय भाषा और भावों का प्रयोग इतना आम हो गया है कि इस बात में अंतर करना काफी मुश्किल हो गया है कि क्या संसदीय है और क्या नहीं? इसे एक प्रकार से राजनीति का \'मानसिक दिवालियापन\' ही कहा जा सकता है. मगर सबसे दुखद और निराशाजनक तथ्य यह है कि पढ़े-लिखे जमात वाले नेता भद्दी भाषा का ठसके से इस्तेमाल ज्यादा करते दिखते हैं. फिलहाल, राजनीति को नहाने-खाने वाले प्रदेश में यह सिलसिला थमेगा, इसकी संभावना दूर-दूर तक नजर नहीं आ रही है.
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