मीडिया : ‘कबाली’ का जादू

Last Updated 24 Jul 2016 06:29:43 AM IST

ऐसा तो न सलमान को नसीब हुआ है, न शाहरुख खान को, न आमिर खान को और न ही अमिताभ बच्चन को ऐसा कभी नसीब हुआ है कि जब उनकी फिल्म रिलीज हो तो पहले शो के लिए दर्शकों के बीच हंगामे होने लगें!


सुधीश पचौरी

एक सप्ताह तक की टिकटें एडवांस में बिक जाएं. लोग सिनमा हॉल वालों के खिलाफ रिपोर्ट करने लगें कि सिनेमा हॉल वाले मन माने दामों पर टिकट बेच रहे हैं यानी ‘ब्लैक’ कर रहे या करवा रहे हैं!

मल्टीप्लेक्सों के इस जमाने में टिकटों की कालाबाजारी सुनने में कम ही आती है क्योंकि चीजें बहुत हद तक पारदर्शी हो गई हैं. लेकिन कबाली में या तो खुद कुछ ऐसा है कि उसकी टिकटें रजनीकांत के चाहने वालों की पहुंच से बाहर हो गई हैं या कि ऐसा कराया जा रहा है एक हाइप बनाया जा रहा है ताकि कबाली रजनीकांत की अब तक की सबसे हिट फिल्म साबित हो जाए! सचाई जो हो रिलीज के सीन ही कुछ ऐसे हैं कि लगता है कि रजनीकांत के लिए पैदा हुए हिस्टीरिया का मुकाबला नहीं किया जा  सकता. न उनके नाम की टीशर्ट बिक सकती है न उनके लिए उनके फैन अपनी कारों के बोनट पर उनके चित्रों को कार के कलर में छपवा सकते हैं न उनके नाम और चित्र के चांदी के सिक्के ही बन सकते हैं न टॉफी चॉकलेट. रजनी की कबाली के रिलीज से पहले ये सब हो चुका है और हो रहा है!

हमने खुद देखा है कि अंग्रेजी के एक चैनल ने कबाली की रिलीज से दस दिन पहले से दिन में दो तीन बार कबाली की होने वाली रिलीज को दिखाया है उसके एडवांस प्रोमो दिखाए हैं और टीका-टिप्पणी से ऐसा बताया कि यह फिल्म रजनी की अब तक के कॅरियर की सबसे ग्रेट फिल्म है. कबाली के एक और पहलू के बारे में इंडियन एक्सप्रेस ने बताया है. यह है कबाली का दलित तत्व! उसके निदेशक दलित हैं फिल्म के निर्माण से जुड़े कई तकनीशियन दलित हैं और यह फिल्म तकनीक की कुछ नई ऊचाइयां छूती है और इस तरह यह दिखाती है कि दलित किसी मानी में कम नहीं. यह एक प्रकार का संगठित प्रोमो है जो रजनी के ग्लोबल चाहने वालों का आह्वान करता है.

कबाली ने एक बार फिर से सिद्ध किया है कि रजनी के चाहने वाले रजनी को अपना हीरो ही नहीं ‘थलैवा’ या ‘थलैवार’ मानते हैं और उसके लिए कुछ भी करने को तैयार रहते हैं! ‘थलैवा’ या ‘थलैवार’ तमिल शब्द है जिनका मतलब लीडर या बॉस या सर होता है. यह एक ‘जन-उपाधि’ है, जो किसी नायक को उसके चाहने वाले देते हैं. यह उपाधि ‘एमजीआर’ को भी मिली थी,‘करुणानिधि’ को भी मिली हुई है और ‘रजनीकांत’ को भी मिली हुई है. हिंदी की फिल्मी दुनिया में ऐसा चलन नहीं दिखता. यहां तो हीरो-हीरोइन आजकल अपनी फिल्म की रिलीज से पहले या तो किसी विवाद को खुद जन्म देकर दर्शकों का घ्यान खींचना चाहते हैं या फिर टीवी पर आकर उसकी तारीफ करते रहते हैं.

रजनीकांत की कबाली को लेकर ऐसा बावलापन क्यों नजर आता है? इसके कई कारण हो सकते हैं. पहला तो यही कि पुराने जमाने से तमिल हीरो भगवान की तरह माने जाते हैं पूजे जाते हैं. दूसरे यह कि तमिल फिल्में तमिल अस्मिता की लड़ाई का हिस्सा हैं. आप कुछ भी कहें, अन्य भारतीय भाषाओं की इंडस्ट्री की तरह तमिल फिल्म इंडस्ट्री बॉलीवुड से खतरा महसूस करती है और प्रतिक्रिया में अपने हीरोज को बहुत मान-सम्मान देती है. उनके फैन क्लब स्थायी हैं जबकि हमारे हीरोज के फैन क्लब तब सामने आते हैं, जब वे अचानक बीमार पड़ जाते हैं. अमिताभ के केस में हम ऐसा देख चुके हैं. तीसरी बात यह भी है कि तमिल हीरो अपनी कहानी और तकनीक पर कुछ अधिक घ्यान देते हैं. रजनी इस मामले में बहुत ही नवाचारी हीरो हैं और ग्लोबल तमिल दर्शकों को देखकर फिल्में बनाते हैं.

कबाली की कहानी मलयेशिया में रहने वाले तमिलों के जीवन से जुड़ी बताई जाती है. यह वहां प्लांटेशनों में काम करने वाले तमिलों के शोषण उत्पीड़न की कहानी कहती है, जिसमें एक सामाजिक संदेश दिया गया है. देशभक्ति, जनहित और समाज सुधार की थीम उनकी फिल्मों में किसी न किसी रूप में रहती ही है. कबाली में दलित थीम एक अंतससूत्र की तरह पिरोई बताई जाती है. दलित विमर्श के इन दिनों में यह महत्त्वपूर्ण तत्व है! हिंदी फिल्मों ऐसी सामाजिक सजगता का तत्व मुखर नहीं होता. हिंदी का फामरूला दलित शोषित वर्ग की कहानी अब नहीं कहता.  जो भी हो कबाली तमिल फिल्म इतिहास के लिए भी मील का एक नया पत्थर साबित होने वाली है!



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