चिंतन : समाज में व्याप्त अनेक विभाजन

Last Updated 24 Jul 2016 05:37:42 AM IST

भारतीय समाज में अंतर्सगीत नहीं है. समता और समरसता का अभाव है. अनेक विभाजन हैं.


हृदयनारायण दीक्षित

क्षेत्रीयता के आग्रही भाव हैं. धन आधारित अनेक वर्ग हैं. धन-सम्पन्न वर्ग का चरित्र लगभग एक है. अभावग्रस्त वर्ग की संख्या बड़ी है. अभावग्रस्तों की दुखद परिस्थितियां एक जैसी हैं, लेकिन वे संगठित वर्ग नहीं हैं. भाषायी वर्ग भी हैं. लेकिन सभी वर्ग विभिन्न कारणों से टूट रहे हैं. क्षेत्रीयता राष्ट्रीयता में बदल रही है. यह शुभ लक्षण है. जातीय सदस्यता जन्म आधारित है. हम अपने विवेक से किसी जाति विशेष के सदस्य नहीं हो सकते. यहां धर्मातरण/पंथांतरण आसान है, लेकिन जाति त्याग या जाति परिवर्तन की कोई सुविधा नहीं. जाति जन्मना गोलबंदी है. सो राजनीति में इसका अलील दुरुपयोग है.

जाति खात्मे का लक्ष्य लेकर तमाम आंदोलन भी चले हैं. डॉ. राममनोहर लोहिया का जाति तोड़ो आंदोलन चर्चा का विषय था. उन्होंने जाति प्रथा को भारत की उदासी माना. कहते हैं, दुनिया में सबसे अधिक उदास हैं हिन्दुस्तानी लोग. वे उदास हैं क्योंकि सबसे ज्यादा गरीब और बीमार भी हैं.  परन्तु उतना ही बड़ा एक और कारण यह भी है कि उनकी प्रकृति में एक विचित्र झुकाव आ गया है, खासकर के उनके इधर के इतिहासकाल में. बात तो निर्लिप्तता के दर्शन की करते हैं, जो तर्क में और विशेषत: अंतर्दृष्टि में निर्मल है पर व्यवहार में वे भद्दे ढंग से लिप्त रहते हैं.
महाभारत में युग व्यवस्था का वर्णन है. सतयुग में सभी लोग बलवान, धनवान और प्रियदर्शन होते हैं.

उस समय परिपूर्ण समानता है. ऋग्वैदिक काल की जातिहीन व्यवस्था याद की जा सकती है. पृथ्वी बिना बोए ही अन्न, फल, फूल देती है. त्रेता में बदलाव आता है. सबसे पहले क्षत्रिय वर्ण आता है. बाकी वर्ण नहीं है. द्वापर में सभी वर्ण हैं. युग असल में भारतीय सामाजिक-आर्थिक विकास की यात्रा का संकेत देते हैं. सतयुग जातिवर्ण भेदहीन है. त्रेता में संपत्ति पैदा होती है. वर्णो का विकास होता है. द्वापर में श्रम विभाजन आकार लेता है.
महाभारत के अनुसार सबसे पहले क्षत्रिय वर्ण आया. संजय ने धृतराष्ट्र को बताया कि आरंभ में कोई वर्ण नहीं था.

त्रेता में क्षत्रिय पैदा हुए और द्वापर में बाकी वर्ण. लेकिन इसी महाभारत में भृगु का विचार भिन्न है. भृगु के अनुसार पहले केवल ब्राह्मण थे. ब्रह्मा से उत्पन्न होने के कारण यह सारा जगत ब्राह्मण था. भिन्न-भिन्न कर्मो के कारण वर्ण बने. अथर्ववेद की भी घोषणा भिन्न है. सृष्टि विकास के पूर्व सुप्त अवस्था में एक तत्व था. कह सकते हैं प्रकृति ब्रह्म-अण्ड या ब्रह्मण्ड और ब्रह्मा का भाग होने के कारण सब ब्राrाण. सृष्टि ब्रह्मा या संपूर्णता का ही विस्तार है.

लेकिन व्यवहार में यहां जाति विभेद है और जातिगत अत्याचार. जाति कृत्रिम हैं. जाति भेद का कोई तार्किक आधार नहीं है. वैज्ञानिक तो कतई नहीं. जाति उच्छेद के अनेक उपाय कहे गए हैं. डॉ. अम्बेडकर की मीमांसा में जाति-पार विवाह भी एक उपाय है. इसका व्यवहार थोड़ा कुछ बढ़ा भी है. यहां सामाजिक परिवर्तन की गति धीमी है. वर्ण विदा हो गए हैं. जाति की विदाई भी पक्की है, लेकिन जातिवादी राजनीति के चलते इसे नई संजीवनी मिल जाती है. सभी सामाजिक-राजनैतिक और सांस्कृतिक संगठनों व राष्ट्रचेता महानुभावों को जाति खात्मे के लिए अतिरिक्त श्रम करना चाहिए.



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