सड़क और स्टूडियो के दरम्यिान

Last Updated 23 Jul 2016 11:04:03 PM IST

तेरह जुलाई की दोपहर बाद एक वर्ष का मेरा बच्चा सो नहीं पा रहा था क्योंकि पास की कर्फ्यू-ग्रस्त गली में उन्मादी भीड़ जोर-जोर से आजादी के लिए नारेबाजी कर रही थी, और बहुत सवेरे से ही उस पर आंसू गैस के गोले दागे जा रहे थे.


सड़क और स्टूडियो के दरम्यिान

ऐसे संकट-ग्रस्त क्षेत्र में हिंसा से परिचित होना किसी भी बच्चे के दीक्षित होने का ही  हिस्सा होता है. तो यहां मैं उस क्षण का साक्षी था, जब मेरा बच्चा कश्मीरी के रूप में पहचान पा रहा था-उस समय से काफी पहले जब उसकी सुन्नत होगी और वह बाकायदा एक मुस्लिम के रूप में जाना जाने लगेगा. कश्मीर ने उसके अवचेतन पर इस्लाम से काफी पहले दस्तक दे दी है.

तीन दशक पूर्व इसी क्षण से मैं भी गुजरा था, जब मेरे पिता मुझे थपकी देकर सुलाने का प्रयास कर रहे थे. उस समय हमारे आंगन के पिछली ओर की पहाड़ियों पर मोर्टार के गोले बरस रहे थे. कितनी अजीब बात है कि इस दोपहर घाटी के अतीत और वर्तमान-यह 85वां शहीदी दिन था-का फिर से खूनखराबे से सना एकाकार हो रहा है. लेकिन गली में पसरा असंतोष इस बार असामान्य प्रतिक्रिया था-8 जुलाई को कोकरनाग में एक युवा आतंकी कमांडर की मौत पर जतलाई जा रही थी यह प्रतिक्रिया. इसी समय मुझे किसी अज्ञात व्यक्ति ने फोन पर बताया कि एक समाचार चैनल मौजूदा संकट पर पिछले दो दिनों से लगातार चर्चा करा रहा है, और मेरे फोटो तथा वीडियो दिखला कर कश्मीर के स्थानीय युवा आतंकवादियों, मृत और जीवित, के साथ एक प्रकार से तुलना करते हुए कैसा आदर्श हो जैसी बातें कही जा रही हैं. मैं उद्विग्न हो उठा-न केवल बेहद असंवेदनशीलता और उथलेपन से यह सब किए जाने पर बल्कि मेरे जीवन की सुरक्षा पर बन आए खतरे की आशंका ने भी मुझे बेकल कर दिया था. समझ नहीं पा रहा था कि पचास  हजार रुपये मासिक वेतन पाने वाला और पचास लाख रुपये के आवास ऋण से दबा मैं भला कैसे किसी सफल युवा कश्मीरी का सबसे अच्छा उदाहरण हो सकता हूं? और वो भी उस स्थिति में जब किसी की महानता को अंतिम यात्रा में शामिल लोगों की संख्या के पैमाने से मापा जाता हो.

कासे कहूं मन की पीर
मेरा दुख सही साबित हुआ : थोड़ी ही देर में मुझे पता चला कि हमारी कॉलोनी के बाहर लोगों की भीड़ उमड़ आई है, जो उस समाचार चैनल के एंकर के इस कथन के खिलाफ जोरदार प्रदर्शन कर रही थी कि मारे गए आतंकवादियों को भारत की धरती पर दफनाए जाने के बजाय कूड़े के ढेर में फूंक डालना चाहिए; स्टूडियो और सड़क एक दूसरे से मुकाबले में उतर आए थे. अगले दिन मैं दफ्तर के लिए निकला. भेस बदला हुआ था. कुर्ता-पायजामा पहने. किसान टोपी लगाए. नाकों से ऐसे गुजर रहा था जैसे कुलांचे मारता कोई चोर वहां से गुजर रहा हो. यह बात अच्छे से जानता था कि युवाओं का कोई समूह मुझे पहचान गया तो मैं मुश्किल में पड़ सकता हूं. और ऐसा इसलिए होना था क्योंकि इस नाजुक समय में उन्हें लगता कि कश्मीरी बनाम भारतीयता के युग्म में मैं गलत तरफ पहुंच गया था. मेरे फेसबुक पर गाली-गलौज वाली टिप्पणियों में भी यही पुट था.

बीते कुछ वर्षो में अपनी कारोबारी रणनीति के अंग के रूप में राष्ट्रीय मीडिया का एक हिस्सा कश्मीर में भारत के विचार को गलत अंदाज में पेश करता रहा है. वह बाकी देश के लिए कश्मीर के बारे में झूठी बातें पेश करता रहा है. 2008 में ऐसा हुआ तो 2010 और 2014 में भी ऐसा ही हुआ. इसलिए इस चर्चा के समय और इसके तेवर में कोई हैरत की बात नहीं थी. अभी जो भी कार्यक्रम कश्मीर पर पेश किए जाते हैं, उनमें करीबन सभी में लोगों को उकसाया जाता है, कवरेज चुन-चुन कर की जाती हैं, और कोशिश यह दिखती है कि राज्य सरकार के लिए समस्याएं और भी ज्यादा जटिल हो जाएं. प्रिंट मीडिया में हालांकि एक प्रकार का संतुलन हमेशा से रहा है. कुछ समाचार चैनलों की व्यावसायिक निष्ठुरता का मौजूदा आलम तो और भी त्रासदीपूर्ण हो गया है. वे झूठ का बखान करने में जुटे हैं, लोगों में फूट डाल रहे हैं, घृणा फैला रहे हैं. बड़बोले न्यूजरूम्स का सर्वाधिक घिनौना पहलू यह है कि ये युवाओं के मृत शरीरों पर अपना कारोबार बढ़ाने पर आमादा हैं, और बाजार की टीआरपी के लिए अपनी निर्लज्जता को ही राष्ट्रीय हित मान लिया गया है. कश्मीर या कश्मीर नहीं, भारत के लिए बड़ी चुनौती है, इस बार तो यह भी कि \'राष्ट्रीय हित\' को कैसे राष्ट्रीय मीडिया से बचाया रखा जासके. साथ ही, लोगों और पड़ोसियों के साथ कैसे तारतम्य बना रहे? मुझे कहने में कोई हिचक नहीं है कि बड़े-बड़े समाचार चैनल तार्किकता की जो सभ्यता रही है, उसे नष्ट कर छोड़ेंगे.

भारतीय परंपरा में सरकार अपने लोगों से समायोजन के जरिए जुड़ी रही है न कि भाषणबाजी से. महान अशोक ने स्तंभों का पूरा तंत्र खड़ा कर दिया था, जिन पर राज्यादेश लिखवा कर लोगों के संपर्क में रहता था. मुगलकाल में दीवान-ए-आम लोगों और सल्तनत के मध्य संपर्क का जरिया था. फरमान शासक द्वारा जारी किए जाते थे न कि दरबारियों, भाटों और गवैयों द्वारा. जैसा कि अब हो रहा है. इस्लामी परंपरा में भी लोगों से राब्ता रखने में सच्चाई, सहनशीलता और संजीदगी रही है.



उकसाने में लगे हैं टीवी चैनल
जब हम मौजूदा असंतोष के कारणों की पड़ताल करने में जुटे हैं, तो यह भी देख लेना चाहिए कि टीवी चैनल न केवल लोगों को उकसाने में जुटे हैं बल्कि उन्हें अलग-थलग करने में संलग्न हैं. और हम हैं कि अपना हित-अहित इन चैनलों के हाथों में सौंप कर बैठ गए हैं. कश्मीर के मसले को पाखंडी बुद्धिजीवियों, राजनीतिक दलबदलुओं, मौकापरस्तों, खुफिया एजेंसियों और सबसे बढ़कर राष्ट्रीय हित के स्वयंभू ठेकेदारों के हाथों में नहीं सौंपा जा सकता. कश्मीर में लोगों को राष्ट्रीय मीडिया की उपद्रवी सोच वाली संपादकीय नीति और सरकार की दमनकारी नीति को देखकर भ्रम होता है. टीवी चैनलों पर हर दिन होने वाली चर्चाओं में कश्मीरियत का अपमान किया जा रहा  है. राज्य में मासूमों की हत्याओं को गैर-जरूरी मुद्दों को आगे लाकर दबाया जा रहा है. राज्य सरकार की सकारात्मक पहल की अनदेखी करते हुए सच्चाई की आवाज को दबाया जा रहा है. नागरिक दुख-दर्द पर सैन्य बर्बरता को तरजीह दी जाती है. गाय को कश्मीरी लोगों से ज्यादा महत्त्व दिया जाता है. इन तमाम बातों से कश्मीरी अवाम में गुस्सा और कुंठा है, जो जाहिर है भारत विरोधी रुख ही लेगी.

इन झूठ दिखाने और घृणा फैलाने वाले समाचार संस्थानों को बेशक बंद नहीं किया जा सकता क्योंकि उन्हें संविधान के तहत अभिव्यक्ति के अधिकार के रूप में सुरक्षा कवच हासिल है. लेकिन देश की अखंडता और एकता कहीं ज्यादा अनिवार्य है, इसलिए हमें दिल्ली और श्रीनगर के बीच संपर्क के मौलिक, पारंपरिक और अतिरिक्त चैनल लाने होंगे ताकि बेवजह का शोरशराबा करने वाले चैनलों पर रोक लग सके. श्रीनगर में किशोरवय के युवाओं से पूछ देखिए तो वे बताएंगे कि बीते तमाम वर्षो के दौरान किस प्रकार भारत ने कश्मीरियों से चालाकी भरे चुनावों, निर्वाचित सरकारों की बर्खास्तगी और मुठभेड़ों  तथा भ्रष्टाचार के जरिए ही संपर्क साधा है. बताएंगे कि किस प्रकार भारत किसी सैन्य बंकर या पुलिस वाहन या प्राइम टाइम में शेखी बखारने वाले लोगों को दिखाने वाले चैनलों का पर्याय बनकर रह गया है. क्या भारत का विचार यही है? क्या इसी से कश्मीरियों का दिल जीता जा सकेगा?

कश्मीरी बेहद संवेदनशील होते हैं. लेकिन फितरतन संशयवादी भी होते हैं. कश्मीरियों के साथ कोई भी वार्ता तभी नतीजाकुन होगी जब वह खुले दिल से हो.  बराबरी का दर्जा कायम रखते हुए की जाए. उसे कोई एहसान माना जाए. प्रधानमंत्री, जो अकेले दम भारत की वैिक छवि में सकारात्मकता का पुट ले आए हैं, को कश्मीर में भारत की छवि में सकारात्मक बदलाव लाने के लिए पहलकदमी करनी चाहिए.

(शाह फैजल आईएएस अधिकारी हैं, लेख में व्यक्त विचार निजी हैं)

 

 

शाह फैजल
शिक्षा निदेशक, जम्मू-कश्मीर


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