यह बंदिश नहीं, स्वाभाविक कार्रवाई

Last Updated 23 Jul 2016 10:49:13 PM IST

जम्मू कश्मीर की स्थिति को लेकर कुछ लोगों का दर्द समझ में आने वाला है. एक दर्द वहां के स्थानीय पत्रकारों का है, जिनके समाचार प्रकाशन या केबल संचालन और कवरेज कुछ दिनों के लिए प्रतिबंधित किए गए हैं.


यह बंदिश नहीं, स्वाभाविक कार्रवाई

दूसरा दर्द उन लोगों का है, जो अभी तक अपने को कश्मीर का विशेषज्ञ साबित करते रहे हैं, और पहले के कुछ प्रयासों में उनकी भूमिका रही. उनको लगता है कि आज उनको कोई पूछता नहीं जबकि इसकी विशेषज्ञता का एकाधिकार तो हमें ही था. तीसरा दर्द उन कुछ लोगों का है, जो मानते हैं कि राष्ट्रीय मीडिया कश्मीर की समस्या को संवेदनहीनता के स्तर पर कवर कर रहा है, और कश्मीर का कोई प्रतिनिधि अपनी बात कहना चाहता है तो टीवी चैनलों की बहस में उसका मुंह बंद कर दिया जाता है. इसे कश्मीर के कुछ बुद्धिजीवी न्यूजरूम राष्ट्रवाद का नाम देकर उपहास उड़ा रहे हैं. इनका विश्लेषण सुनिए या पढ़िए तो लगेगा जैसे कश्मीर की वर्तमान समस्या ही इन चैनलों की बहसों से पैदा हुई है. तो आइए, इन तीनों किस्म के दर्द और इसके आईने में कश्मीर के सच को समझने की कोशिश करें.

समाचार पत्र या समाचार के किसी माध्यम पर किसी स्थिति में बंदिश को स्वीकार नहीं किया जा सकता. यह लोकतंत्र की मूल भावना के विरुद्ध है. समाचार माध्यमों की कवरेज से सरकार को भी सच समझने में सुविधा होती है. किंतु यदि समाचार माध्यम कहीं आग भड़काने का कारण बन जाएं, वे आतंकवादियों और अलगाववादियों तथा उनके समर्थकों की भीड़ को जनता की आवाज बता कर उसका महिमामंडन करने लगे और उनसे इनकी हिंसा में और वृद्धि हो तो फिर क्या किया जाए? पत्रकारिता जिम्मेवारी का पेशा है. हम जो भी खबर छापते या दिखाते हैं, उसके पीछे एक नजरिया होता है. संपादकीय और लेख तो केवल नजरिया ही हैं.

पत्रकारिता समाज और देश के लिए है. इसके परे अगर कोई अपने माध्यम का किसी और तरीके से उपयोग करता है, तो वह पत्रकारिता नहीं है. 10 लाख का इनाम सिर पर ढोने वाले आतंकवादी और उसके दो साथियों की पुलिस मुठभेड़ में मौत के बाद कश्मीर की स्थानीय पत्रकारिता, ध्यान रखिए जम्मू की नहीं, आखिर किसकी आवाज बन रही थी? क्या किसी में इतनी हिम्मत और गैरत थी कि वो छाती ठोंककर कह सके कि एक आतंकवादी को इस तरह महिमामंडित करना गलत है. जिस भारत देश के वे नागरिक हैं, उसके प्रति उनका कोई दायित्व है, इसकी कोई झलक वो देने को तैयार थे? नहीं थे. तो यह पत्रकारिता हुई ही नहीं. यह तो भारत विरोधी एजेंडा का प्रचार हुआ. इसे ऐसे समय में जब पाकिस्तान की पूरी साजिश कश्मीर को 1990 के दशक में ले जाने की है, और उसके एजेंट कश्मीर घाटी में उसकी पूरी साजिश को सफल करने में लगे हैं-इस प्रकार के एजेंडा प्रचार माध्यमों पर बंदिश समय की मांग थी. यह पत्रकारिता पर बंदिश नहीं, हिंसा को थामने, उत्तेजित किए गए लोगों को उत्तेजना भड़काने के एक माध्यम से दूर करना था. इस नाते यह न्यायोचित है.

स्थानीय पत्रकारों की छटपटाहट
पता नहीं एक तथ्य की ओर देश का ध्यान गया है या नहीं. इस बार पूरे संकट के दौरान पाकिस्तानी इलेक्ट्रॉनिक मीडिया, वहां की सरकार को ऐसा कोई फुटेज नहीं मिला, ऐसी तस्वीरें नहीं मिलीं, जिनसे वे भारत विरोध प्रचार में इस्तेमाल कर सकें. उनको फुटेज और तस्वीरें कौन प्रदान करते थे? वही स्वयं को स्थानीय पत्रकार कहने वाले, जो कि छटपटा रहे हैं. आप एक केबल चलाते हैं, और वहां वीडियो बना रहे हैं तथा उसे एडिट करके आपने पाकिस्तानी मीडिया को बेच दिया, जिसका उपयोग वो भारत के खिलाफ दुष्प्रचार में करते हैं. यही हाल कुछ फोटो पत्रकारों का था. संवाददाताओं की रिपोर्टे भी सीमा पार उपयोग की जाती थीं. इस बार यह नहीं हो पाया तो झूठ फैलाने के लिए इजरायल-फिलीस्तीन के बीच होने वाले संघर्ष का फुटेज प्रसारित किया गया, जिसमें एक सैनिक छोटे बच्चे के साथ अनाचार करता दिख रहा है. स्थानीय मीडिया के कारण अपने को सच का जानकार मानने वाले समूचे कश्मीरी को पीड़ित बताते रहे हैं. लेकिन जिन गिने-चुने कश्मीरी पंडितों को वहां वापिस लाकर ट्रांजिट कैम्प में रखा गया,  उन पर हमले हुए. उनको दोबारा वहां से भागना पड़ा. उसकी खबर इनको नजर नहीं आई.

यही बात उन विशेषज्ञों की है, जो कभी किसी सरकार की ओर से किसी कमेटी की सदस्य रहे, या कभी सलाहकर मंडली में रहे. वे भी कहते हैं कि कश्मीर के लोग पीड़ित हैं, भारत के खिलाफ उनके मन में गुस्सा है और इसका सैनिक समाधान नहीं है. उनसे बातचीत की जाए और दिल से की जाए. उनके प्रति संवेदनशीलता बरती जाए. विचित्र बात है. क्या ये मानते हैं कि भारत कश्मीरियों के प्रति संवेदनशील नहीं है? बाढ़ के समय सेना ने वहां जो काम किया तथा प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी स्वयं वहां दो-दो बार गए उससे बढ़कर संवेदनशीलता क्या हो सकती है? क्या आतंकवादी को मारना असंवेदनशीलता है? कभी कश्मीर में चुनी गई सरकारें बरखास्त हुई होंगी, कभी चुनाव में धांधली हुई होंगी. लेकिन आज यह कहना कि कश्मीर के युवा धांधली भरे चुनाव, अनावश्यक सरकारों की बरखास्तगी से नाराज हैं, छद्म रूप में पाकिस्तान और आतंकवादियों के एजेंडे को आगे बढ़ाना है.

1996 से चुनाव की जो प्रक्रिया आरंभ हुई उसके बाद से चुनाव आयोग ने वहां शत-प्रतिशत स्वच्छ और निष्पक्ष चुनाव कराए हैं. कोई सरकार बर्खास्त नहीं हुई है. तो फिर नवजवानों ने कब यह सब देख लिया? यह जान-बूझकर अलगाववादियों और आतंकवादियों के समर्थकों के हिंसक विरोध को इन झूठे उदाहरणों से न्यायसंगत साबित करना है, जिसका हर हाल में विरोध किया जाना चाहिए. जो बातचीत करने का सुझाव दे रहे हैं, उनसे पूछा जाए कि क्या इसके पहले अलगाववादियों से बातचीत नहीं हुई? क्या इंसानियत और कश्मीरियत की बात नहीं की गई? क्या आतंकवादियों के हथियार छोड़ने पर उनको मुख्यधारा में शामिल करने तथा उनके पुनर्वास के लिए सहायता देने का कार्यक्रम नहीं चला? उनसे वे मान गए क्या? क्या कश्मीर के लिए समय-समय आर्थिक पैकेज जारी नहीं हुए. तो यह घिसा-पीटा सुझाव देने वाले विशेषज्ञ दरअसल, समाधान के विशेषज्ञ नहीं हैं. उनका पलड़ा हमेशा भारत विरोधियों के पक्ष में झुका रहता है. उनको पीड़ित, जख्मी बताकर ये गलत तस्वीरें पेश करते रहे हैं. ये उपमान अब मैले हो गए हैं... इसका कोई खरीदार देश में नहीं है, और दुनिया में भी पाकिस्तान के अलावा नहीं है. 



कुछ लोगों को कष्ट

राष्ट्रीय मीडिया से कुछ लोगों का बड़ा कष्ट है. अगर रुपये लेकर पत्थर चलाने का साक्षात प्रमाण मिलता है, तो क्या उसे सामने लाना पत्रकारिता नहीं है? यह वह इस देश के हित में नहीं है, जिसने कुछ लाख करोड़ कश्मीर पर व्यय कर दिया. आज जब राष्ट्रीय मीडिया का एक भाग पाकिस्तान के पैसे पर पलने वाले और पाकिस्तान की साजिशों में शामिल लोगों के चेहरे से नकाब उतार कर उनका असली चेहरा सामने रखने लगा है, तो उन सबको परेशानी हो रही है जो इनको पीड़ित, नाराज बताकर इनको हीरो बनाते थे. अब यह संभव नहीं है. उन पत्रकारों, बुद्धिजीवियों तथा तथाकथित विशेषज्ञों को समझ लेना होगा कि समय का चक्र अब घूम गया है. लोग जान गए हैं कि आजादी या पाकिस्तान में जाने की बात करने वालों के साथ किसी तरह के मुरव्वत से उनका महत्व बढ़ता है, और जनता उनके बहकावे में आती है. आतंकवादियों के साथ यदि ताकत से पेश आने का वातावरण पूरे देश में है, तो आतंकवादियों के समर्थकों के साथ भी उसी ताकत का इस्तेमाल करने का भी समर्थन है.

सच यह है कि आतंकवादियों के जनाजे में और उसके बाद समर्थन में जो लोग सामने आए उनके साथ सुरक्षा बलों ने मुरव्वत की. अगर सुरक्षा बल अपने पर आ जाते तो कितनी लाशें बिछ गई होतीं. ये कहां होते पता नहीं चलता. फिर ये यह क्यों भूल जाते हैं दक्षिण कश्मीर ही केवल कश्मीर नहीं है. अभी एक राष्ट्रीय चैनल ने पाकिस्तान अधिकृत कश्मीर से सटे क्षेत्रों में जाकर लाइव रिपोर्टिग की, जिसमें लोग कह रहे हैं, भारत उनका देश है और वो आजाद हैं, तो हम कहां गुलाम हुए? वे जय हिंद और भारत माता की जय के नारे लगा रहे हैं. तो कश्मीर का यह भी एक सच है. यह समय आतंकवादियों, अलगाववादियों और उनके समर्थकों से आर या पार करने का है..इसमें जो भी आड़े आएगा उसके साथ कानून की सीमाओं दंडात्मक व्यवहार होगा. वह मीडिया भी हो सकता है, और तथाकथित सामाजिक संगठन, संस्थान भी.

 

 

अवधेश कुमार
वरिष्ठ पत्रकार


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