मुंह क्यों बांधे रखे कश्मीरी मीडिया

Last Updated 23 Jul 2016 10:35:39 PM IST

एक बड़े मुद्दे-एक आतंकी कमांडर के मारे जाने पर भड़की हिंसा को हल्का करने-को लेकर कश्मीर के स्थानीय मीडिया पर सख्ती किया जाना इतना महत्त्वपूर्ण क्यों हो गया?


मुंह क्यों बांधे रखे कश्मीरी मीडिया

इससे एक बार फिर कश्मीर और नई दिल्ली के बोझिल संबंधों की असलियत बेनकाब हो गई है. सच तो यह है कि यह सवाल महज लफ्फाजी है. मीडिया के साथ डांट-डपट कोई नई बात नहीं है. पिछले दिनों हिंसा के एकदम से भड़कने से पूर्व ही तीन दिन तक समाचार पत्रों के प्रकाशन पर प्रतिबंध लगाया जाना बेतुका था. इस दफा के प्रतिबंध में कुछ नया भी न था. कश्मीरी मीडिया को पहले भी इसी प्रकार से मुंह बांधे रखने को मजबूर किया जाता रहा है.

आधी रात को हमारे ब्यूरो चीफ ने फोन करके बताया कि पुलिस ने हमारे समाचार पत्र की प्रतियां जब्त करके हमारे स्टाफ को हिरासत में ले लिया है. मुझे हैरत हुई कि उन्होंने तनाव से पहले से ही घिरे पुलिस वालों को समाचार पत्र की प्रतियां छीनने के लिए भेजने की जरूरत क्यों समझी? समाचार पत्रों के मालिकों को ही फोन कर दिया होता तो इसकी जरूरत ही नहीं पड़ती. अगले दिन इस जोर-आजमाइश के पीछे की कहानी पता चली. हालांकि सरकार की तरफ से इस छापेमारी के बारे में कुछ नहीं कहा गया था. सरकार के प्रवक्ता नईम अख्तर, ने कहा कि सरकार को आने वाले दिनों में संकट घिर आने का अंदेशा था. इसलिए समाचार पत्रों का प्रकाशन स्थगित किया जाना आवश्यक लगा.

रोचक बात यह कि यह सब कहते हुए अख्तर ने यह भी आग्रह किया कि उनका नाम इस मामले में नहीं लिया जाना चाहिए. तो इस प्रकार घाटी में \'मार्शल-लॉ\' सरीखी स्थिति में मीडिया पर कड़ी कार्रवाई की जाती है. आखिर, यह जोर-जबरदस्ती क्यों?  इस सवाल पर जाने से पूर्व जानना जरूरी है कि वह कौन है, जिसने प्रतिबंध लगाने का फैसला किया था? हो सकता है कि कोई इस फैसले के लिए नई दिल्ली का नाम लेने का दुस्साहस भी कर दे क्योंकि मुजफ्फर हुसैन बेग, सांसद एवं वरिष्ठ पीडीपी नेता, ने दावे के साथ कहा है कि मुख्यमंत्री महबूबा मुफ्ती को तो उस अभियान के बारे में पता तक नहीं था जिसके तहत बुरहान वानी मारा गया और उसके बाद हिंसा भड़क गई.

विवश किया जाता है स्थानीय मीडिया को
लेकिन जब-जब कश्मीर में स्थिति खराब होती है, तो स्थानीय मीडिया को ही चुप्पी साधने पर क्यों मजबूर कर दिया जाता है? इसे भी समझा जा सकता है. स्थानीय समाचार पत्र-राज्य में हिंसा का जीवंत दस्तावेज हैं-हिंसा के बाद लगाए जाने वाले कर्फ्यू के दौरान मोबाइल फोन और इंटरनेट सेवाएं बंद किए जाने के बाद खबरों का एकमात्र स्रोत रह जाते हैं. इसके अलावा, स्थानीय मीडिया इस प्रकार की स्थितियों को व्यापक रूप से कवर करने में सक्षम रहता है. उसके पास स्थानीय संसाधन इतने तो होते ही हैं कि इस प्रकार की घटनाओं को अच्छे से कवर कर सके. लेकिन ऐसे मौकों पर सरकार चाहती है कि मीडिया ब्लैकआउट कर दिया जाए. चाहती है कि या तो स्थानीय पत्रकार अपने दायित्व का निर्वाह करने के बजाय स्थिति को संभालने में सहयोग करें या सरकार की कार्रवाई को सराहें.
 
यही कारण है कि गैर-कश्मीरी पत्रकारों, जिन्हें ऐसे हालात में नई दिल्ली से हवाई जहाजों में लाया जाता है, की तमाम लोगों और स्थानों तक बिना रोक पहुंच होती है, जबकि स्थानीय संवाददाताओं को तमाम अड़चनें झेलनी पड़ती हैं. नई दिल्ली के स्टूडियो से परोसी गई एक \'विशेष रिपोर्टिग\'-जो कहती है कि पाकिस्तान कश्मीरी युवाओं को पुलिसकर्मियों से राइफल छीनने पर पांच सौ रुपये देता है-में स्थानीय संवाददाताओं पर निशाना साधते हुए कहा गया है कि वे जनता को बरगलाते हैं. भारत के ज्यादातर मीडिया माध्यमों खासकर टेलीविजन में राष्ट्रीय हित के आलोक में स्थानीय दुखदर्द को जानने-समझने की कोशिश नहीं दिखती. स्थानीय मीडिया ही है जो मत विशेष के प्रचार पर कारगर तरीके से रोक लगाता है.



स्थानीय और भारतीय स्तर की रिपोर्टिग में जो विरोधाभास है, उससे भी सरकार को परेशानी महसूस होती है. उदाहरण के लिए बीते दिनों एक चैनल ने आतंकवादियों को छिपाने को लेकर सेना के लिए मुखबिरी करने पर कुछ संदिग्धों के घरों पर हमले किए जाने की एक खबर चलाई. इनमें से एक घर ऐसा भी था, जिस पर घाटी में हालिया हिंसा से काफी पहले हमला किया गया था. उस समय स्थानीय मीडिया ने इस खबर को कवर भी किया था. मौजूदा हालात में यह खबर थी ही नहीं. इसकी तुलना में सोलह वर्षीय उस लड़के की खबर देखिए, जिसके कूल्हों में पैदाइशी रुग्णता है, और जिसका उपचार सिटी सेंटर से मात्र दो किमी. दूर स्थित बोन एंड ज्वाइंट हॉस्पिटल में चल रहा है. उसे सुरक्षा बलों ने एक नाले में फेंक दिया. उस समय वह अपने घर के पास खेल रहा था. किसी भी समाचार चैनल ने इस खबर को कवर नहीं किया.

स्थानीय मीडिया नहीं चलता भेड़चाल
स्थानीय मीडिया झूठ और सच्चाई में संतुलन लाने का प्रयास नहीं करता. न ही पत्थरबाजी से घायल हुए पंद्रह जवानों की घटना के चलते हजारों लोगों को पेलेट हथियार से निशाना बनाने को सही ठहराता है. भारतीय मीडिया चैनलों के विपरीत वह सवाल करता है कि क्या भारतीय सैनिक को कश्मीर में कोई विशेष अधिकार प्राप्त है. वे स्थानीय पुलिस के प्रति ज्यादा जवाबदेह हैं, न कि नई दिल्ली से हवाई जहाज से पहुंचे क्रिकेट हेलमेट लगाए और बुलेट-प्रूफ वाहनों में जवानों से घिरे कर्फ्यू-ग्रस्त शहर में जहां कहीं चाहें वहां घूमने निकल पड़ने वाले पत्रकारों के प्रति. और ये पत्रकार ऐसा महसूस करते हैं कि जैसे सीरिया में युद्ध को कवर कर रहे हों. पिछली बार ऐसा ही नजारा उन्होंने करगिल युद्ध के दौरान पेश किया था.

बहरहाल, अख्तर जो वरिष्ठ नौकरशाह के रूप में कार्य करते हुए कभी स्थानीय समाचार पत्र के पहले पन्ने पर अपनी सलाह और विचार छद्म नाम से बखारते थे, से आगे बढ़ते हैं, और पाते हैं कि समाचार पत्रों पर जोर-जबर का यह आदेश भारतीय राजनीति-उन्मुख प्रकृति की मनोभाजिता का ही प्रतिबिंब भी है. बहरहाल, प्रतिबंध आदेश यकीनन अधिनायकवादी कृत्य है, और सही अर्थों में कश्मीर में भारतोन्मुख राजनेताओं की निशक्तता का संकेत है.                  

 

 

हिलाल मीर
संपादक, कश्मीर रीडर


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