अदूरदर्शिता का कुफल
हिज्बुल मुजाहिदीन के कमांडर, 22 वर्षीय बुरहान वानी की सुरक्षा बलों के हाथों एन्काउंटर में मौत पर कश्मीर की घाटी में और उसमें भी खासतौर पर चार दक्षिणी जिलों में उठा लोगों के गुस्से का ज्वार, दो हफ्ते बाद भी थमने का नाम नहीं ले रहा है.
बुरहान वानी की शव यात्रा (फाइल फोटो) |
इस एक हफ्ते का सबक निर्विवाद है-सुरक्षा बलों की बंदूक के सहारे हालात पर काबू पाना मुश्किल है. इसी बीच मामले को और उलझाते हुए और भारत की मुश्किल से फायदा उठाने के लिए पाकिस्तान मैदान में कूद पड़ा है. इसके जवाब में भारत ने भी कश्मीर में गड़बड़ी की जिम्मेदारी पाकिस्तान के ही सिर डालने के लिए अपनी बयानबाजी तेज कर दी है. जाहिर है कि यह इस बात को समझते-बूझते हुए किया जा रहा है कि समस्या का इस तरह भारत-बनाम पाकिस्तान का मुद्दा बनाया जाना, दोनों देशों के शासकों के लिए भले मुफीद हो, यह समस्या का सामना करने में किसी भी तरह से मददगार नहीं है. उल्टे कश्मीर के मौजूदा उबाल का इस तरह का प्रक्षेपण, वास्तविक समस्या को पहचानने से ही बचने के लिए ओट बनकर, समस्या को बढ़ाने का ही काम कर सकता है. वानी के जनाजे में, प्रशासन तथा सुरक्षा बलों की सारी पाबंदियों के बावजूद, डेढ़ लाख या उससे ज्यादा लोग इकट्ठे हुए थे. यह अब तक का सबसे बड़ा जमावड़ा है. यह समझना मुश्किल नहीं कि यह चेहरा, आतंकवादी अतिवाद का नहीं बल्कि जनाक्रोश का ज्यादा है.
दो संभावनाओं के खुलते कपाट
कश्मीर में असंतोष की अभिव्यक्ति के इस बदलते रूप की पुष्टि, खुद बुरहान वानी की छवि से भी होती है. मुख्यत: सोशल मीडिया पर उसकी उपस्थिति ने, उसे थोड़े से अर्से में ही हिज्बुल का ऐसा बहुत ही महत्त्वपूर्ण कमांडर बना दिया था, जिसका चेहरा घर-घर पहुंच चुका था. यह चेहरा, बंदूक के करतबों के बजाए, सोशल मीडिया जैसे माध्यमों से युवाओं को \'आजादी\' के नारे की ओर आकषिर्त कर खींचने और इस क्रम में खुद अतिवादी संगठन का चेहरा बदलकर, साधारण पढ़े-लिखे युवाओं का चेहरा बनाने में मददगार था. इसके साथ पिछले दसेक साल में कश्मीर में अतिवाद के चेहरे में आए दो महत्त्वपूर्ण बदलाव और जुड़ जाते हैं. इनमें पहला है, अतिवादी हमले की वारदातों और सक्रिय अतिवादियों की संख्या, दोनों में बहुत भारी कमी आना. जहां 2006 में 1438 अतिवादी वारदातें दर्ज हुई थीं, 2016 की जुलाई के पहले पखवाड़े तक ऐसी कुल 98 घटनाएं हुई थीं. इसी प्रकार, 2006 में जम्मू-कश्मीर में सक्रिय अतिवादियों की संख्या 1,700 थी, जो 2016 तक घटकर 146 ही रह गयी थी. दूसरा है, अतिवादियों में सीमा पार से आकर कार्रवाइयां करने वालों की संख्या में भी उल्लेखनीय कमी और कश्मीरी मिलिटेंटों का हिस्सा बढ़ना.
कश्मीर में मिलिटेंसी का यही बदलता चेहरा है, जो मिलिटेंसी और आम कश्मीरियों के आक्रोश को, जिसके पीछे वास्तविक जनतंत्र से लेकर आर्थिक तरक्की तथा रोजगार तक से, दमन के सहारे वंचित रखे जाने का गहरा एहसास है, बहुत नजदीक ले आया लगता है. यह वह जगह है, जहां से दो विरोधी संभावनाएं खुलती हैं. पहली, इसका अवसर कि पहले ही घटती मिलिटेंसी को, जनता की नाराजगी की शस्त्र-मुक्त और पुराने अलगाववादी नेतृत्व के प्रभाव से भी मुक्त, अभिव्यक्तियों में विलीन होने के जनतांत्रिक रास्ते की ओर बढ़ाया जाए. दूसरी यह कि मिलिटेंसी ही जनाक्रोश को ज्यादा से ज्यादा अपने रंग में रंगने में कामयाब हो जाए. मिलिटेंट ग्रुपों के लिए पढ़े-लिखे कश्मीरी युवाओं की तेजी से बढ़ती भर्ती, बाद वाले खतरे की ओर ही इशारा करती है.
दुर्भाग्य से केंद्र में भाजपा सरकार की और जम्मू-कश्मीर में पीडीपी-भाजपा गठजोड़ की सरकार की मौजूदगी, हालात को बाद वाले रास्ते की ओर ही धकेल रही है. पिछली नेशनल कान्फ्रेंस-कांग्रेस गठबंधन सरकार के दौर में भाजपा-संघ परिवार, खासतौर पर अमरनाथ भूमि आवंटन प्रकरण के बहाने से, जम्मू में पहली बार उग्र-हिंदू आंदोलन भड़काने के जरिए, जम्मू में पूरा हिंदू ध्रुवीकरण करने में और इस तरह, इस राज्य में सांप्रदायिक ध्रुवीकरण को अभूतपूर्व ऊंचाई पर पहुंचाने में कामयाब रहा था. इसी का नतीजा 2014 के आखिर में हुए चुनाव के बाद, एक ऐसी गठजोड़ सरकार के रूप में सामने आया है, जो हिंदू प्रधान जम्मू और मुस्लिम बहुल कश्मीर के, पूर्ण अलगाव को शासन के स्तर तक संस्थागत रूप देती है. स्वाभाविक रूप से विरुद्धों की अवसरवादी एकता की इस सरकार के बनने के बाद से, गठजोड़ के दोनों घटकों की अपने-अपने आधार की रक्षा की कोशिशों ने जम्मू-कमीर में काफी रस्साकशी करायी है. अपने पिता मुफ्ती मोहम्मद सईद के निधन के बाद महबूबा मुफ्ती को, केंद्र में सत्ता में होने के बल पर ऐंठी भाजपा के सामने रस्साकशी के इस खेल में जिस तरह झुकना पड़ा, उसने कश्मीरियों के बीच महबूबा की साख को बहुत कमजोर ही किया है.
विस्फोटक हालात के सबब
एक ओर केंद्र के राज्य की सहायता के वादे पूरे न करने और दूसरी ओर सैनिक कॉलोनी के लिए जमीन दिए जाने, पंडित कॉलोनी बनाने के विवादों तथा श्रीनगर आईआईटी जैसे प्रकरणों ने, घाटी में इसी एहसास को और तीखा बनाया है कि महबूबा के मुख्यमंत्री की कुर्सी पर होते हुए भी, कश्मीरी मौजूदा शासन से न्याय की उम्मीद नहीं कर सकते हैं. ऐसे में एक ओर आए दिन की सैन्य कार्रवाइयों ने और अतिवादी कार्रवाइयों तथा मिलिटेंटों की संख्या में भारी कमी के बावजूद तथा मणिपुर के संदर्भ में सुप्रीम कोर्ट द्वारा अफस्पा पर शासन को कड़ी फटकार के बावजूद, कश्मीर में कोई ढील देने से शासन के इनकार ने और दूसरी ओर, कश्मीर के कथित अलगाववादियों से लेकर पाकिस्तान तक से, संवाद के सारे रास्ते बंद होने ने ही मौजूदा हालात पैदा किए हैं; जहां एन्काउंटर में एक जाने-माने मिलिटेंट की मौत, आम लोगों के गुस्से के असाधारण विस्फोट का कारण बन गयी है.
साफ है कि राज्य से बढ़कर केंद्र के मौजूदा शासन की करनियां और अकरनियां, इस संवेनदशील राज्य को एक बार फिर मिलिटेंटों के बोल-बाल वाले आठवें के आखिरी और नौंवे दशक के पूर्वार्ध के दौर की ओर धकेल रही हैं. 1990 के बाद पहली बार अखबारों और इलेक्ट्रॉनिक मीडिया पर औपचारिक रूप से प्रतिबंध लगाया जाना और इसके चलते घाटी को पूरे पांच दिन पेशेवर मीडिया की जगह, अफवाहों के हवाले किया जाना, इसी की ओर इशारा करता है. यह इसलिए अक्षम्य है कि हालात को इससे ठीक उल्टी दिशा में ले जाने के रास्ते भी सामने नजर आ रहे हैं. हां! उसके लिए जरूरी राजनीतिक दूरदृष्टि कम से कम देश के मौजूदा शासकों के पास नहीं है, जिन्हें कश्मीर दिखाई देता है, कश्मीरी नहीं.
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