कश्मीर-नकार के साथ जीते हुए
युवा कश्मीरी आतंकवादी बुरहान वानी के मुठभेड़ में मारे जाने के पश्चात हाल में कश्मीर में भड़की हिंसा के बारे में पिछले कुछ समय पहले से ही महसूस किया जा रहा था.
कश्मीर में हिंसा (फाइल फोटो) |
हिंसा दीवार पर लिखी इबारत की भांति स्पष्ट थी, और वे इसे साफ देख पा रहे थे, जो कश्मीर को लेकर तनिक भी संजीदा हैं. उन्हें लगने लगा था कि कश्मीर में उग्रवाद फिर से कुछ-कुछ उसी अंदाज में दस्तक दे सकता है, जैसा कि अरसा पहले था. अंदाजा था कि धार्मिंक कट्टरपंथी इस बार उग्रवाद को कहीं ज्यादा भीषण रूप दे देंगे. दिल्ली में भाजपा-नीत सरकार श्रीनगर की सत्ता में भागीदारी को लेकर इस कदर बेताब थी कि न तो हालात को भांप सकी और न किसी की सुनना ही चाहा.
कश्मीरी जानते थे कि राज्य में उनके मतों से भाजपा सत्ता में आती है, तो भी उनके हालात आसान नहीं होने जा रहे. इसलिए उन्होंने बड़ी संख्या में इसे सत्ता से बाहर रखने की गरज से इसके खिलाफ वोट किया. लेकिन वे ठगे-से रह गए जब पता चला कि वार्ताकारों ने पिपुल्स डेमोक्रेटिक पार्टी (पीडीपी) के साथ \'गठबंधन के एजेंडा\' को लेकर परस्पर समझ बना ली है. इस बाबत एक अटूट राजनीतिक दस्तावेज दोनों ने परस्पर सहमति से तैयार किया. उसके बाद से पीडीपी चुप्पी साधे हुए है, और कथित दिशा-निर्देशक राजनीतिक दस्तावेज की धज्जियां उड़ रही हैं. लगने लगा है कि हम उस मुकाम से कुछेक कदम ही पीछे हैं, जब घाटी बार फिर से हमारे हाथों से फिसल कर उग्रवाद की गिरफ्त में आ सकती है. रावलपिंडी इसके लिए पूरी तरह से सहायता देने और उकसावे में जुटा हुआ है. नाराज कश्मीरी उम्मीद छोड़ रहे हैं, व्यग्र हो उठे हैं. नहीं समझ पा रहे कि नई दिल्ली आग से क्यों खेल रही है.
नादानियों का दशक
एक दशक पूर्व हम कश्मीर में उग्रवाद के खात्मे के करीब जा पहुंचे थे. मनमोहन सिंह सरकार ने कश्मीर के मसले पर पाकिस्तान के साथ अति सक्रिय राजनयिक प्रयास किए थे. उसके वार्ताकार \'कश्मीर फामरूला\' तैयार करने के लिए कश्मीर में असंतुष्ट नेतृत्व तक से चुपचाप बातचीत चलाए हुए थे. ऐसे सुबूत हैं कि सैयद अली शाह गिलानी को छोड़कर घाटी के असंतुष्ट नेताओं में से ज्यादातर नेता ऐसे फामरूला के हक में थे. न केवल पाकिस्तान इस प्रक्रिया को समर्थन दे रहा था, बल्कि घाटी के असंतुष्ट नेताओं को प्रस्तावित समाधान को लेकर समझाने का प्रयास भी किया! डॉ. सिंह ने कश्मीरी नेताओं के साथ सार्वजनिक और निजी तौर पर विचार-विमर्श किया. 2007 के मध्य में जहां मनमोहन इस मसले पर किसी तार्किक नतीजे तक पहुंचने की गरज से कोई पहल करने के मद्देनजर अपना राजनीतिक सामथ्र्य खो बैठे, वहीं पाकिस्तान के तत्कालीन राष्ट्रपति परवेज मुशर्रफ भी वकीलों के विरोध प्रदर्शन के कारण उन्हें मिल रहे समर्थन से हाथ धो बैठे.
नतीजतन, कश्मीर में और कश्मीर को लेकर संघर्ष का समाधान हो सकने की संभावना कहीं दूर काफूर हो गई. उसके बाद तो कश्मीर किसी समाधान से कोसों दूर जा ठिठका है. वर्ष 2010 में जम्मू-कश्मीर पुलिस और केंद्रीय बलों के हाथों 120 से ज्यादा कश्मीरियों के मारे जाने के बाद भारत-विरोधी भावनाएं तेजी से भड़कीं. कांग्रेस-नीत यूपीए सरकार के समय 2013 में अफजल गुरु को जिस जल्दबाजी से फांसी पर लटकाया गया उससे देश में ही नई तरह के उग्रवाद का बीजारोपण हो गया. स्मरण किया जा सकता है कि यह वह दशक था, जब पाकिस्तान से उग्रवादियों की घुसपैठ में पहले की तुलना में सर्वाधिक कमी रही. दरअसल, 2004 में जम्मू-कश्मीर में सीमा/नियंतण्ररेखा पर बाड़बंदी किए जाने से ऐसा हो सका.
मसले को बेतरतीबी से सुलझाने की कोशिश में राज्य में उग्रवाद गंभीरता से उभर आया है. चिंता की बात यह कि राज्य में उभरे उग्रवादी शिक्षित, हथियारबंद, धार्मिंकता के रुझान तथा वैचारिक रूप से खासे पुख्ता किए जा चुके कट्टर सोच वाले हैं. जरूरी नहीं कि वे चरवाहे या गड़रिया ही हों. दूसरा बदलाव यह देखने को मिला है कि 1990 के दशक में जहां हिंसक उग्रवाद को खासा पस्त कर दिया गया था, वहीं आज चिंताजनक बात है कि पढ़े-लिखे और नागरिक समाज में हथियारबंद उग्रवाद के प्रति हमदर्दी बढ़ी है. इसका अंदाजा बुरहान वानी के पिता के बयान से लगाया जा सकता है, जिसमें उन्होंने अपने पुत्र के मिशन को तार्किक ठहराया है. भारतीयता का विरोध एक बार फिर से एक फैशन के रूप में उभर आया है.
हिंसा को ठहराया जाने लगा तार्किक
वह समाज जो हिंसा और बंदूक संस्कृति से आजिज आ चुका था, अब एकाएक उन्हें तार्किक ठहराने लगा है. तो हुआ यह है कि कश्मीर मसले को सुलझाने में एक दशक की गफलत ने बुनियादी रूप से उदार राजनीतिक प्रयास किए जाने की संभावनाओं को खासा नुकसान पहुंचा दिया है. वरना तो कश्मीर में उग्रवाद लौटने के मौजूदा हालात का राजनीतिक और वैचारिक रूप से बखूबी सामना किया जा सकता था. यहां तक कि हुर्रियत के उदारवादी हिस्से को भी युवाओं को समझाने में दिक्कतें दरपेश हैं. वह आजादी के नारे जोरों पर लगने लगे हैं. युवा मरने-मारने को तैयार हो गए हैं. बढ़-चढ़कर पत्थरबाजी करने लगे हैं.
कश्मीर को लेकर नासमझी का एक पूरा इतिहास है, जिससे नई दिल्ली ने शायद ही कोई सबक लिया हो. हालांकि उग्रवाद से लड़ते हुए हमें तीन दशक का समय तो हो ही गया है. कांग्रेस की सत्ता की भूख थी, जिसने 1950 के दशक के बाद से कश्मीरियों को भारत की राजनीतिक मुख्यधारा से अलग-थलग बनाए रखा. अब भाजपा उसका अनुकरण करने पर उतर आई है. मुफ्तियों को साथ लेकर उसके रणनीतिकारों को लगता है कि उन्होंने कश्मीर में मैदान जीत ही लिया है. हो सकता कि ऐसा हो भी. लेकिन तो भी बड़ी तस्वीर से अनभिज्ञ बने रहकर, अल्पकालिक रणनीतियों पर ध्यान देकर और नाराज कश्मीरियों तथा अपने गठबंधन की भागीदार पीडीपी, दोनों के प्रति संवेदनशील न रहकर नई दिल्ली कश्मीर और उसके लोगों के लिए लड़ी जा रही बड़ी लड़ाई बुरी तरह से हार रही है.
तात्कालिक उपाय
हमारे देश में सरकार और राजनीतिक वर्ग कश्मीर की समस्या के समाधान के बारे में तभी सोचते हैं, जब वहां कोई संकट पैदा हो जाता है. त्रासदी यह है कि जैसे ही संकट हल्का पड़ता है, वैसे ही वादों को भुला दिया जाता है, और कमेटी रिपोटरे को नजरअंदाज (ऐसा आमतौर पर होता ही है) कर दिया जाता है. इसलिए सरकार अगर कश्मीर में संकट को कम करने को लेकर गंभीर है, तो उसे टिकाऊ राजनीतिक समाधान करने पर ध्यान केंद्रित करना चाहिए. आप जितना विलंब करेंगे, उतना ही नई दिल्ली से बात करने को लेकर घाटी में बेरुखी बढ़ेगी. एक दशक पहले घाटी में बातचीत को लेकर जितनी सकारात्मकता थी, उतनी अब नहीं है.
संकट के समय, जैसा कि अब है, में कड़े फैसलों की जरूरत है. और राजनीतिक वर्ग को ऐसा करने का साहस दिखाना चाहिए. हालात सामान्य बनाने के लिए कुछ सुझाव हैं : अफ्सपा को वापस लिया जाए या इसमें संशोधन किया जाए; राजनैतिक बंदियों को रिहा किया जाना चाहिए; कश्मीर में न्यायिकेतर हत्याओं की व्यापक जांच कराई जाए; और बड़े राजनीतिक सवालों को लेकर घाटी के असंतुष्टों के साथ नतीजाकुन बातचीत शुरू की जाए जैसा कि सत्ताधारी गठबंधन ने वादा किया था. जब भारत के एक राज्य में नगा विद्रोहियों के साथ बातचीत की जा सकती है, तो कश्मीर में ऐसी बातचीत क्यों नहीं की जा सकती जो भारत की राष्ट्रीय सुरक्षा के लिहाज से और भी ज्यादा महत्त्वपूर्ण है.
अभी जारी हिंसा ज्यादा दिन नहीं रहनी. लेकिन कश्मीर मुद्दा इतनी जल्दी खत्म नहीं होने जा रहा. जब-तब की रुकावटों के बावजूद यह बना रहेगा. क्षेत्र में आतंकवाद तेजी से पसर रहा है, और इस्लामिक स्टेट अपनी हरकतों को सिरे चढ़ाने की फिराक में है. ऐसे में भारत अपने घरेलू असंतोष को शांत करने से विमुख नहीं बने रह सकता. आइए, हालात का सामना करें. असंतोष को उग्रवाद मान लेने से वास्तविक आतंकवाद से निबटने में हमारे प्रयास कुंठित होंगे. इतना ही नहीं हमें संकट के समय दोषारोपण करने की आदत से भी बाज आना होगा. अपनी गलतियां स्वीकारनी चाहिए. आखिर में, भारत और भारतीयों को खुले दिल और बिना किसी पूर्वाग्रह कश्मीरियों से बात करनी चाहिए. प्राइम टाइम में कुछ एंकर, जिनमें इतिहास और राजनीति की ज्यादा समझ नहीं है और चर्चा के लिए जरूरी बुनियादी शालीनता तक का भी भान नहीं है, जिस तरह शोर मचाए रहते हैं, उससे तो हमें शर्मिदा ही होना पड़ेगा.
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