फिर भी नसीहत देने से बाज नहीं आती कांग्रेस

Last Updated 23 Jul 2016 08:01:30 PM IST

कश्मीर समस्या का संबंध देश के विभाजन से जुड़ा है. उस समय केंद्र में कांग्रेस की सरकार थी, और मोदी सरकार के आने के पहले भी केंद्र में उसी की सरकार रही थी.


संसद भवन (फाइल फोटो)

देश की केंद्रीय सत्ता पर लंबे समय तक काबिज रहने के बाद कांग्रेस के पास यह कहने का कोई कारण नहीं है कि उसे कश्मीर समस्या को सुलझाने के लिए पर्याप्त समय नहीं मिला. उसके सारे प्रयास व्यर्थ रहे और कश्मीर समस्या का स्थायी समाधान नहीं निकला. जाहिर है वह तदर्थवाद पर चलती रही, उसके पास दीर्घकालिक रणनीति का अभाव रहा. फिर भी वह मौजूदा मोदी सरकार को नसीहत दे रही है कि उसने उसके किये-कराए पर पानी फेर दिया. वह उसे यह अहसास कराने का प्रयास कर रही है कि उसे कश्मीर की समझ नहीं है. लेकिन कांग्रेस की समझ उसकी अपनी सरकारों के काम क्यों नहीं आई? आखिर, कांग्रेस की समझ कैसी है?

विपक्ष का काम सरकार की आलोचना करना होता है, लेकिन आलोचना महज आलोचना के लिए नहीं होती है, उसे व्यावहारिक सुझाव भी देना होता है. क्या कांग्रेस ने यह बताया कि लोकतांत्रिक ढांचे के तहत शांतिपूर्ण तरीके से कश्मीर समस्या का समाधान कैसे हो सकता है? अगर उसके पास इस तरह के विचार थे, तो यह कश्मीर समस्या कब की सुलझ चुकी होती. पूर्ववर्ती मनमोहन सरकार ने मध्यस्थों की नियुक्ति की थी, कश्मीर घाटी में सर्वदलीय प्रतिनिधिमंडल भेजा था, लेकिन परिणाम रहा घास के तीन पात. आलोचना करने में वह यह भूल गई कि जब मनमोहन सरकार के दौरान ऐसे हालात उत्पन्न हुए थे, तब भी सुरक्षा बलों ने बल प्रयोग किया था, और दर्जनों लोग मारे गए थे. अब उसी कांग्रेस ने सुरक्षा बलों की विवशता समझने के बजाय यह भाव प्रकट किया है कि उन्होंने ज्यादा बल प्रयोग किया है. इससे तो कश्मीरवासियों में यही संदेश जाएगा कि सुरक्षा बल प्रदर्शनकारियों के प्रति संवदेनशील नहीं हैं, और नतीजतन उनमें सुरक्षा बलों के खिलाफ आक्रोश भड़केगा.

दरअसल, मनमोहन सरकार के समय में ही कश्मीर घाटी में आतंकवाद एक नए चरण में प्रवेश कर चुका था. यह पश्चिम एशिया में चलाए जाने वाले इंतिफादा जैसा है, जिसे \'आंदोलनात्मक आतंकवाद\' कहा जा सकता है. कांग्रेस के अनुभवी नेताओं का यह कहना सही है कि आतंकवादियों और आम नागरिकों के साथ एक जैसा बर्ताव नहीं होना चाहिए, लेकिन उन्हें यह भी बताना चाहिए कि प्रदर्शन के दौरान आम नागरिकों और उनमें घुसे आतंकवादियों के बीच सुरक्षा बल कैसे अंतर स्थापित करें?

उन्हें यह भी बताना चाहिए कि जब भीड़ थाने पर हमला करे, हथियार लूटे और सुरक्षा बलों की जान के लिए ही मुसीबत खड़ी कर दे, तो वे क्या करें? यह सवाल उठना इसलिए लाजिमी है कि आतंक विरोधी कार्रवाई में जब सुरक्षा बल बुरहान वानी जैसे आतंकवादियों का सफाया करते हैं, तब घाटी में प्रदर्शन होना अनहोनी बात नहीं है. ध्यान रहे मोदी सरकार के आने के बाद आतंकवादियों के खिलाफ सुरक्षा बलों की कार्रवाई में तेजी आई है, लेकिन अगर स्थानीय जनता उनके पक्ष में खड़ी होने लगे, तो सुरक्षा बलों के लिए मुश्किल बढ़ेगी.



चिदम्बरम ने तब स्वायत्तता क्यों नहीं दी?
जम्मू-कश्मीर में पंचायती राज संस्थाएं मनमोहन सरकार के समय कारगर नहीं थीं. अब उसी सरकार में गृह मंत्री रहे पी चिदम्बरम भारत में विलय के समय कश्मीर को व्यापक स्वायत्तता संबंधी किए गए वादे को पूरा करने की वकालत कर रहे हैं, लेकिन सरकार में रहते हुए भी वह ऐसा क्यों नहीं कर पाए? यह भी बताना चाहिए. अनुच्छेद 370 को खत्म करने की मांग करने वाली भाजपा नीत सरकार से यह उम्मीद नहीं की जा सकती कि वह इस दिशा में पहल करेगी. केंद्रीय मंत्री वेंकैया नायडु द्वारा चिदम्बरम के बयान की आलोचना करने के बाद इस मामले में किसी भ्रम की गुंजाइश भी नहीं रह जाती. अगर उनके सुझाव पर पहल की जाए, तो पाकिस्तान परस्त अलगाववादियों के रवैये को देखते हुए इसकी क्या गारंटी है कि वे इतने से संतुष्ट हो जाएंगे? फिर, अगर देश के अन्य राज्य इसी तरह की स्वायत्तता की मांग करने लगें, तो फिर नया बखेड़ा हो जाएगा.

लेकिन इसके पहले ही उनकी पार्टी के एक वरिष्ठ नेता ज्योतिरादित्य सिंधिया ने निहायत स्तब्ध कर देने वाला बयान दे डाला कि कश्मीर में \'रायशुमारी\' कराई जाए. हालांकि बाद में उन्होंने सफाई दी कि उनका आशय जनमत संग्रह से नहीं था, बल्कि बातचीत से था. अच्छा हुआ कि उन्होंने सफाई दे दी, अन्यथा कांग्रेस को लेने के देने पड़ जाते. लेकिन कश्मीर में व्याप्त अशांति की तुलना \'गुजरात मॉडल\' से करने वाले गुलाम नबी आजाद ने भाजपा की आलोचना के बावजूद कोई सफाई नहीं दी. यह तो स्पष्ट नहीं हो सका कि उनका इशारा किस ओर था, लेकिन कश्मीर से इसे जोड़ने का कोई औचित्य नहीं था.

क्या कश्मीर का भी कोई मॉडल है? अगर हां तो क्या कश्मीर घाटी से पंडितों को भगाना या कश्मीरियत की जगह वैश्विक जेहाद लाना कैसा मॉडल है? अमरनाथ यात्रा में कथित व्यवधान उत्पन्न न होने पर वे भले ही कश्मीरी मुसलमानों की उदारता का बखान कर रहे हों, पर क्या उन्होंने अमरनाथ यात्रा का पूरा सच बताया? क्या सारे अमरनाथ यात्री अपने गंतव्य स्थान पर पहुंचे या बीच रास्ते से ही वापस कर दिए गए? कहा जा रहा है कि बहुत-से अमरनाथ यात्री बीच रास्ते से वापस कर दिए गए. अगर यह सच है, तो यह एक ऐसा सच है, जिसे न तो अल्पसंख्यक सांप्रदायिकता का पोषण करने वाली कांग्रेस कहेगी और न ही हिन्दुत्व की राजनीति करने वाली मोदी सरकार.

बदलती भू-राजनैतिक परिस्थितियों में कश्मीर का मसला पहले से काफी जटिल हो गया है. इसके बावजूद मोदी सरकार फिलहाल तदर्थवाद से संचालित प्रतीत हो रही है. आने वाले समय में उसकी असलियत भी समझ में आ जाएगी, लेकिन विपक्षी कांग्रेस को भी जिम्मेदारी का परिचय देना होगा. ऐसा नहीं है कि कांग्रेस को परिस्थिति की गंभीरता का अहसास नहीं है, पर समस्या के समाधान के प्रति वह न केवल भ्रमित प्रतीत होती है, बल्कि लोकप्रियता पाने की खातिर सस्ती राजनीति पर भी उतर आई है. बस कश्मीर में आतंकवाद को बढ़ावा देने वाले पाकिस्तान के खिलाफ बयानबाजी में दोनों कमोबेश एक जैसे विचार रखते हैं, पर उससे निपटने के लिए क्या रणनीति अपनाई जाए, यह साफ नहीं है. सवाल यही है कि क्या पाकिस्तान को उसी की शैली में जवाब दिया जाए?

 

 

सत्येन्द्र सिंह
वरिष्ठ पत्रकार


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