सुखाड़- लेट-लतीफ और लापरवाह तंत्र

Last Updated 02 Jul 2016 05:07:48 AM IST

जून माह में मॉनसून की बारिश औसत 11 फीसद कम रही, जिस कारण सूखे का दंश झेल रहे देश के बारह राज्यों के 33 करोड़ लोगों का कष्ट और बढ़ गया.


सुखाड़ और लेट-लतीफ व लापरवाह तंत्र (फाइल फोटो)

मॉनसून की लेटलतीफी से खरीफ की बुवाई प्रभावित हुई है. कृषि मंत्रालय द्वारा जून माह के अंतिम शुक्रवार को जारी आंकड़ों के अनुसार तब तक केवल 124.94 लाख हेक्टेयर जमीन पर बुवाई हुई थी, जबकि गत वर्ष इस अवधि में 164.10 लाख हेक्टेयर जमीन में बीज रोपा जा चुका था. मतलब यह कि बुवाई 39.16 लाख हेक्टेयर घटी है.

यहां याद दिलाना जरूरी है कि गत वर्ष भी देश सूखे से जूझ रहा था और पिछले साल भी मॉनसून ने देरी से दस्तक दी थी, फिर भी इस बार 23.86 प्रतिशत बुवाई कम हुई है. साफ है कि इस बार हालात अधिक विकट हैं. वर्षा के अभाव में करीब एक चौथाई जमीन बंजर पड़ी है और लाखों किसान बेरोजगार हैं. मॉनसून आते ही उनकी माली हालत में सुधार की अपेक्षा नहीं की जा सकती. जहां तक सूखे का सवाल है; सरकारी तौर पर यह पिछले वित्त वर्ष (2015-16) में ही समाप्त हो गया, जिस कारण \'बाबू बिरादरी\' अब बेपरवाह है. इसका खमियाजा गरीब जनता भुगत रही है.

सर्वोच्च अदालत ने केंद्र को सभी सूखा प्रभावित इलाकों में न्यूनतम मूल्य (दो रुपये किलो गेहूं और तीन रुपये किलो चावल) पर अनाज मुहैया कराने का आदेश दिया था, जिस पर अमल नहीं हो रहा. इसका प्रमाण तीन जून को केंद्र द्वारा राजस्थान सरकार को लिखा पत्र है जिसमें स्पष्ट कहा गया कि सूखा पीड़ित क्षेत्रों की जरूरत के लिए 1,89,700 टन अतिरिक्त गेहूं की सप्लाई दो रुपये नहीं, 15 रु पये प्रति किलो की दर से की जाएगी. आज किसी राज्य की माली हालत ऐसी नहीं है कि वह 13 रुपये किलो के घाटे पर जनता को खाद्यान्न उपलब्ध कराए. ऐसे में यदि राज्य सरकार अनाज नहीं उठाती, तब केंद्र उसे आराम से दोषी ठहरा सकता है.

सुप्रीम कोर्ट के गत 13 मई के आदेश के बावजूद न तो मनरेगा पर ठीक से अमल हुआ है, न ही गर्मिंयों की छुट्टियों के दौरान प्रभावित इलाकों में स्कूली बच्चों के \'मिड डे मील\' वितरण का पुख्ता इंतजाम किया गया और न ही गरीब जनता को सस्ता राशन बांटने का समुचित बंदोबस्त हुआ. बैंक भी अदालती हुक्म की अवहेलना कर किसानों को नया ऋण देने के बजाय कर्ज वसूली के नोटिस थमा रहे हैं. ऐसे में सूखा पीड़ित किसान-मजदूर हाल-बेहाल हैं. यदि मौसम विभाग की भविष्यवाणी सच निकली और देश में वर्षा सामान्य से अधिक हुई, तब भी गर्मी की फसल (खरीफ) आने से पहले उनकी हालत में सुधार नहीं हो सकता. अभी तो खरीफ की बुआई चल रही है, तैयार फसल बाजार में आने में कम से कम तीन-चार महीने और लगेंगे.



इसका अर्थ यही है कि सूखा पीड़ित जनता के दुख के दिन जाड़ा आने तक जारी रहेंगे. इस संदर्भ में ग्रामीण विकास मंत्रालय की एक रिपोर्ट का जिक्र जरूरी है जो  सूखा पीड़ित आठ राज्यों में जमीनी हकीकत का जायजा लेने के बाद एक विशेषज्ञ दल ने तैयार की है. रिपोर्ट से पता चलता है कि मध्य प्रदेश में मनरेगा राशि जारी करने में हुई देरी का असर मजदूरी भुगतान पर पड़ा जबकि महाराष्ट्र के सूखा ग्रस्त इलाकों में कोई नया काम ही शुरू नहीं किया गया. इस राज्य में जहां काम हुए भी, वहां कार्यस्थल पर जरूरी सुविधाओं का आभाव पाया गया. रिपोर्ट के अनुसार मध्य प्रदेश में लगातार दूसरे साल सूखा पड़ा है, फिर भी वहां मनरेगा मजदूरों को साल भर देरी से भुगतान किया गया. इसका कारण केंद्र से जारी फंड में कटौती है. राज्य को वर्ष 2014-15 में 947 करोड़ तथा वर्ष 2015-16 में 1,168 करोड़ रुपये का मनरेगा फंड नहीं मिला, जिससे सूखा पीड़ित इलाकों के हालात बदतर हो गए.

सुप्रीम कोर्ट का स्पष्ट आदेश है कि मनरेगा मजदूरों को 15 दिन के भीतर भुगतान किया जाए और देरी होने पर नियमानुसार प्रतिदिन 0.05 प्रतिशत अतिरिक्त मजदूरी दी जाए. जानकारों का मानना है कि यदि तीन वर्ष पूर्व पारित खाद्य सुरक्षा कानून पर ईमानदारी से अमल किया जाए तब ग्रामीण इलाकों की 75 से 88 फीसद जनता इसकी जद में आ जाएगी. मजे की बात है कि कुछ राज्यों ने अब तक इस कानून को अपनाया नहीं है और जिन्होंने अपनाया है, उनके अमल में गड़बड़ है. ग्रीष्मकालीन अवकाश पर जाने से पहले सुप्रीम कोर्ट ने केंद्र को 25 जुलाई तक सूखा राहत से जुड़े कदमों की विस्तृत रिपोर्ट दाखिल करने को कहा था. समय तेजी से निकल रहा है. एक अगस्त से मामले पर फिर सुनवाई होगी.

 

 

धर्मेन्द्रपाल सिंह
लेखक


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