पाकिस्तान हमारी दुखती रग
पिछले दिनों पुलवामा में हुए हमले ने एक बार फिर हमारी दुखती रग, जिसे पाकिस्तान कहा जाता है, छेड़ दी.
पाकिस्तान हमारी दुखती रग |
हमले में हमने अपने आठ जांबाज खो दिए और 21 घायल हो गए. इस नुकसान ने हमारे समूचे राष्ट्र को सदमे में डाल दिया. जैसे इतना ही काफी न था कि जख्मी देश के दुख पर तंज कसते हुए पाकिस्तान के उच्चायुक्त अब्दुल बासित ने भारतीय सैनिकों की शहादत और शोक संतप्त परिवारों के प्रति संवेदनहीनता दिखाते हुए इफ्तार की दावत का लुत्फ उठाने की बात कही.
पाकिस्तानी राजनयिक में सद्भावना और मानवीयता के उन बुनियादी मूल्यों का अभाव दिखा जो मृत्यु के मौके पर नमूदार होते हैं. यहां तक कि शत्रु सैनिकों की मौत पर भी मानवीयता का यह पहलू बिसराया नहीं जाता. ऐसा अपमान झेलने का माद्दा बहुत कम देशों ने ही दिखाया होता. सीमा पर हालात खदबदाए हुए थे, और यहां राजनेताओं और तमाम रंग-ढंग के पृथकतावादियों का जमावड़ा पाकिस्तानी पकवानों को भकोसने पर आमादा था. इससे पता चलता है कि भारतीय सैनिकों की जिंदगी किस कदर सस्ती है. अगले रोज गुस्से से तमतमाए भारतीय प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी ने कहा कि उन्हें नहीं पता कि पाकिस्तान में किससे बात की जाए. आखिर, उन्होंने कोई कसर नहीं छोड़ी थी कि पाकिस्तान में लोकतंत्र की बयार बहे.
आज स्पष्ट दिख रहा है कि पाकिस्तान में नवाज शरीफ जनरल राहिल शरीफ के आगे अपना नियंत्रण खो बैठे हैं. एक लाचार प्रधानमंत्री भर रह गए हैं. तो यह है हमारी पाकिस्तान के लोकतांत्रिक नेताओं तक पहुंच. पीएम मोदी ने सही ही कहा था कि हमारे राजनय ने पाकिस्तान को अलग-थलग कर छोड़ा है. चीन को छोड़कर आज कोई अन्य देश उसके साथ नहीं खड़ा है. यहां तक लंबे समय तक इसके खैरख्वाह रहे अमेरिका और सऊदी अरब तक ने भी उसके प्रति झुंझलाहट दिखलानी आरंभ कर दी है. लेकिन भारत की प्रत्येक सरकार के लिए जरूरी नहीं है कि चक्र को नये सिरे से घुमाए. बीते तीस वर्षो तमाम भारतीय सरकारों का उसके साथ बातचीत चलाए रखने पर ही बल रहा है. और हमारी यह अदम्यता अभी तक टूटी नहीं है.
आइंस्टीन ने कहा है कि एक चीज को बार-बार करने और फिर जुदा नतीजे की उम्मीद करना निरी मूर्खता है. यकीनन हम उस स्थिति में तो नहीं पहुंचे हैं, लेकिन यह भी पक्की बात है कि वार्ता बैठकों से हमें हासिल कुछ नहीं हुआ. उनसे तो पाकिस्तान का दुस्साहस ही बढ़ा है. इस गफलत में भी पड़ गया है कि भारत के पास विकल्पों का टोटा है. इस करके वह भारत के खिलाफ मोर्चा बांधे रहने को प्रेरित हुआ है. अपनी हरकत से बाज नहीं आने पर उसका नुकसान ही क्या है? अपने जांबाज जवानों के मारे जाने के बावजूद हम ज्यादा से ज्यादा इफ्तार दावतें और वार्ता के दौर पर दौर चलाते रहे तो इन मौतों को कैसे रोका जा सकेगा? जब मोदी सरकार सत्ता में आई तो पाकिस्तान में भय का माहौल बन गया था.
जिस तरह का आक्रामक चुनावी अभियान चलाया गया था, जैसे वादे किए गए थे, उनसे वह भयाक्रांत था कि कहीं उन वादों को मोदी सरकार पूरे करने में न जुट जाए. लेकिन पाकिस्तान के अचरज का ठिकाना न रहा कि नई सरकार बढ़-चढ़कर शांति वार्ता की पहल करने की राह चल पड़ी थी. इस मामले में उसने अपनी पूर्ववर्ती यूपीए सरकार को भी पीछे छोड़ दिया. संभवत: सरकार यह सब अमेरिकी दबाव या उकसावे में कर रही थी. संभव यह भी कि राजग सरकार कुछ समय लेना चाहती थी ताकि भारत की सैन्य तैयारी की उन खामियों को दुरुस्त कर सके जो यूपीए के शासनकाल में रक्षा क्षेत्र की उपेक्षा के कारण से उभर आई थीं.
बहरहाल, जो भी हो लेकिन राजग शासन ने पाकिस्तान के साथ शांति वार्ता की पहल करके हर किसी को हैरत में डाल दिया. भारत की प्रत्येक पहल का जवाब पीठ में छुरा घोंप कर दिया गया. एक के बाद एक ऊधमपुर, गुरुदासपुर, पठानकोट और अफगानिस्तान में हमारे वाणिज्य दूतावास पर आतंकी हमले हुए. दो वर्षो तक नये सिरे से शांति प्रयासों के बावजूद हम आज फिर उसी दोराहे पर आ खड़े हुए हैं. और पंपोर में हालिया आतंकी हमले में हमारे जवानों को निशाना बनाया गया. पहले तो कश्मीरी पृथकतावादी और स्थानीय नेता भारतीय सेना को हटाने और सड़कों पर बनाए गए पुलिस बंकरों को हटाने की मांग को लेकर अभियान चलाते हैं, फिर हमारे सैनिकों पर हमले करके उन्हें मार डाला जाता है.
प्रधानमंत्री ने बल देकर कहा था कि शांति की अपनी पहल से हमने समूचे विश्व की सहानुभूति हासिल की है. लेकिन समूचा विश्व जानता है कि बीते तीस वर्षो में पाकिस्तान हमले करने की अपनी हरकतों से बाज नहीं आया. भारत ने इतना साहस या इच्छाशक्ति नहीं दिखाई कि उसे उसकी जुबान में ही समझाया जाए. हमने शांति के प्रयासों में कोई कसर नहीं छोड़ी. तमाम औपचारिक और अनौपचारिक चैनलों से प्रयास किए, लेकिन कोई सकारात्मक नतीजा नहीं मिल पाया. ज्यादातर प्रयास अमेरिका के दबाव में किए गए बताए जाते हैं.
भारत जैसी बड़ी ताकत के लिए जरूरी है कि अपने राष्ट्रीय हितों की रक्षा के लिए जरूरी कार्रवाई करे. किसी राष्ट्र विशेष को खुश करने भर को शिथिल नहीं पड़े. दुखद है कि कभी-कभार हम अन्य राष्ट्रों की मंजूरी के लिए कायरता दिखा बैठते हैं. तो अब भारत को क्या करना चाहिए? अरसे से हम प्रतिक्रियात्मक या रक्षात्मक युद्ध लड़ते रहे हैं. वह भी अपनी ही धरती पर. हमारी प्रतिक्रियाएं नतीजों की बंदोबस्ती पर ही केंद्रित रही हैं. समय आ गया है कि हम सीमा के पार कार्रवाई करें. हमें पाकिस्तान को युद्ध की भारी कीमत चुकाने के लिए विवश कर देना होगा. इससे वह भारत के खिलाफ आतंकी युद्ध करने से बचने को विवश होगा. उसे बता देना होगा कि भारतीयों का जीवन सस्ता नहीं है, और उसे अपनी हरकतों की भारी कीमत चुकानी होगी. तभी उसमें वह दृष्टिबोध उभर पाएगा कि वह चाहता क्या है?
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