देखें! पुछल्ला तकनीक ही न पाएं हम

Last Updated 28 Jun 2016 05:42:07 AM IST

हाल में सरकार ने रक्षा क्षेत्र समेत अनेक क्षेत्रों में ऑटोमेटिक रूट के जरिए प्रत्यक्ष विदेशी निवेश की दृष्टि से प्रमुख उदारीकृत उपायों की घोषणा की है.


देखें! पुछल्ला तकनीक ही न पाएं हम

मोदी सरकार द्वारा यह दूसरा प्रमुख एफडीआई सुधार है. पहले सुधार की घोषणा नवम्बर, 2015 में की गई थी. सरकार ने दावा किया है, ‘पहले सुधार के कारण वित्तीय वर्ष 2013-14 के दौरान भारत में 55.46 बिलियन अमेरिकी डॉलर का प्रत्यक्ष विदेशी निवेश पहुंचा. किसी एक वित्तीय वर्ष में यह अब तक का सर्वाधिक प्रत्यक्ष विदेशी निवेश है.’ सरकार ने यह भी ध्यान दिलाया कि ‘अनेक अंतरराष्ट्रीय एजेंसियों द्वारा भारत को प्रत्यक्ष विदेशी पूंजी निवेश के मद्देनजर अव्वल गंतव्य करार दिया गया है.’ 

पूर्व का अनुभव बताता है कि रक्षा क्षेत्र में प्रत्यक्ष विदेशी पूंजी निवेश बढ़ने से उन्नत तकनीक हासिल और उपयोग करने की दृष्टि से अपेक्षित लक्ष्य प्राप्त नहीं किया जा सका. रक्षा क्षेत्र में एफडीआई के जरिए शायद ही कोई उन्नत तकनीक से सज्जित मूल उपकरण निर्माता (ओईएम) पहुंचा हो या रक्षा क्षेत्र के आवश्यक विशेष ढांचा तैयार किया जा सका हो. खास बात यह है कि कोई भी रक्षा कंपनी अपने बल या अपनी शर्तों पर उन्नत प्रौद्योगिकी की आपूर्ति नहीं कर सकती. जिस देश में कंपनी  स्थित है, उसी देश की सरकार ही तय कर सकती है कि उस कंपनी द्वारा मुहैया कराई जा रही प्रौद्योगिकी किस देश को आपूर्त की जानी है, किस को नहीं. इसलिए विदेशी ओईएम की शक्ति एफडीआई के मद्देनजर हासिल किया जाना भारत के लिए कोई ज्यादा कारगर नहीं होगा. यह सांकेतिक ही होगा.  

रक्षा का जीवनचक्र
अंतरराष्ट्रीय स्तर पर रक्षा कारोबार, जिसमें पांच-आठ साल का उत्पाद विकास चरण (लड़ाकू विमान जैसी कहीं अधिक जटिल प्रणाली के लिए समय अधिक भी हो सकता है) को कंपनी के देश की सरकार वित्त पोषित करती है. लेकिन ज्यादातर रक्षा उत्पादों में होता यह है कि देश में रक्षा सेनाओं द्वारा इनका उपयोग किए जाने के उपरांत सरकार उनके निर्यात पर ध्यान केंद्रित करती है. आम तौर पर इस्तेमाल शुरू होने के दस साल पश्चात निर्यात का सिलसिला आरंभ होता है. इससे निर्यात करने वाले देश को निर्यात से होने वाली आय से अपनी प्रणाली को अद्यतन बनाने तथा नई पीढ़ी की तकनीक विकसित करने में सहूलियत मिल जाती है. सामान्य रूप से तमाम रक्षा प्रणालियों की जीवन चक्र लागतें शुरुआती लागतों की तुलना में चार से सात गुना होती हैं. विश्व स्तर पर किसी रक्षा कंपनी का रिटर्न ऑन कैपिटल इम्पलॉयड (आरओसीई) ‘जीवन चक्र प्रतिफलन’ पर आधारित होता है, जहां प्रतिफल की प्राप्ति उच्चीकरण और नवीकरण वगैरह से होती है, जबकि भारत में हमने असेसमेंट मॉडल अपनाया है, जिसमें बीते साठ सालों में हमारे डीपीएसयू से किसी प्रकार का उच्चीकरण हासिल नहीं किया जा सका. इस प्रकार भारत के मौजूदा मॉडल में हम न केवल पुछल्ला तकनीक यानी 10 से 20 वर्ष पुरानी तकनीकों के पीछे भाग रहे हैं, बल्कि अपनी सुरक्षा के लिए विदेशी प्रौद्योगिकी पर भी बेहद निर्भर हैं.

हाल में हमने डीपीपी के तहत उपकरण प्राप्ति के लिए पहली पसंद के तौर पर आईडीडीएम (इंडिजेनियसली डिजाइंड, डवलप्ड एंड मैन्युफैक्र्चड) को अपनाया है, ऐसे में इस मौके पर एफडीआई बढ़ाए जाने से ‘भारत में असेंबल करने’ की संस्कृति को बढ़ावा मिलेगा. इससे ‘भारत में डिजाइन एंड डवलप करने’ का कोई भी प्रयास कुंद होगा. भारत सरकार ने दूरसंचार क्षेत्र में प्रिफरेंशियल मार्केट एक्सेस (पीएमए) की शुरुआत करके साहसी पहल की है, जो तमाम सरकारी खरीद पर घरेलू और विदेशी उपकरण विनिर्माताओं के लिए लागू होगी बशर्ते वे पात्रता के लिए नियत तौर-तरीके के अनुरूप प्रति वर्ष मूल्य संवर्धन संबंधी तौर-तरीकों का पालन करते हों. प्रौद्योगिकी, गुणवत्ता और कीमत पर समझौता किए बिना यह तरीका तार्किक और पारदर्शी है. दरअसल, उम्मीद बांधी गई है कि सरकार चूकी हुई, अविसनीय और एफडीआई जैसी समय-सिद्ध भूलों के बजाय इस प्रकार के प्रगतिशील उपाय जारी रखेगी.

उदाहरण के लिए भारत ने दूरसंचार उपकरण विनिर्माण क्षेत्र में अब से करीब पंद्रह साल पहले से ही शत-प्रतिशत एफडीआई की अनुमति दे रखी है. हम विश्व में ‘सबसे बड़ा दूरसंचार बाजार’ हैं, लेकिन बड़ा बाजार और विदेशी पूंजी तथा स्वामित्व संबंधी तमाम आजादी के बावजूद तद्नुरूप शायद ही कोई बड़ा दूरसंचार उपकरण निर्माण होता हो. दूरसंचार क्षेत्र में शत-प्रतिशत एफडीआई के बावजूद देश में शायद ही उच्च-तकनीक के किसी दूरसंचार उपकरण का कोई महत्त्वपूर्ण डिजाइन, विकास या विनिर्माण किया जाता हो.

भारत के लिए बेजोड़ अवसर
जहां तक रक्षा क्षेत्र का प्रश्न है, तो मौजूदा भू-राजनीतिक परिदृश्य में, जब पश्चिमी देश अपने रक्षा बजट को कम कर रहे हैं, भारत के लिए बेजोड़ अवसर हैं कि अपने हितों की साज-संभाल करते हुए बड़े बाजार के रूप में स्वयं को विकसित कर ले. विदेशों में बजट में कटौती के कारण विदेशी रक्षा कंपनियां और उनकी सरकारें ज्यादा से ज्यादा निर्यात अवसरों की तलाश में होंगी. इस करके तकनीक के हस्तांतरण (टीओटी) संबंधी हमारे रक्षा मंत्रालय की मांग को मानने को वे तैयार हो सकती हैं. वैसे भी ब्रिक्स में हमारी विसनीय एवं स्थिर सहयोगी की भूमिका हमारे लिए मददगार साबित हो सकती है. इस करके हम टीम इंडिया के रूप में मजबूती के साथ मोल-भाव करने की स्थिति में हैं.  

आज भारतीय उद्योग अनेक सामरिक रक्षा क्षेत्रों में आगे बढ़ चुका है; प्रौद्योगीकीय क्षेत्रों में इसके कुछ बढ़त ली है. कुछ नये क्षेत्रों में शोध एवं विकास के लिए निवेश कर रहा है. एफडीआई में वृद्धि से अनेक प्रौद्योगिकीय क्षेत्रों में फायदे, जो भारतीय उद्योग को मिले हैं, बुरी तरह प्रभावित हो सकते हैं. जरूरी है कि फायदे की इस स्थिति को सहेज कर रखें. एफडीआई का स्तर ऊंचा करके उन्हें बिखरने न दें. नहीं तो होगा यह कि विदेशी ओईएम स्थिति का फायदा उठा ले जाएंगी. 

सच तो यह है कि अर्थव्यवस्था के अन्य क्षेत्रों में एफडीआई का प्रदर्शन कोई उत्साहजनक नहीं रहा है. आंकड़ों से पुख्ता होता है कि एफडीआई ने भारत की समस्या का कोई समाधान करना तो दूर की बात है, भारतीय अर्थव्यस्था का अनर्थ ही किया है. रॉयल्टी, ब्याज, लाभ और बेतहाशा ज्यादा वेतन के रूप में विदेशी ओईएम के पास इतना धन पहुंच जाता है जितना तो एफडीआई के रूप में देश में आया भी नहीं होता. उदाहरण के लिए वर्ष 2014-15 में 31 बिलियन अमेरिकी डॉलर एफडीआई के रूप में देश में पहुंचे, और इस अवधि के दौरान 36.5 बिलियन अमेरिकी डॉलर देश से बाहर पहुंच गए. एफडीआई को आर्थिक विकास बढ़ाने या रोजगार सृजन के लिए नहीं जाना जाता. यह विदेशी कंपनियों और उनकी सरकारों को कारोबारी अवसर और अपनी अर्थव्यवस्था को लाभकारी बनाने के मौके मुहैया कराता है. सरकार को केवल ‘बाजार’ ही नहीं बल्कि ‘बाजार नियंता’ का भी समर्थन करना चाहिए ताकि ‘प्रक्रिया’ (असेंबली) पर मौजूदा तवज्जो के बजाय तकनीक की जानकारी के निर्माण एवं उपयोग के लिए उत्पाद-डिजाइन की क्षमता विकसित हो सके.

डा. राजीव नयन
सीनियर रिसर्च फैलो, आईडीएसए


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