ब्रिटेन : रिश्ते को बेवजह तूल ना दें

Last Updated 28 Jun 2016 04:56:31 AM IST

एक जमाना था जब सल्तनते बर्तानिया हिंद पर राज करती थी, और चाहे जिस तरीके से अंग्रेजों ने कोई दो सौ साल भारत को गुलाम बनाए रखा.


रिश्ते को बेवजह तूल ना दें

इसी वजह से हमारे देश के साथ ग्रेट ब्रिटेन के रिश्ते घनिष्ठ और पेचीदा रहे हैं. यहां विस्तार से इनका बखान नहीं किया जा सकता लेकिन याद दिलाने की जरूरत है कि आजादी के बाद भी पंडित नेहरू समेत हमारे बहुत सारे नेता अंग्रेजों के प्रशंसक और अंग्रेजी परस्त बने रहे. शिक्षा प्रणाली हो, या अखिल भारतीय प्रशासनिक सेवाएं, सेना हो या न्याय व्यवस्था अंग्रेजों ने मानसिक गुलामी की जिन बेड़ियों में इस देश को जकड़ा था, उनसे छुटकारा पाने की कोई जरूरत हमारे शासक वर्ग ने नहीं समझी.

माउंटबैटन परिवार के करीबी नेहरू को ही इसके लिए जिम्मेदार नहीं समझा जा सकता. हाल तक अंग्रेजों का आभार मानते, हमें अंग्रेजी भाषा और साम्राज्यवादी विदेशियों के स्वार्थ सुरक्षित रखने वाली पुलिस का बंदोबस्त विरासत में सौंपने के लिए मनमोहन सिंह ने भी अंग्रेजों का गुणगान करने में कसर नहीं छोड़ी थी.

राष्ट्रकुल की सदस्यता हो या पाउंड-स्टर्लिंग वाली अर्थव्यवस्था में जुड़े रहना इसी सोच का नतीजा हैं. 1960 के दशक के मध्य तक ही जगजाहिर हो चुका था कि ग्रेट ब्रिटेन अब ‘ग्रेट’ नहीं रहा. अदन और सिंगापुर से ‘वापसी’ हो या यूरोप में यूरोपीय समुदाय की सदस्यता से महरूम अमेरिका के कृपा कटाक्षों पर निर्भर रहना, ब्रिटेन की पस्ती किसी से छिपी नहीं थी. सिर्फ  हम हिंदुस्तानी ही अंग्रेजों को बड़ी ताकत मानने का भरम पालते रहे.

ऑक्सफोर्ड-कैंब्रिज से बेहतर कोई वि्श्वविद्यालय हमें नजर नहीं आता था. शराब में स्कॉच व्हिस्की से ले कर मोटर कारों में रॉल्स रॉयस हमारे तमाम मानक ब्रिटेन केंद्रित बने रहे. इसीलिए आज ब्रिक्सट के बाद भारत को इस देश के साथ अपने रिश्तों के बारे में गंभीरता से सोचने के लिए मजबूर होना पड़ रहा है. ब्रिटेन में बसे हिंदुस्तानियों की तादाद खासी बड़ी है. (यों नस्लवादी अंग्रेजों की नजर में सभी भूरे एक हैं-हिंदुस्तानी, पाकिस्तानी, बांग्लादेशी, श्रीलंकाई और पूर्वी अफ्रीका एवं वेस्टइंडीज से पहुंचने वाले दक्षिण एशियाई मूल के आप्रवासी; जो थोड़ा बहुत फर्क किया जाता है  इनके अंग्रेजी बोलने-बरतने के तरीके के आधार पर!). इन सभी को यह मुगालता है कि ब्रिटेन पहुंचने वाले दूसरे शरणार्थियों की तुलना में वे अंग्रेजों के तौरतरीकों से ज्यादा वाकिफ हैं, और अंग्रेजी शिक्षा के कारण वहां के समाज में आसानी से घुल-मिल सकते हैं. मुगालता शब्द इसलिए इस्तेमाल किया जा रहा है कि खुद अंग्रेज ऐसा नहीं समझते.

यूरोपीय समुदाय से बाहर निकलने के लिए जिस जनमत संग्रह ने भूकंप जैसे हालात पैदा किए हैं, उसका एक प्रमुख मुद्दा विदेशी शरणार्थियों के प्रति आक्रोश था. भले ही सतही तौर पर इसका प्राथमिक निशाना सीरिया से आए शरणार्थी थे, कडुवा सच यह है कि सारे अेत दक्षिण एशियाई-भारतीय, पाकिस्तानी, बांग्लादेशी, श्रीलंकाई, पुरबी अफ्रीका से आए आप्रवासी एवं वेस्टइंडीज के बाशिंदे भारतवंशी सबके सब एक जैसे हैं. भले ही ब्रिटेन की  राष्ट्रीय स्वास्थ्य व्यवस्था की रीढ़ दक्षिण एशियाई डाक्टर-नर्से हैं, और कई शहरों में खुदरा व्यापारी भी इसी बिरादरी के हैं, अंग्रेज किसी भी तरह का एहसान नहीं मानते.

इस सोच में इस बात से भी रत्ती भर फर्क नहीं पडा है कि अनेक मशहूर विलायती कंपनियों के मालिक आज हिंदुस्तानी हैं-टाटा, लक्ष्मी मित्तल जैसे. अनेक विश्वविद्यालयों में प्रोफेसर भी हिंदुस्तानी ही हैं-चर्चित सांसद भी. अमत्र्य सेन, लॉर्ड मेघनाद देसाई, लॉर्ड भिक्खू पारीख, उपेन्द्र बक्शी सिर्फ  चुनिंदा नाम हैं. सूची खासी लंबी है. जो लोग सोच कर हुलस रहे हैं कि यूरोपीय समुदाय से निकलने के बाद भारत ब्रिटेन के और भी करीब आ जाएगा और इस मौके का बड़ा आर्थिक लाभ उठाने में कामयाब होगा तो  उन्हें याद दिलाने की जरूरत है कि खस्ता हाल मंदी और राजनैतिक अस्थिरता के दौर से गुजरते ब्रिटेन के लिए भले ही भारतीय विकल्प आकषर्क हों हमारे लिए ब्रिटेन खास मददगार या सामरिक महत्व का साझीदार साबित नहीं हो सकता.

हाल के वर्षो में भारत ने लड़ाकू विमानों तथा बड़ी तोपों, विमानवाहक पोतों, टैंकों आदि की खरीद के लिए अनेक देशों से संपर्क साधा है. कभी जगुआर खरीदने वाले भारत ने हाल ही में फ्रांसीसी रफायल विमानों का बड़ा ऑर्डर दिया है. परमाणविक रिएक्टर हों तो अमेरिका ही आकषर्क विक्रेता लगता है. फ्रांस-जरमनी-इटली ही नहीं इजरायल तक ब्रिटेन को इस मोर्चे पर बहुत पीछे छोड़ चुका है. कुल मिला कर ब्रिटेन के खाते में भारत खरीददार के रूप में काफी ऊपर है, और भारत में पूंजी निवेश के मामले में भी ब्रिटेन का नम्बर मॉरीशस तथा सिंगापुर के बाद औरों से आगे है. आने वाले दिनों में यह स्थिति तेजी से बदलेगी. वेदांत जैसी बड़ी कंपनियों के लिए ब्रिटेन सिर्फ इसलिए महत्वपूर्ण रहा है कि औपनिवेशिक काल से ही खनिज विनिमय का केंद्र वह रहा है. कुछ भारतीय उद्यमी यह सोचते रहे हैं कि ब्रिटेन में उत्पादन कर या वहां की कंपनियों का अधिग्रहण कर वे अपनी पहुंच यूरोप के बाजार तक बढ़ा सकेंगे.
आज यह सपना एकाएक चकनाचूर हो चुका है.

पर इसका यह अर्थ नहीं कि भारत की बुनियादी तौर पर (अभी तक) तंदुरस्त अर्थव्यवस्था इस झटके को बर्दाश्त नहीं कर सकती. हमारी राय में समझदारी इसी में है कि हम ब्रिटेन के साथ अपने रिश्तों को अनावश्यक तूल ना दें. इनसे कहीं अधिक संवेदनशील और सामरिक महत्व की रिश्तेदारी-आर्थिक, राजनैतिक और सांस्कृतिक-अमेरिका, ईरान, मध्येशिया और दक्षिण पूर्वेशिया के साथ है. इस घटना को भूमंडलीकरण के अंत की शुरुआत समझने की उतावली आत्मघातक ही हो सकती है.

पुष्पेश पंत
लेखक


Post You May Like..!!

Latest News

Entertainment