एनएसजी पर चीन की छलनीति

Last Updated 27 Jun 2016 05:23:23 AM IST

इसमें दो राय नहीं हो सकती कि एनएसजी या नाभिकीय आपूर्तिकर्ता समूह की सदस्यता न मिलने से भारत में निराशा है.


एनएसजी पर चीन की छलनीति

जिस तरह की सक्रिय आक्रामक कूटनीति भारत ने पिछले कुछ महीनों में किया था, उससे यह उम्मीद बंध गई थी कि भारत अंतिम सबसे बड़े नाभिकीय क्लब का सदस्य बन जाएगा. उसके बाद भविष्य में भारत के सामने शांतिपूर्ण और विकास के कार्यों के लिए नाभिकीय व्यापार में कोई समस्या आने की संभावना नहीं रहेगी.

सिओल बैठक से भारत के लोगों ने काफी उम्मीद लगा ली थी. एक-से-एक देश जिस तरह से खुलकर भारत का समर्थन करने लगे थे, उसमें कोई यह कल्पना नहीं कर सकता था कि एक देश भारत विरोध का इतना अड़ियल रुख अपना लेगा कि सारे किये-कराये पर पानी फिर जाएगा. भारत के सामने सितम्बर 2008 का अनुभव था. उस समय भी भारत पर से नाभिकीय सामग्री एवं ईधन के निर्यात पर प्रतिबंध हटाने के आवेदन पर चीन ने अड़ियल रुख अपनाया था. किंतु अंतत: सारे देशों का समर्थन देखते हुए और अमेरिकी राष्ट्रपति के विशेष निवेदन पर चीन चुप हो गया था. इस पृष्ठभूमि में ऐसा लग रहा था कि इस बार भी यदि ज्यादातर देश भारत के पक्ष में खड़े हो गए तो चीन शायद चुप हो जाएगा. किंतु चीन यह तय करके बैठा है कि किसी भी सूरत में वह भारत को इसकी सदस्यता नहीं लेने देगा. एनएसजी का विधान कहता है कि निर्णय सर्वसम्मति से होंगे. यानी एक भी सदस्य समर्थन नहीं करेगा तो निर्णय नहीं हो सकता.

सदस्यता न मिलना भारत के लिए धक्का है..लेकिन इसके साथ यह तथ्य भी नहीं भूलना चाहिए कि 48 सदस्यीय समूह में हमारे पक्ष में ज्यादातर देश न केवल आए बल्कि हमारी अनुपस्थिति में जमकर वकालत की. यह क्या सामान्य कूटनीतिक सफलता है? यह हमारे लिए संतोष का विषय होना चाहिए. आखिर सिओल बैठक में क्या हुआ? भारत की सदस्यता चर्चा का मुख्य केन्द्र बिन्दु बना. भारत से बैठक आरंभ हुई और भारत पर ही खत्म. इसमें समर्थन ज्यादा और विरोध कम. अंतिम समय में तो ऐसा लगा कि 48 में से 47 सदस्य इस पर राजी हो गए कि भारत को सदस्य बना लेना चाहिए. तो एक सदस्य का विरोध कूटनीतिक विफलता हो गई और 47 का समर्थन क्या हुआ?  सिओल बैठक में जो हुआ, उसे देखिए.

जापान ने हमारी सदस्यता के लिए प्रस्ताव रखा. अर्जेंटीना के निवर्तमान अध्यक्ष राफाएल ग्रोसी ने अपने आरंभिक अध्यक्षीय वक्तव्य में ही भारत की नाभिकीय अप्रसार के प्रति वचनबद्धता तथा उसके अनुपालन का समर्थन करते हुए सकारात्मक रिपोर्ट प्रस्तुत किया. उनके बाद अध्यक्षता संभालने वाले दक्षिण कोरिया ने भी भारत की सदस्यता से बातचीत आरंभ की. लेकिन चीन ने प्रक्रिया का प्रश्न उठा दिया. उसने तो भारत की सदस्यता के विषय पर बातचीत को ही प्रश्नों के घेरे में ला दिया और इतना अड़ गया कि इसके बाद बैठक का एजेंडा क्या हो, उसमें भारत का विषय आए या नहीं इस पर बहस होने लगी.

चीन के राजनयिक इतनी हठधर्मिंता पर आ गए थे कि इसमें 5 घंटे निकल गये. अंतत: यह निर्णय हुआ कि गैर एनपीटी यानी नाभिकीय अप्रसार संधि पर हस्ताक्षर न करने वाले देश को सदस्यता देने से संबंधित वैधिक, राजनीतिक और तकनीकी मुद्दा क्या हो सकता है, इस पर बातचीत हो. यह चीन की छलनीति थी, क्योंकि एनपीटी कई देशों के लिए धार्मिंक आस्था जैसा है. 9 बजे रात को बातचीत आरंभ हुई जो आधी रात तक चली.

यह खबर गलत थी कि ब्राजील एवं दक्षिण अफ्रीका शुरू से भारत के विरोध में थे. चीनी राजनयिकों के कठोर रुख के बावजूद ब्रिक्स के ये दोनों देश रूस की तरह ही भारत के पक्ष में खड़े थे. आयरलैंड, स्विट्जरलैंड और ऑस्ट्रिया जैसे देशों ने कुछ समय के लिए प्रक्रिया के प्रश्न पर सहमति दिखाई और उनके साथ ब्राजील भी दिखा, लेकिन थोड़ी देर बाद ही ये देश भारत की सदस्यता का समर्थन करने लगे. पाकिस्तान के आवेदन पर वहां ज्यादा विचार नहीं हुआ, लेकिन उसके आवेदन की उपस्थिति को ही चीन ने आधार बनाया कि गैर एनपीटी देशों को सदस्यता दी जाए की नहीं.



भारत सदस्य तो है नहीं कि अंदर अपने पक्ष में तर्क रख पाता. लेकिन जो तर्क भारत रख सकता था, वह दूसरों ने रखा और उसमें दुनिया के प्रमुख देश शामिल थे. ब्रिटेन, फ्रांस, जर्मनी, अमेरिका, जापान, रूस सब भारत का पक्ष रख रहे थे. ध्यान रखने की बात है कि चीन के विरोध के बावजूद भारत का आवेदन खारिज नहीं हुआ. इन देशों ने सम्मेलन की विज्ञप्ति में एक बिन्दु ऐसा डलवा दिया, जिससे अगली बैठक में भी भारत की सदस्यता पर विचार हो सकता है. तो मामला खत्म नहीं हुआ है. एक विशेष बैठक इसी वर्ष हो सकती है. यह भी समझने की जरूरत है कि एनएसजी की सदस्यता से भारत के लिए बहुत ज्यादा व्यावहारिक अंतर नहीं आने वाला है. एनएसजी भारत को पहले ही प्रतिबंधों से मुक्त कर चुका है और इसी कारण हमने कई देशों के साथ ईधन एवं रिएक्टर के समझौते किए हैं. सदस्य बन जाने के बाद हम भविष्य के लिए निश्चिंत हो जाएंगे. बस इतना ही अंतर आएगा. बहरहाल, चीन के रवैये से कुछ बातें साफ हो गई हैं. वह भारत को विश्व शक्ति के रूप में उभरने देने को तैयार नहीं है.

उसने मसूद अजहर पर प्रतिबंध का जिस तरह वीटो किया उसके पीछे कोई तार्किक कारण नहीं हो सकता. पाकिस्तान का वह अपने लिए उपयोग करने की नीति पर चल रहा है. चीन को लग रहा है कि दुनिया में भारत का समर्थन जिस तरह बढ़ रहा है और उसकी कूटनीति जितनी आक्रामक है, अगर बाधा नहीं डाली गई तो एक दिन वह सुरक्षा परिषद का सदस्य बन जाएगा. इसलिए वह आगे भी भारत के विरुद्ध खड़ा होगा. वस्तुत: उसकी चलती तो एमटीसीआर यानी प्रक्षेपास्त्र तकनीक नियंत्रण व्यवस्था का भी सदस्य हमें नहीं बनने देता. वहां भी आम सहमति का ही प्रावधान है. किंतु वह स्वयं उसका सदस्य नहीं है. अब भारत उसका सदस्य हो गया है. जब चीन सदस्यता चाहेगा तो हम जैसे-को-तैसा जवाब दे सकते हैं. सवाल यह भी उठेगा कि यदि चीन का यही रवैया है तो फिर ब्रिक्स जैसे संगठनों का औचित्य क्या है?

 

 

अवधेश कुमार
वरिष्ठ पत्रकार एवं लेखक


Post You May Like..!!

Latest News

Entertainment