रक्षा क्षेत्र में एफडीआई पर हाय-तौबा क्यों
वर्ष 1992 में डा. पीवी नरसिंह राव की सरकार में वित्तमंत्री बने डा. मनमोहन सिंह ने उदारीकरण का जो दौर शुरू किया था, वह आज जोर-शोर से जारी है.
रक्षा क्षेत्र में एफडीआई पर हाय-तौबा क्यों. |
चाहे सरकार किसी भी दल की रही हो, पर अर्थव्यवस्था की जरूरतों ने दुनिया की दूरियां समेट दी हैं. वाजपेयी सरकार ने बहुत से क्षेत्रों को प्रत्यक्ष विदेशी निवेश के लिए खोला था, परंतु उन्होंने अधिकतर क्षेत्रों में एफडीआई की सीमा 26 प्रतिशत रखी थी. प्रसारण और फिल्मों में एफडीआई की सीमा 74 प्रतिशत तक थी. उनका मानना था कि स्वामित्व का अधिकार भारतीय कंपनी/नागरिक के पास रहना चाहिए.
डॉ. मनमोहन सिंह प्रधानमंत्री बनने के बाद अपने पहले कार्यकाल में उदारीकरण की नीति को आगे नहीं बढ़ा पाए थे क्योंकि वामदल सरकार को बाहर से समर्थन दे रहे थे. लेकिन यूपीए-2 में उन्होंने खुलकर निर्णय लिये. नरेन्द्र मोदी सरकार ने तो मनमोहन सिंह सरकार से भी आगे जाकर उदारीकरण की नीति अपनाई है. हाल में मोदी सरकार ने एफडीआई नियमों को और भी शिथिल कर दिया है. रक्षा क्षेत्र में तो 100 प्रतिशत विदेशी पूंजी निवेश की अनुमति दे दी गई है. इस निर्णय पर मिश्रित प्रतिक्रिया हो रही है.
विरोध करने वाले ज्यादा है. यहां तक कांग्रेस भी विरोध कर रही है, जिसने रक्षा क्षेत्र में 49 प्रतिशत एफडीआई का प्रस्ताव किया था. संघ परिवार से जुड़े स्वदेशी जागरण मंच, भारतीय मजदूर संघ और वामदलों का विदेशी सामान का विरोध करना पुराना शगल है. परंतु देशहित के तराजू में रक्षा क्षेत्र में विदेशी पूंजी निवेश को तौला जाना चाहिए. आजादी के बाद से अब तक हमारी रक्षा जरूरतें आयात पर निर्भर है. भारत की सेना दुनिया की सबसे बड़ी ताकत है. हमारी कुल रक्षा आवश्यकता का 60 प्रतिशत हिस्सा आयात से पूरा होता है. देश के रक्षा बजट का 31 प्रतिशत हिस्सा विदेशों से रक्षा सामग्री खरीदने में चला जाता है. यानी हमारे 3 लाख करोड़ रु पये के रक्षा बजट में से करीब एक लाख करोड़ रुपये विदेश चले जाते हैं.
अब एक नजर अपने भारतीय बाजार पर भी डाल लें. भारत सरकार ने कुल 10 कंपनियां/संगठन बनाए हैं, जो देश की रक्षा जरूरतों को पूरा करता है. सबसे बड़ी संस्था आर्डिनेंस फैक्टरी, हिंदुस्तान एयरोनोक्टिस और डीआरडीओ है.
इन सभी दस संस्थाओं का राजस्व कुल मिलाकर 8 बिलियन डॉलर है. यानी ऊंट के मुंह में जीरा. भारत का रक्षा बजट 3 हजार बिलियन डॉलर का है. निजी क्षेत्र में केवल आठ कंपनियां रक्षा सामग्री बना रही है, जिनमें प्रमुखत: वाहन और टेलीकॉम सामग्री शामिल है. विरोधी आशंका व्यक्त कर रहे हैं कि रक्षा क्षेत्र में 100 फीसद एफडीआई की अनुमति देने से विदेशी कंपनियां रक्षा क्षेत्र में घुस जाएंगी जो देशहित के खिलाफ होगा.
विरोध करने वालों से एक सवाल-क्या अभी विदेशी कंपनियां रक्षा क्षेत्र को सामान की आपूर्ति नहीं कर रही है. अभी भी तो वे 100 प्रतिशत अपने देश में बनाया सामान बेच रहे हैं. यदि उनसे कहा गया है कि भारत में ही अपनी फैक्टरियां, उद्योग लगाकर वही सामान भारत में बनाओ, जिसे आप विदेश में बनाकर भारत को बेच रहे हैं तो इसमें क्या कहां देशहित से खिलवाड़ हो रहा है बल्कि यह देश की अर्थव्यस्था के लिए फायदेमंद होने वाला है.
अगले 7-8 वर्षो में भारत के रक्षा क्षेत्र में 250 बिलियन डॉलर निवेश किया जाना है. इसके अलावा, रक्षा मंत्रालय का 1 लाख करोड़ रु पये का बजट भी जो हर साल खर्च होगा. विदेशी कंपनियां भारत में कारखाने लगाकर यहां सामान बनाएंगे तो उससे देश को कई फायदे होने वाले हैं. पहला फायदा-विदेशी धन भारत से जाने के बजाए भारत आएगा. कारखानों में भारतीय लोगों को रोजगार मिलेगा. भारत सरकार को टैक्स मिलेगा. भारत उनसे 30 प्रतिशत सामान रुपये में खरीदेगी.
भारत में रक्षा उद्योग खड़ा होगा और रक्षा क्षेत्र में अनुसंधान होगा जिससे भारतीय सेना को नवीनतम उपकरण और सामग्री मिल सकेगी. अभी विदेशों से आयात करने हम सौ फीसद विदेशी कंपनी का सामान ले रहे हैं. आने वाले समय में ऐसा हो सकता है कि भारतीय कंपनी अपने पांव पर खड़ा होकर सौ फीसद सामान स्वयं बनाए. रक्षा खरीद नीति-2011 में स्वदेशी उत्पादन और खरीद को बढ़ावा देने के लिए नियमों में संशोधन किया गया था. इसी नीति के तहत वैश्विक सामाग्री के बदले भारतीय खरीदो और भारत में बना खरीदो नीति अपनायी गयी. मोदी सरकार ने मेक इन इंडिया नीति अपनाकर उसे और आसान बनाया है.
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