समाज : मुझे मार दो, काट दो पर बोलने दो
देश के एक धांसू चैनल पर एक धांसू एंकर के तत्वावधान में एक धांसू ‘डिबेट’ चल रही है.
समाज : मुझे मार दो, काट दो पर बोलने दो |
‘डिबेट’ शब्द के जो शब्दकोषीय मायने होते होंगे वे होंगे. लेकिन भारतीय समाचार चैनलों में डिबेट के मायने हैं विभिन्न पार्टियों के प्रवक्ताओं या किसी मुद्दा विशेष से परोक्ष या अपरोक्ष सहानुभूतिपरक अथवा घृणापरक संबंध रखने वाले चंद वाचालों का कानफोडू और दिमागतोडू वाक युद्ध-हू-तू-तू-हू-तू-हु यानी ले-तेरे-की, दे-तेरे-की. सुनने वाला माथा पटके या सर झटके. न धांसू एंकर को कोई फर्क पड़ता है और न उस बोलने वाले पर जिसने बोलने का मौका हड़प लिया है.
एंकर इंतजार करता है कि वाक प्रहारों से एक-दूसरे पर झपटते-लड़ते गुत्थमगुत्था हुए रणबांकुरों में से कोई थमे, अपनी बेलगाम जुबान को थोड़ी लगाम दे तो वह भी अपनी बात कहे, अपने एंकरी धंधे को थोड़ा आगे बढ़ाए.
भारत का हर टेलीविजन दर्शक जो समाचार चैनलों में थोड़ी बहुत रुचि रखता है, हर रोज इस तरह के प्रहसनों से दो-चार होता रहता है. बहरहाल, बात हो रही है एक धांसू चैनल पर एक धांसू एंकर के तत्वावधान में चल रही एक धांसू डिबेट की. आप पार्टी का धांसू प्रवक्ता अपने 21 संसदीय सचिवों की नियुक्ति पर जबरदस्त सफाई दे चुका है और दूसरी पार्टियों की नीति-रीति को न अपनाने की कसम खाने वाली अपनी आप पार्टी का सबसे बड़ा तर्क यह प्रस्तुत करता है कि दूसरी पार्टियां भी तो संसदीय सचिवों की नियुक्ति कर चुकी हैं तो उस पर कोई क्यों नहीं बोलता? जब भाजपा का धांसू प्रवक्ता अपना पक्ष रखने की कोशिश करता है तो आप का धांसू प्रवक्ता फिर उस पर चढ़ बैठता है और भाजपा का प्रवक्ता हाथ जोड़कर रिरियाने की नाटकीय मुद्रा में कहता है-मुझे मार दो, मुझे काट दो पर मुझे बोलने दो.
जब वह बार-बार ‘मुझे मार दो, मुझे काट दो’ कहता है तो कथित डिबेट का समूचा परिदृश्य ‘कॉमेडी लाइव’ में बदल जाता है. समझने वाले समझ जाते हैं कि यह प्रवक्ता अरविंद केजरीवाल के तकियाकलाम ‘मुझे मार दो, मुझे काट दो पर मुझे काम करने दो’ को ले उड़ा है. इस तकियाकलाम की हवा निकालकर पिचका हुआ गुब्बारा आप की ओर फेंक रहा है. बाकी लोग भी बोलते हैं पर कोई किसी की नहीं सुनता. धांसू डिबेट जहां से शुरू हुई थी, वहीं खत्म भी हो जाती है. दर्शक पूरी बेचारगी के साथ यह तय कर रहा होता है कि आखिर उसने सुना है तो क्या सुना है और समझा है तो क्या समझा है.
एक अन्य चैनल पर फिर एक बहस हो रही है और बहस के मुख्य पात्र यहां भी केंद्र में सत्तारूढ़ भाजपा और दिल्ली में सत्तारूढ़ आप के परम विद्वान प्रवक्तागण हैं जो हर विषय के बारे में हर चीज जानते हैं मगर मानते किसी की नहीं. यहां डिबेट की पृष्ठभूमि है एनडीएमसी के विधि अधिकारी की हत्या. दिल्ली के मुख्यमंत्री ने कह दिया है कि अधिकारी की हत्या में भाजपा सांसद का हाथ है, इसलिए उन्हें गिरफ्तार किया जाये और उनसे पूछताछ की जाए. इस पर अपनी तिलमिलाहट दिखाते हुए सांसद महोदय मुख्यमंत्री के घर के निकट आसन बिछाकर ‘आमरण’ अनशन पर बैठ जाते हैं. इसके जवाब में मुख्यमंत्री जी पूछते हैं कि क्या यही भाजपा का क्रिमिनल जस्टिस सिस्टम हैं? यही मैसेज है बीजेपी का कि कोई भी देश में हत्या करे तो उससे केजरीवाल के घर के सामने धरना करा दे और बीजेपी के बड़े-बड़े नेता पहुंच जाएंगे उसको सपोर्ट करने.
उधर, सांसद महोदय कहते हैं कि उनके पास सबूत हैं तो पुलिस को दिखाएं, अदालत को दिखाएं, जनता को दिखाएं. अगर आरोप सिद्ध होते हैं तो मैं राजनीति से संन्यास ले लूंगा, अपने आपको पुलिस के हवाले कर दूंगा. आप ऐसा नहीं कर सकते कि किसी पर भी आरोप लगा दें और भाग खड़े हों. अब आइए ‘विचारोत्तेजक’ बहस पर. एंकर आप के प्रवक्ता की ओर मुखातिब होकर कहता है कि आप एक सांसद पर हत्या जैसा गंभीर आरोप लगा रहे हैं तो आपके पास इस आरोप का सबूत क्या है? आप का प्रवक्ता युयुत्स मुद्रा में कहता है कि आरोप बिल्कुल सही हैं. सांसद ने हत्यारोपी के लिए चिट्ठी लिखी थी.
एंकर-इससे यह कैसे सिद्ध होता है कि सांसद हत्या में शामिल हैं? वह चिट्ठी कहां है, जो सांसद ने हत्यारोपी के लिए लिखी थी? आपके पास सबूत क्या हैं? आप प्रवक्ता-सबूत तलाशना पुलिस का काम है. दिल्ली पुलिस आपके पास है. सीबीआई आपके पास है. ईडी आपके पास है..उनसे कहिए सबूत तलाशें और सांसद को गिरफ्तार करें. एंकर-तो इसका मतलब है कि आपके पास कोई ठोस सबूत नहीं है..भाजपा प्रवक्ता-इनका काम ही ये रह गया है कि किसी पर भी आरोप लगा दो और बिना सबूत दिए भाग लो. लेकिन इस बार ऐसा नहीं होने देंगे. इन्हें सबूत देने होंगे या माफी मांगनी होगी. इसके बाद पूरा दृश्य हू-तू-तू में बदल जाता है.
बेचारा दर्शक कुछ नहीं समझ पाता कि हत्या जैसा गंभीर आरोप आखिर किन प्रमाणों के आधार पर लगाया गया है. कोई तो ऐसा ठोस साक्ष्य होना चाहिए जिससे दर्शक को लगे कि आप के आरोप में कुछ-कुछ सच जैसा है. उधर, एक अन्य चैनल पर एक भाजपा समर्थक का चेहरा झांक रहा है, वह अपनी बाइट दे रहा है.. केजरीवाल पागल हो गया है, उसका दिमाग खराब हो गया है उसे इलाज के लिए किसी पागलखाने में भिजवा दिया जाना चाहिए..आदि-आदि.
चैनल एक मुख्यमंत्री के लिए बोले जा रहे इन शब्दों को सेंसर करने की जरूरत नहीं समझता. उधर, एक शालीन प्रवक्ता कहता है कि आप अपने मूल उद्देश्य से भटक गई है तो आप प्रवक्ता ढिठाई से जवाब देता है कि इसका फैसला तो चुनाव जिताकर जनता करेगी.
मानो जो दूसरे दल चुनाव में जीतकर आते हैं, उनका फैसला जनता नहीं कोई और करता हो. खैर, खबरिया चैनल जो डिबेट कराते हैं, उसमें बहस का मुद्दा नहीं बल्कि टीआरपी प्रमुख होती है. कोई फर्क नहीं पड़ता कि क्या बोला जा रहा है, क्यों बोला जा रहा है. पर हैरानी होती है कि ऊपर से बेहद तड़कीले, हठीले, अकड़ीले दिखने वाले आप के लोग भीतर से इतने ललुआ हैं कि समझ ही नहीं पा रहे कि भाजपा सहित अन्य दलों ने कितने शातिराना ढंग से उन्हें कहां पहुंचा दिया है? वे दूसरों को नई राजनीति का पाठ पढ़ाने निकले थे लेकिन दूसरों ने उन्हें अपनी राजनीति की रपटीली जमीन पर खींच लिया है. अब नई राजनीति के नाम पर वे सिर्फ कीचड़ उछालते रहेंगे और अपने ऊपर फेंकी गई कीचड़ को साफ करते रहेंगे.
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