परत-दर-परत : उन्नति की ओर या गुनाह बेलज्जत

Last Updated 26 Jun 2016 04:56:34 AM IST

रक्षा, बीमा, पेंशन, खाद्य प्रसंस्करण, मल्टी ब्रांड, विमानन, दवा, ई कॉमर्स इत्यादि अनेक क्षेत्रों में एफडीआई के लिए दरवाजा खोलते हुए प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी ने घोषणा की कि विदेशी प्रत्यक्ष निवेश की दृष्टि से अब हम दुनिया में सब से ज्यादा खुले देश हैं.


राजकिशोर

मैं नहीं समझता कि यह गर्व की बात है. सवाल सिर्फ  खुले होने या अवरु द्ध होने का नहीं है, मामला यह है कि इसका हमारे कुल उत्पादन, रोजगार और सामाजिक संतुलन आदि पर क्या प्रभाव करेगा? जिसे हम उन्नति समझ रहे हैं, कहीं वह गुनाह बेलज्जत तो साबित होने नहीं जा रहा है.

चीन हम से कम खुला है, फिर भी वह हमारी तुलना में बड़ी तेजी से आर्थिक विकास कर रहा है, तो इसका कारण यह है कि उसने अपने औद्योगिक विकास का एक चरण पूरा कर लिया है और अब वह इस स्थिति में है कि उसके ब्रांड दुनिया भर के बड़े ब्रांडों से मुकाबला कर सकें.

इसके अलावा उसने दूसरी भूमिका चुनी है अपनी जमीन, अपने देश के श्रमिक और अपना इंफ्रास्ट्रक्चर किराए पर देने की. दुनिया की बड़ी-बड़ी कंपनियां चीन की जमीन पर अपने कारखाने खड़ी कर रही हैं, वहां की सरकार को राजस्व और वहां के लोगों को रोजगार दे रही हैं. ताइवान, कोरिया आदि का भी यही हाल है. वियतनाम इस मामले में पिछड़ गया है, क्योंकि वह अभी भी कृषि प्रधान देश है और औद्योगिक विकास के लिए उसमें कोई बेचैनी नहीं है. यह कहना ज्यादा उचित होगा कि वियतनाम, ताइवान, कोरिया आदि की राह पर चल कर अपने को किसी का पिछलग्गू देश नहीं बनाना चाहता. हम भी अपने बारे में ऐसा ही सोचते थे, लेकिन आर्थिक विकास की हमारी रणनीति विफल हो जाने के बाद हम ने विकास की कोई वैकल्पिक रणनीति नहीं बनाई.

हम अपनी गलतियों से सीख सकते थे और से देश का पुनर्निर्माण कर सकते थे. वह समय राष्ट्रीय मंथन का समय हो सकता था. लेकिन विभिन्न सरकारों ने भारत की जनता को विश्वास में नहीं ले कर अपने स्तर पर एक ऐसी अर्थनीति का फंदा बुनना स्वीकार कर लिया, जिसकी परिणति आज हम इस रूप में देख रहे हैं कि हमने लगभग पूरी अर्थव्यवस्था को प्रत्यक्ष विदेशी निवेश के लिए खोल दिया है. खोलने की नई नीतियों की घोषणा करने के पहले हमें विचार करना चाहिए था कि जिन क्षेत्रों में हमने अपनी अर्थव्यवस्था पहले से ही खोल  रखी है, उनमें विदेशी प्रत्यक्ष निवेश की कितनी प्रगति हुई है. वहां प्रगति बहुत निराशाजनक है. एशिया में चीन और पाकिस्तान हम से आगे हैं. हमारे पास विदेशी निवेशक को देने के लिए कुछ भी नहीं है, सिवाय स्टॉक एक्सचेंज के, जहां विदेश से वित्त के आवक की कमी नहीं है, क्योंकि मुनाफा न होने का कोई जोखिम  नहीं है.

मूल प्रश्न यह है कि भारत का उद्धार विदेशी पूंजी से होगा या स्वदेशी उद्योग-धंधों से. चूंकि भारत के आंतरिक वातावरण को इस योग्य बनाया नहीं गया है कि यहां के लोग खुशहाल जीवन जिएं, और अब भी इस बारे में सोचा नहीं जा रहा है, इसलिए विदेशी निवेश से बहुत ज्यादा उम्मीद की जा रही है. वस्तुत: आधुनिक टेक्नोलॉजी में यह क्षमता नहीं है कि वह सभी लोगों को रोजगार दे सके. उन्नत टेक्नोलॉजी पर आधारित व्यवस्थाएं अब बाजार का विस्तार भी नहीं कर पा रही हैं, जिसकी अभिव्यक्ति वहां के आर्थिक संकट में दिखाई पड़ रही है. हमारा आर्थिक संकट उनसे ज्यादा गंभीर है, क्योंकि उनकी समस्या अपनी संपन्नता को बनाए रखने की है और हमारी समस्या यह है कि हम अपनी विशाल आबादी में न्यूनतम खुशहाली कैसे ला सकें. जहां तक भारत में एक बहुत बड़ा बाजार मौजूद होने की रोज दुहराई जाने वाली बात का सवाल है, इससे बड़ी कोई और गलतफहमी हो नहीं सकती.

भारतीय मध्य वर्ग की आबादी कभी 30 करोड़ बताई जाती है कभी 20 करोड़. लेकिन इनके आय-वर्ग या क्रय क्षमता के बारे में कोई आंकड़े पेश नहीं किए जाते. हमारे देश में वह परिवार भी मध्य वर्ग में गिना जाएगा जो साल में एक बार बाहर खाता है और वह परिवार भी जिसके पास एक टूटी-फूटी साइकिल है. अगर भारतीय मध्य वर्ग की क्रय क्षमता पर्याप्त होती, तो हमारे उद्योग-धंधे पस्ती की हालत में नहीं होते. विनिर्माण क्षेत्र पिछड़ रहा है और बैंकिंग क्षेत्र आगे बढ़ रहा है. वित्तीय क्षेत्र और विनिर्माण क्षेत्र, दोनों के बीच सामंजस्य न होने के कारण ही हमारे देश में वह स्थिति आई है जिसमें बैंकों का खरबों रुपया ऐसे उद्योगपतियों के चंगुल में हैं जो इस ऋण को चुकाने की हालत में नहीं है.

प्रधानमंत्री का नारा है, मेक इन इंडिया. लेकिन वे यह आह्वान नहीं करते कि भारत वालों, अपनी जरूरत की सभी चीजें खुद बनाओ, बल्कि विदेशी निवेशकों को गुहार लगाते हैं कि भारत में अपनी पूंजी लगाओ और इंडिया में ही मेक करो. वे इंडिया में क्यों मेक करेंगे? वे वहां जाएंगे जहां आर्थिक रूप से उन्हें फायदा होगा. हां, बीमा, पेंशन आदि क्षेत्रों में विदेशी निवेश आएगा, जहां पैसे से पैसा बनाया जाता है. वास्तव में, हमें ऐसी टेक्नोलॉजी चाहिए जिसमें पूंजी कम लगे और रोजगार ज्यादा पैदा हो. नहीं तो भारत आज की तरह ही गरीबी के महासागर में छोटे-छोटे ज्योतित द्वीपों का देश बना रहेगा.



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