स्वास्थ्य नहीं, निवेश और बाजार की चिंता

Last Updated 26 Jun 2016 04:47:13 AM IST

कहते हैं कि पढ़ाई, दवाई और लड़ाई, तीनों ही हमेशा मुफ्त होने चाहिए. लड़ाई से यहां मतलब न्याय से है.


स्वास्थ्य नहीं, निवेश और बाजार की चिंता

समस्या यह है कि तीनों के लिए ही आज सामान्य जनता को भारी कीमत चुकानी पड़ती है. बहरहाल, इन तीनों में से दूसरी यानी कि दवाई जीवन के लिए अत्यावश्यक है. शेष दोनों नहीं मिलने पर आदमी जीवन तो चला ही लेता है, परंतु समय पर दवा न मिले तो असमय मृत्यु भी संभव है. इसलिए स्वाधीनता के बाद से ही सरकारों का ध्यान इस ओर रहा है कि आम लोगों को स्वास्थ्य सुविधाएं नि:शुल्क मिल सकें. लेकिन स्वाधीनता के 68 वर्ष बाद भी यह संभव नहीं हो पाया है.

पिछले दिनों सरकार ने फार्मा क्षेत्र में स्वत: मंजूरी माध्यम से 74 प्रतिशत और मंजूरी माध्यम से 100 प्रतिशत प्रत्यक्ष विदेशी निवेश को स्वीकृति दी है. इससे पहले दिसम्बर, 2014 में ही सरकार ने स्वास्थ्य उपकरणों के क्षेत्र में भी स्वत: मंजूरी मार्ग से 100 प्रतिशत विदेशी निवेश की अनुमति दी थी. देखा जाए तो इस मामले में मोदी सरकार ने ऐसा कोई नया निर्णय नहीं लिया है, केवल पुराने निर्णय को दोहरा दिया है. सवाल उठता है कि क्या इससे देश की स्वास्थ्य सेवाओं में कुछ सुधार आने की आशा की जा सकती है?

हम एक नजर भारत के स्वास्थ्य सेवा क्षेत्र पर डालें तो पाते हैं कि बड़े पैमाने पर सुधार किए जाने की आवश्यकता है. केवल प्राथमिक चिकित्सा केंद्रों की बात करें तो सबसे पहले इनकी संख्या ही अपर्याप्त है. जो हैं भी, वे अव्यवस्था और चिकित्सकों तथा अन्य विशेषज्ञों के अभाव के शिकार हैं. कुल 25020 प्राथमिक स्वास्थ्य केंद्रों में से 903 केंद्र डाक्टरविहीन हैं, और 14873 केंद्रों में केवल एक ही डाक्टर उपलब्ध है. 7676 केंद्रों में लैब तकनीशियन नहीं हैं, तो 5549 केंद्रों में फार्मास्यूटिकल नहीं है. केवल 5438 केंद्रों में महिला डाक्टर उपलब्ध हैं. दूसरी ओर, सामुदायिक स्वास्थ्य केंद्रों में विशेषज्ञ डाक्टरों की संख्या और भी दयनीय है. आवश्यकता है 19332 विशेषज्ञों की जबकि सरकार केवल 9914 की ही व्यवस्था कर पाई है, और उनमें से भी 5858 ही कार्यरत हैं. यही कारण है कि देश में निजी अस्पतालों की बाढ़ आ गई है. निजी अस्पताल मंहगे तो हैं ही, ग्रामीण इलाकों में इनकी गुणवत्ता भी संदेह के घेरे में रहती है. अधिकांशत: क्षेत्रों में ऐसे अस्पतालों में अटैचीछाप डॉक्टर ही बैठा करते हैं.

बड़े निवेश की जरूरत
समझा जाता है कि देश में इस समय स्वास्थ्य का बाजार सौ अरब डॉलर का है, जो 2020 तक बढ़ कर 280 अरब डॉलर हो जाएगा. इसकी वार्षिक विकास दर 22 प्रतिशत के करीब है. मोटे अनुमान के अनुसार भविष्य में देश के अस्पतालों में छह से सात लाख अतिरिक्त बिस्तरों की जरूरत है. इसे पूरा करने के लिए पच्चीस से तीस अरब डॉलर का निवेश करना होगा. निजी क्षेत्र स्वास्थ्य-सेवा में भारी मुनाफे को देखते हुए निवेश को तैयार है. यही कारण है कि भारत के स्वास्थ्य क्षेत्र में 2000 से 2015 तक प्रत्यक्ष विदेशी निवेश के तौर पर 3.4 अरब डॉलर की पूंजी आई.

हालांकि अपने देश में स्वास्थ्य सेवाएं बनिस्बत सस्ती हैं, और इस कारण भी विदेशी निवेश बढ़ रहा है. अमेरिका व यूरोप में स्वास्थ्य सेवाएं काफी मंहगी हैं, और बड़ी संख्या में वहां से मरीज इलाज के लिए भारत आने लगे हैं. इसे स्वास्थ्य पर्यटन का नाम दिया जा रहा है. स्वाभाविक-सी बात है कि विदेशी यहां इलाज के लिए आएंगे तो वे यहां स्वास्थ्य सेवाओं में निवेश भी करना चाहेंगे.

बहरहाल, स्थिति इतनी बुरी भी नहीं है, जितनी दिखाई देती है. समझने की बात यह है कि अपने देश में दो व्यवस्थाएं हमेशा चलती हैं. एक व्यवस्था वह है जो सरकारें चलाती हैं, और वह जो समाज चलाता है. भारत के संदर्भ में समाज सरकारों से अधिक मजबूत रहा है, और इसलिए वर्तमान व्यवस्था में सरकार द्वारा सभी क्षेत्रों में पूरा नियंत्रण करने के बाद भी समाज-संचालित व्यवस्थाएं भी बड़े पैमाने पर चल रही हैं. स्वास्थ्य क्षेत्र की अगर बात करें तो बड़ी संख्या में आयुर्वेद, प्राकृतिक चिकित्सा और योग के केंद्र चलते हैं, जो अंतत: स्वास्थ्य सेवा ही प्रदान करते हैं.

एलोपैथ कम सक्षम 
स्पष्ट हो गया है कि देश को स्वस्थ रखना है तो एलोपैथ इसके लिए सक्षम नहीं है. वह फौरी इलाज तो दे सकता है, कुछेक मामलों में विशेषकर शल्य चिकित्सा के मामले में कुछ उपलब्धियां भी प्राप्त कर सकता है, परंतु जहां तक स्वस्थ बनाने और स्वास्थ्य के संरक्षण की बात है, तो उसकी भूमिका शून्य ही है. हमें परंपरागत चिकित्सा प्रणालियों आयुर्वेद, प्राकृतिक चिकित्सा और योग की शरण में ही जाना पड़ता है.

हमें ध्यान रखना चाहिए कि आज की अधिकांश प्रमुख बीमारियां केवल और केवल जीवनशैली के बिगड़ने से पैदा हो रही हैं. मधुमेह, हृदय रोग, उच्च रक्तचाप, अवसाद आदि को छोड़ भी दें तो कैंसर, एड्स, किडनी तथा लीवर से संबंधित बीमारियां केवल और केवल खराब आहार-विहार के कारण पैदा हो रही हैं. रासायनिक कृषि उत्पादों, फसल चक्रविहीन खेती आदि के कारण अनाज और सब्जियां आदि हमें पर्याप्त पोषण देने में असमर्थ साबित हो रही हैं. ऐसे में स्वास्थ्य सेवाओं के बाजार को फैलने से कौन रोक सकता है?

रविशंकर
नीति मामलों के जानकार


Post You May Like..!!

Latest News

Entertainment