आपातकाल : एक और इमर्जेंसी का अंदेशा
इकतालीस बरस पूरे होने पर इमर्जेंसी का शायद ही कहीं जिक्र सुनायी दे रहा है. कांग्रेस का उसके जिक्र से भागना स्वाभाविक है.
आपातकाल : एक और इमर्जेंसी का अंदेशा |
लेकिन, सत्ताधारी भाजपा भी, इमर्जेंसी की चर्चा के बहाने अपनी मुख्य विरोधी कांग्रेस को कटघरे में खड़ा करने के लालच से बचती ही नजर आ रही है. बेशक, यह कम से कम भूल में पड़ जाने का मामला नहीं है. 10 मई को ही भाजपा के संसदीय ग्रुप की बैठक में प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी ने न सिर्फ इमर्जेंसी की 41वीं सालगिरह आ रही होने का जिक्र किया था बल्कि युवा पीढ़ी को इमर्जेंसी की याद दिलाने की जरूरत पर भी जोर दिया था. लेकिन, यह सब वास्तव में मोदी सरकार के दो साल पूरे होने पर, खासतौर पर केंद्र सरकार के मंत्रियों तथा भाजपा सांसदों द्वारा छेड़े जा रहे इस सरकार की उपलब्धियों के प्रचार के पूरे महीने भर के अभियान का हिस्सा भर होना था. देश के दो सौ महत्त्वपूर्ण केंद्रों से जनता को उपलब्धियां बताने के इस अभियान के समापन के दिन, 26 जून को ही इमर्जेंसी का जिक्र करने की खाना-पूरी की जानी थी और बेक की जाएगी.
लालकृष्ण आडवाणी भी इस बार चुप-चुप हैं. पिछले साल, इमर्जेंसी की 40 वीं सालगिरह की पूर्व-संध्या में उन्होंने यह कहकर सनसनी पैदा कर दी थी कि न सिर्फ इमर्जेंसी के दौरान नागरिक अधिकारों का जिस तरह का दमन हुआ था, उसे अब भी दोहराया जा सकता है बल्कि जनतंत्र को दबाने वाली ताकतें पहले से मजबूत ही हुई हैं. उस समय इसे ज्यादातर लोगों ने नरेन्द्र मोदी की सरकार के तानाशाहाना मिजाज़ की ओर ही इशारा माना था.
हालांकि बाद में आडवाणी ने यह कहकर सफाई भी दी थी कि उनका किसी खास सरकार की ओर इशारा नहीं था. इसे विडंबना ही कहा जाएगा कि बुजुर्ग भाजपा नेता भी अब इस मुद्दे पर चुप हैं, जबकि पिछले एक बरस के घटनाक्रम ने इमर्जेंसी की वापसी उनकी आगही को सच ही साबित किया है. 1975 में इंदिरा गांधी द्वारा जिस रूप में लादा गया था, उस रूप में न सही, फिर भी जनतंत्र तथा नागरिक अधिकारों के कतरे जाने के लिहाज से इमर्जेंसी अब भी संभावना है.
इंदिरा गांधी-संजय गांधी के इमर्जेंसी निजाम की पहचान सबसे बढ़कर, राजनीतिक नेताओं की गिरफ्तारियों, प्रेस पर पाबंदियों तथा नागरिक स्वतंत्रताओं के औपचारिक रूप से स्थगित किए जाने से होती है. बेशक, वैसी नाटकीय घोषणाएं कहीं नहीं हैं. लेकिन, इस सबके पीछे असली प्रयास तो असहमति तथा विरोध की आवाजों को दबाने का ही था. कार्यपालिका और उसमें भी प्रधानमंत्री कार्यालय को छोड़कर सभी संस्थाओं का बौना किया जाना, इस का महत्त्वपूर्ण हथियार था. इस प्रयास के लक्षण आज भी पर्याप्त रूप से मौजूद हैं. हां! विरोध की आवाजों को दबाने के लिए आज सरकार से आगे बढ़कर, उसका संरक्षणप्राप्त हिंदुत्ववादी संगठनों की एक और ही एजेंसी अति-सक्रिय भी है और आक्रामक भी. यह ऐसी एजेंसी है, जिसके तार सीधे सत्ताधारी पार्टी और मौजूदा सरकार के साथ जुड़े हुए हैं.
एक ओर तर्कवादी और इस लिहाज से हिंदुत्ववादी पोंगापंथ के विरोधी दाभोलकर, पानसरे तथा कलबुर्गी की आतंकवादी शैली की हत्याएं और दूसरी ओर, गोमांस खाने के नाम पर अखलाक की भीड़ जुटाकर पीट-पीटकर हत्या, विरोध की आवाजों के कुचले जाने के ही अतिवादी उदाहरण थे. इसी तरह के वातावरण में एक प्रसिद्ध तमिल लेखक अपनी ‘लेखकीय मौत’ का एलान करने पर मजबूर हो गया. और जब इस बढ़ती असहिष्णुता के खिलाफ देश के जाने-माने लेखकों, कलाकारों, संस्कृतिकर्मियों ने ‘पुरस्कार वापसी’ के बहुत ही नैतिक तरीके से अपनी आवाज उठायी, इस नैतिक आवाज को दबाने के लिए उस तथाकथित ‘हाशिए’ को झोंक दिया गया, जिसके साथ शासन और सत्ताधारी दल जुड़े हुए हैं.
कुछ ऐसा ही उच्च शिक्षा संस्थाओं और खासतौर पर ऐसे विश्वविद्यालयों के मामले में हुआ है, जहां केंद्र में मोदी सरकार आने के बावजूद, हिंदुत्ववाद का बोलबाला कायम नहीं हो सका है. पुणो फिल्म तथा टेलीविजन इंस्टीट्यूट समेत शासन द्वारा संचालित तमाम उच्च शिक्षा संस्थाओं में मनचाही नियुक्तियों-पदमुक्तियों तथा आइआइटी छात्रावासों के भोजनालयों के शाकाहारीकरण की कोशिश के बाद, आइआइटी चेन्नै के आंबेडकर-पेरियार स्टडी सर्किल के खिलाफ केंद्रीय शिक्षा मंत्रालय के इशारे पर कार्रवाई से, विरोध के स्वरों के कुचले जाने की मुहिम ही छिड़ गयी. अगली मंजिल पर हैदाराबाद केंद्रीय विश्वविद्यालय में अम्बेडकरवादी-वामपंथी छात्र आंदोलन को निशाना बनाया गया, जिसकी परिणति दलित शोध छात्र रोहित वेमुला के आत्महत्या करने के लिए मजबूर हो जाने में हुई. इसके फौरन बाद घोषित रूप से वामपंथी जेएनयू का नंबर लग गया. अब इस मुहिम ने बाकायदा सड़कों पर हमलावर हिंदुत्ववादी गोलबंदी और छात्र नेताओं पर शारीरिक हमलों का भी रूप ले लिया. वह सब ‘राष्ट्रवाद’ के नाम पर. स्मृति ईरानी की देख-रेख में तैयार की गयी नयी शिक्षा नीति में तो अब बाकायदा उच्च शिक्षा संस्थाओं को ‘राजनीति-मुक्त’ कराने का ही इंतजाम किया जा रहा है. किसी से छुपा हुआ नहीं है कि सत्ता किसी की भी हो, आलोचना के स्वर पहले शिक्षा तथा संस्कृति के इन्हीं ठिकानों से उठते हैं और राजनीतिक विरोध तक पहुंचते हैं. मीडिया और खासतौर पर इलेक्ट्रोनिक मीडिया पर बढ़ते नियंत्रण के जरिए अब, बिना मीडिया पर पाबंदी लगाए जनता को काफी हद तक मूक बनाया जा सकता है.
इमर्जेंसी में कांग्रेसियों ने नारा दिया था : ‘इंदिरा इज़ इंडिया, इंडिया इज़ इंदिरा.’ सत्तासीन नेता की इस पूजा को उसके तानाशाह होने का ही लक्षण कहा जाता था. अब मोदी को बार-बार ‘भारत के लिए ईश्वर का उपहार’ बताए जाने को, किस का लक्षण कहा जाएगा!
(लेखक भाजपा के राज्यसभा सांसद हैं)
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