प्रत्यक्ष विदेशी निवेश : व्यावहारिकता के दबाव

Last Updated 25 Jun 2016 05:59:28 AM IST

इंटरनेट बहुत खतरनाक है. जिस दिन प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी विदेशी निवेश के संबंध में उपलब्धियां बता रहे थे, कि भारत पूरी दुनिया में विदेशी निवेश आकर्षित करने के मामले में सबसे खुला राष्ट्र है, उसी दिन उनके पुराने ट्वीट उनके विरोधी खोज कर ला रहे थे.


प्रत्यक्ष विदेशी निवेश : व्यावहारिकता के दबाव

इन ट्वीटों में मोदी विदेशी निवेश के प्रति सद्भाव नहीं विरोध का भाव दिखा रहे थे. कई ट्वीटों में अब के वित्त मंत्री अरुण जेटली विदेशी निवेश के प्रति नकारात्मक रवैया अपनाते दिख रहे हैं. पर अब विदेशी निवेश को खुला आमंतण्रबतौर उपलब्धि प्रचारित किया जा रहा है. यह कांग्रेस के लिए दिल जलाने की बात है, जिसने विदेशी निवेश को खुलकर आमंत्रित करना शुरू किया था नरसिंहराव के जमाने में. वो कोई सोचा-समझा  फैसला नहीं था. मजबूरी का नाम विदेशी निवेश जैसा मामला था 1991 के दौर में. जब कर्ज चुकाने के लिए डॉलर न हों तो फिर विदेशी निवेश का हाथ जोड़कर स्वागत करना पड़ता है.  नरसिंहराव ने बतौर प्रधानमंत्री और तत्कालीन वित्त मंत्री मनमोहन सिंह ने यह सब किया.

पीएम मोदी ने हाल में ट्वीट करके जानकारी दी कि भारत पूरी दुनिया में विदेशी निवेश की सबसे पसंदीदा मंजिल बन गया है. 2015-16 में भारत में अब तक का सबसे ज्यादा प्रत्यक्ष विदेशी निवेश  यानी 55.56 अरब डॉलर की रकम बतौर प्रत्यक्ष विदेशी निवेश आई  है. वक्त का पहिया घूम रहा है, जैसी बातें एक जमाने में विपक्षी पार्टी भाजपा करती थी, वैसी बातें अब कांग्रेस से  उठ रही हैं. भाजपा जिस राजनीतिक विचारधारा से संबद्ध है, उस राजनीतिक विचारधारा के परिवार राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ से जुड़े एक संगठन स्वदेशी जागरण मंच ने लगातार विदेशी निवेश को आमंत्रित करने के मसले पर दिखाई गई उदारता का विरोध किया है. पर विदेशी निवेश को आसान बनाने के लगातार प्रयास चल रहे हैं.

हाल में सिंगल ब्रांड रिटेल, उड्डयन, पशुपालन, सुरक्षा सेवाओं, ई-कॉमर्स सेवाओं में विदेशी निवेश को उदार बनाया गया है. साथ में विदेशी निवेश से जुड़ी तमाम शतरे में रियायतों की घोषणाएं हुई हैं. सरकार विदेशी निवेश हासिल करने की इच्छुक ही नहीं प्रतिबद्ध और आमादा दिखाई दे रही है. यह अंदाज भाजपा के उस मूल वैचारिक तेवर से मेल नहीं खाते थे, जिसके तहत भाजपा घरेलू उद्योगपतियों, घरेलू कारोबारियों को बचाने के लिए हमेशा प्रतिबद्ध दिखाई पड़ती थी, और भाजपा का दूर का सहयोगी संगठन स्वदेशी जागरण मंच तो विदेशी निवेश का घनघोर विरोधी रहा है. यह वैचारिक गड्डमगड दिख रही है, पर है नहीं.

व्यावहारिकताएं
बरसों पहले एनडीए सरकार में एक नेता जॉर्ज  फर्नाडिस ने एक भाषण देते वक्त बताया कि वामपंथी हमारी विदेशी निवेश को आकर्षित करने की नीति की आलोचना करते हैं, पर देखिए एक अखबार का एक इश्तिहार जिसमें तत्कालीन वामपंथी सरकार प. बंगाल में विदेशी निवेश आमंत्रित करने की जुगत करती दिखाई देती है. विदेशी निवेश आये बहुत आये लगातार आये ऐसा हर राज्य सरकार चाहती है, ऐसा केंद्र सरकार चाहती है. क्योंकि विदेशी निवेश जब आता है, तब रोजगार भी आते हैं.  चीन इस बात को भारत से बहुत पहले समझ चुका है. भारत की वामपंथी राजनीति चीन से वैचारिक ऊष्मा हासिल करती है. उस चीन और उसके इलाके हांगकांग में 2015 में कुल 310 अरब डॉलर का विदेशी निवेश आया. पीएम मोदी करीब 56 अरब डॉलर पर  बहुत खुश हैं. चीन-हांगकांग इससे पांच गुने से ज्यादा लेकर आए हैं बतौर प्रत्यक्ष विदेशी निवेश. भारत के मुकाबले चीन में कुल प्रत्यक्ष विदेशी निवेश दस गुना ज्यादा हुआ है. विदेशी निवेश का रोजगार में गहरा रोल है चीन ने इस बात को बहुत पहले समझा है.

विदेशी निवेश से एकाध मामलों में तकनीक भी आ जाती है. अब तकनीक का मसला इतना महत्वपूर्ण नहीं रहा है. भारतीय कंपनियां तकनीक के मामले में आत्मनिर्भर हैं. किसी जमाने में हीरो होंडा के कालोबोरेशन में भारतीय हीरो समूह मार्केटिंग की समझ रखता था, और होंडा कंपनी तकनीक लेकर आती थी. अब ऐसा नहीं है, हीरो समूह तकनीक के मामले में भी आत्मनिर्भर है, और अपने टू व्हीलर अपने बूते बना रहा है. पर रोजगार तो आ ही रहा है विदेशी निवेश से ऐसा मानने में कोई हर्ज नहीं है. होंडा मोटर्स अगर अपने  प्लांट इंडिया में चला रही है, तो उससे हमारे बंदों को रोजगार मिल रहा है. रोजगार अब बहुत बहुत बड़ा मसला है.

गौर से देखें राजस्थान में गुर्जर आरक्षण आंदोलन, गुजरात में पाटीदार आरक्षण आंदोलन, हरियाणा में जाट आरक्षण आंदोलन मूलत: नौकरियों और सफेद कॉलर नौकरियों के लिए किए जाने वाले आंदोलन हैं. रोजगार अगर व्यापक तौर पर उपलब्ध नहीं हुए तो कोई भी सरकार चुनावों में जाकर अपने चेहरा नहीं दिखा सकती. 2017 चुनाव का साल है देश की संसद में सबसे ज्यादा सांसद भेजने वाले राज्य उत्तर प्रदेश में  2017 में विधान सभा चुनाव हैं. 
भाजपा से सवाल पूछे जाएंगे-मोदी ने जो वादे किए थे रोजगार देने के वो क्या हुए. कितने रोजगार आए. रोजगार तब ही आएंगे, जब उद्योग लगेंगे, उद्योग अगर देशी उद्योगपति नहीं लगा रहे हैं, तो मौका विदेशी उद्योगपतियों को मिलना चाहिए. रोजगार देशी कंपनी ने दिया, या विदेशी कंपनी ने दिया, यह सवाल महत्वपूर्ण नहीं है, महत्वपूर्ण यह है कि रोजगार आना चाहिए. यह  मूलत: आर्थिक नहीं, राजनीतिक समझ है.

विदेशी निवेश के कारोबार
विदेशी निवेश के आंकड़ों का अध्ययन करें, तो कुछ चिंतनीय बातें साफ होती हैं, एक चिंता तो यह है कि वह जिन उद्योगों में जा रहा है, उनमें रोजगार पैदा करने की कितनी संभावनाएं हैं, दूसरी चिंता यह है कि वह चुनिंदा राज्यों में ही जाकर क्षेत्रीय असंतुलन तो पैदा नहीं कर रहा है. उत्तर भारत के राज्य क्यों विदेशी निवेश की बारिश में सूखे के सूखे रह जा रहे हैं. दक्षिण और पश्चिम के राज्यों में विदेशी निवेश जम कर बरस रहा है. आर्थिक सर्वेक्षण 2015-16 वोल्यूम टू में एक टेबल बताती है कि अप्रैल-नवम्बर, 2015-16 के दौरान आए प्रत्यक्ष विदेशी निवेश का 16.6 प्रतिशत सेवा क्षेत्र में आया जैसे वित्तीय सेवाएं आदि. 17.8 प्रतिशत कंप्यूटर सॉफ्टवेयर और हार्डवेयर के क्षेत्र में आया.10.5  प्रतिशत ट्रेडिंग के क्षेत्र में आया.

ऑटोमोबाइल में 6.7 प्रतिशत आया और टेलीकम्यूनिकेशन निर्माण में 4.3 प्रतिशत आया. विदेशी निवेश उन क्षेत्रों में आना चाहिए, जहां कम शिक्षित वर्ग को रोजगार देने की संभावनाएं हों. नोकिया ने तमिलनाडु में अपनी मोबाइल फैक्टरी में यह प्रयोग किया था-कम शिक्षित महिलाओं को न्यूनतम ट्रेनिंग देकर नोकिया ने कई ऐसी महिलाओं को रोजगार दिया था. भारत को ऐसा रोजगार चाहिए. कम पढ़ी लिखी महिलाओं को भी प्लांट फैक्टरियों में रोजगार मिल सके. ऐसा रोजगार टू व्हीलर फोर व्हीलर, मोबाइल फैक्टरियों में मिल सकता है. यही रोजगार ‘मेक इन इंडिया’ को कामयाब बना सकता है. सॉफ्टवेयर और वित्तीय सेवाओं में प्रत्यक्ष विदेशी निवेश से पढ़े-लिखे वर्ग को रोजगार मिलेगा पर भारत के बड़े वर्ग को रोजगार प्लांटों और फैक्टरियों में ही मिलेगा. इसलिए विदेशी निवेश ऐसे रोजगारपरक धंधों में आएं ऐसे इंतजाम होने चाहिए.

पिछड़ता उत्तर भारत और पूर्व भारत
इस देश में विदेशी निवेश आने का मतलब यह नहीं होता कि पूरे देश का ही विकास हो रहा है, और पूरे देश के लोगों को रोजगार मिल रहा है. विदेशी निवेश के आंकड़े बताते हैं कि पश्चिम भारत और दक्षिण भारत विदेशी निवेश की बारिश में नहाया है, और पूर्वी भारत और उत्तरी भारत में नेशनल केपिटल रीजन दिल्ली को छोड़कर सूखा ही पड़ा है. सरकारी आंकड़ों के मुताबिक अप्रैल, 2000 से मार्च, 2016 तक देश में आए कुल प्रत्यक्ष विदेशी निवेश का 29  प्रतिशत हिस्सा महाराष्ट्र-दादरा नगर हवेली में गया. 22 प्रतिशत हिस्सा एनसीआर में  गया है. गुड़गांव की चमक इसकी गवाही देती है. तमिलनाडु ने तेजी से अपना स्थान विदेशी निवेश के नक्शे पर बनाया है.

2000 से 2015 के बीच आए कुल प्रत्यक्ष विदेशी निवेश का 7 प्रतिशत तमिलनाडु को गया है. सात प्रतिशत कर्नाटक को गया है. चार प्रतिशत आंध्र को गया है यानी कुल प्रत्यक्ष विदेशी निवेश का 18 प्रतिशत तो दक्षिण के ये तीन राज्य ले गए. इसके बरक्स उत्तर भारतीय राज्यों को देखें उत्तर  प्रदेश और उत्तराखंड के हिस्से 2000-2016 के दौरान हुए प्रत्यक्ष विदेशी निवेश का कुल सिर्फ  दशमलव 2 प्रतिशत आया है. मध्य  प्रदेश में सिर्फ  दशमलव 5 प्रतिशत आया है. राजस्थान में सिर्फ  दशमलव 5 प्रतिशत आया है. बिहार का हाल तो बहुत ही बुरा है-सिर्फ दशमलव जीरो तीन परसेंट. जम्मू-कश्मीर में कोई विदेशी निवेश गया ही नहीं. प. बंगाल के हिस्से सिर्फ  एक प्रतिशत आया है.

यानी बंगलुरु, चेन्नई, हैदराबाद, अमरावती ये प्रत्यक्ष विदेशी निवेश को ले रहे हैं. यूपी, बिहार, राजस्थान, मध्य प्रदेश प्रत्यक्ष विदेशी निवेश नक्शे से लगभग गायब हैं. इस आयाम पर भी विचार करना होगा. क्षेत्रीय असंतुलन का मसला इससे जुड़ा हुआ है. इससे पता चलता है कि सारा माइग्रेशन नॉर्थ से दक्षिण और पश्चिम भारत की ओर हो रहा है, या दिल्ली की तरफ हो रहा है क्योंकि रोजगार यहीं आ रहे हैं. विदेशी निवेश के इस आयाम पर अभी तक गंभीर विमर्श होना बाकी है.

आलोक पुराणिक
आर्थिक मामलों के जानकार


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