विदेश नीति : कंगूरे का सबसे चमचमाता रत्न

Last Updated 01 Jun 2016 02:58:54 AM IST

प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी अपनी सरकार के दो साल पूरा होने के दो दिनों पहले ईरान के सफल दौरे से वापस आए हैं, और 10 दिनों बाद अमेरिका जाने वाले हैं.


विदेश नीति : कंगूरे का सबसे चमचमाता रत्न

राष्ट्रपति बराक ओबामा ने उन्हें विशेष तौर पर आमंत्रित किया है, जहां वह अमेरिकी संसद के संयुक्त अधिवेशन को संबोधित करेंगे. इन दो उदाहरणों से साबित होता है कि विदेश नीति मोदी की किस सीमा तक प्राथमिकता में है. वास्तव में एक क्षेत्र के नेता होने के कारण उनके प्रधानमंत्री बनने के बाद सबसे ज्यादा संदेह उनकी विदेश नीति संबंधी समझ पर ही व्यक्त किया गया था. इन सारे संदेहों को गलत साबित करते हुए मोदी ने विदेश नीति को अपनी सबसे बड़ी ताकत में तब्दील कर दिया है. मोदी सरकार के कंगूरे में कोई सबसे चमचमाता रत्न है, तो वह विदेश नीति ही है. बतौर प्रधानमंत्री उन्होंने 20 दौरों में 41 देशों की यात्राएं कीं तथा कुल 95 दिन विदेश में गुजारे. यह अपने आपमें एक रिकॉर्ड है. अमेरिका के राष्ट्रपति ओबामा ने अपने आठ वर्ष के कार्यकाल में 53 देशों का दौरा किया है. वास्तव में विदेश यात्राओं में मोदी ने पूर्व प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह को छोड़कर दुनिया के सभी नेताओं को पीछे छोड़ दिया है.

हालांकि कांग्रेस और विपक्षी पार्टियां इस मायने में मोदी पर तंज भी कसती हैं कि वह देश से ज्यादा विदेशों में समय गुजारते हैं. हम जानते हैं कि यह केवल एक राजनीतिक आलोचना है, और इसका संज्ञान भी लेने की आवश्यकता नहीं. स्वयं मनमोहन सिंह ने दो वर्ष के अपने पहले कार्यकाल में 42 देशों की यात्राएं की थीं. दुनिया भर के विशेषज्ञ मान रहे हैं कि मोदी के प्रधानमंत्री बनने के बाद भारत की विदेश नीति ने ऐसा नया आयाम ग्रहण किया है, जिससे न सिर्फ  चारों ओर देश की धाक जमी है, भारत को फिर सम्मान की नजर से देखा जाने लगा है. विश्वभर के कूटनीतिज्ञ यह मानने को विवश हैं कि मोदी के नेतृत्व में भारत को जो साख और सम्मान प्राप्त हुआ है, वह ऐतिहासिक है. मोदी ने अपने शपथ ग्रहण के साथ ही दक्षेस देशों सहित अफगानिस्तान के राष्ट्राध्यक्षों को बुलाकर संदेश दे दिया कि विदेश नीति किस तरह उनकी प्राथमिकता में है. शपथ ग्रहण के साथ आठ देशों के नेताओं से द्विपक्षीय बातचीत. इसके पूर्व न किसी ने ऐसा सोचा था, न किया था.

विदेश का दौरा ही नहीं होता विदेश नीति
वैसे, विदेश नीति का अर्थ केवल प्रधानमंत्री का विदेशी दौरा ही नहीं होता. इसमें देश की समस्त वैदेशिक कूटनीति शामिल होती है. चाहे विदेशी नेताओं का भारत आगमन हो, अंतरराष्ट्रीय मामलों पर भारत का स्टैंड लेना हो, अंतरराष्ट्रीय सम्मेलन में भारत की प्रस्तुति हो, विदेशों में संकट उभरने के समय अपनाया गया रवैया हो, सांस्कृतिक आदान-प्रदान हो, निवेश बढ़ाने के लिए आर्थिक कूटनीति हो या फिर रक्षा कूटनीति..विदेश नीति में सब समाहित होती हैं. इसलिए मोदी की विदेश नीति का मूल्यांकन करते समय हमें इन सारे पहलुओं का ध्यान रखना होगा. अपने चुनाव अभियान में मोदी जब कहते थे कि हम 125 करोड़ आबादी के देश हैं, और हमें दुनिया से आंख मिलाकर बातें करनी चाहिए तो इसे जिन्गोइज्म यानी अंधराष्ट्रवाद की अभिव्यक्ति कहकर आलोचना की गई. किंतु वाकई मोदी ने दिखा दिया कि अपनी आबादी को विदेश नीति में शक्ति का प्रमुख आधार बनाया जा सकता है. मोदी ने दक्षिण एशिया में नेपाल और भूटान के बाद सितम्बर, 2014 के अपने अमेरिका दौरे में ऐसा समां बांधा कि दुनियाभर के नेता भौचक्क रह गए. संयुक्त राष्ट्रसंघ में उनके भाषण में नई सोच तथा न्यूयॉर्क के मेडिसिन स्क्वायर में उनके भाषण ने उन पर लगे मुस्लिम विरोधी संकुचित सोच और व्यवहार वाले नेता के टैग को तत्क्षण खत्म कर दिया. अमेरिका का पूरा व्यवहार बदल गया और मोदी के लिए वहां के राष्ट्रपति ने प्रोटोकॉल तक का परित्याग कर दिया. अभी मोदी ने वॉल स्ट्रीट जर्नल को दिए साक्षात्कार में कहा है कि ओबामा के साथ उनके संबंध ऐसे हैं कि वह उनसे हक से बात करते हैं. यह स्थिति यों ही नहीं हुई होगी.

वास्तव में विश्व के सभी प्रमुख नेताओं से आज मोदी ने व्यक्तिगत संबंध ऐसे बनाए हैं कि चीन को छोड़कर कोई भारत-विरोधी स्टैंड नहीं लेता. एक ऐसे नेता, जो कभी राष्ट्रीय राजनीति में नहीं रहा, द्वारा ऐसी स्थिति पैदा कर देना सामान्य उपलब्धि नहीं है. चीन के राष्ट्रपति शि जिनपिंग से भी उन्होंने व्यक्तिगत रिश्ते प्रगाढ़ किए हैं, और दोनों की सीधे बातचीत होती है, लेकिन पाकिस्तान के संदर्भ में उसके अपने हित हैं, इसलिए वह जैश-ए-मोहम्मद के प्रमुख मौलाना मसूद अजहर के संदर्भ में अलग नीति अपनाता है. इसके अलावा, चीन के साथ भारत के संबंध छोटे हिचकोलों के बावजूद सामान्य हैं. मोदी जब चीन गए तो 21 समझौतों पर हस्ताक्षर हुए तथा 22 अरब डॉलर के व्यापार एवं निवेश का करार भी हुआ. एक उपलब्धियों वाली यात्रा थी. मोदी ने अपनी विदेश नीति में भारत की आबादी की ताकत, उसकी खरीद शक्ति, निवेश की अपार संभावनाएं आदि को तो मुखरता से उठाया ही है, भारतीय संस्कृति एवं इतिहास को भी संबंधों का आधार बनाया है. इस संदर्भ में उनकी बौद्व कूटनीति का उल्लेख किया जाना आवश्यक है. मोदी ने बौद्ध धर्म वाले देशों को धर्म, संस्कृति और ऐतिहासिक संबंधों के आधार भी जोड़ने की रणनीति अपनाई और यह काफी हद तक सफल रही. जापान से आज जैसे संबंध हैं, वैसे शायद ही कभी रहे. श्रीलंका से बिल्कुल आत्मीय जैसा संबंध है. दक्षिण कोरिया भारत के काफी करीब आया है.

धार्मिक कूटनीति बखूबी अपनाई मोदी ने
चीन अगर पाकिस्तान के माध्यम से हमें दबाव में रखने की रणनीति अपनाता है, तो मोदी ने उसको जवाब देने के लिए उसके पड़ोसी मंगोलिया का दौरा किया, जो परंपरागत रूप से चीन का विरोधी है. बौद्ध धर्मावलंबी होने का लाभ उठाने के लिए मोदी ने जो सांस्कृतिक और धार्मिंक कूटनीति की उसका अनुकूल प्रभाव पड़ा. आज गैस के विपुल भंडार से भरा मंगोलिया हमारा मित्र देश है. उस ओर किसी ने ध्यान तक नहीं दिया था. ऐसा ही संबंध मोदी ने वियतनाम के साथ कायम किया है. सेशेल्स को इसके पूर्व किसने महत्त्व दिया था? तो मोदी ने ऐसे देशों के साथ संबंध बनाए जिनका महत्त्व होते हुए भी हमने शायद ही कभी उस ओर ध्यान दिया. विदेश नीति में प्रभाव शक्ति किसी भी वैश्विक भूमिका अपनाने वाले देश के लिए प्रमुख आधार होता है. पहले से बड़े देशों का प्रभाव विस्तार हर क्षेत्र में है. भारत को उसके बीच जगह बनानी थी, और मोदी ने सफलतापूर्वक अनेक देशों में अपनी सॉफ्ट कूटनीति के माध्यम से इसे पूरा किया है. आज विश्व पटल पर भारत के साथ खड़ा होने वाले देशों की संख्या काफी बढ़ गई है. पर्यावरण सम्मेलन में भारत गरीब और विकासशील देशों की आवाज बनकर खड़ा हुआ और अमेरिका को मानना पड़ा कि बगैर भारत को सहमत कराए कोई मान्य वैश्विक समझौता नहीं हो सकता. मोदी ने ऊर्जा क्षेत्र को भी विदेश नीति का माध्यम बनाया. सौर ऊर्जा के लिए सौर कूटनीति अपनाई और पेरिस में 102 देशों का सम्मेलन किया आज विश्व सौर संगठन बन चुका है.

विरोधी दक्षिण एशिया में मोदी की विदेश नीति की आलोचना करते हुए कहते हैं कि यहां के किसी देश के भारत से अच्छे संबंध नहीं हैं. यह आलोचना आधारहीन है. नेपाल के भूकंप में भारत ने अनुकरणीय सहायता की. लेकिन अगर वहां की सरकार मधेसियों की मांगें नहीं मानेगी तो केवल सरकार से संबंध बनाए रखने के लिए भारत चुप नहीं रह सकता. पाकिस्तान से संबंध सामान्य करने के लिए प्रधानमंत्री ने बार-बार कदम उठाए, लाहौर की औचक यात्रा की और नवाज शरीफ के घर गए..इससे ज्यादा क्या किया जा सकता है. हालांकि आज पाकिस्तान के साथ संबंध इतने नहीं बिगड़े हैं, जितने यूपीए के कार्यकाल के अंतिम समय में थे. इसलिए यह आलोचना गलत है. कुल मिलाकर विदेश नीति को हम मोदी सरकार के दो वर्षीय कार्यकाल का सबसे सफल क्षेत्र कह सकते हैं. आखिर, इससे पहले कब इस तरह दुनिया भर में फैले भारतवंशियों को संबोधित कर उन्हें भारत के साथ भावनात्मक रूप से जोड़ने तथा देश का दूत बना देने की सफल कूटनीति अपनाई गई थी?

अवधेश कुमार
वरिष्ठ पत्रकार


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