शिक्षा और विचारधारा दो सालों का द्वंद्व
अघोषित रूप से सरकार ने इन प्रतिरोधों को साम्यवादी उपज मानकर किनारा कर लिया और कई मामलों में तो सरकार के तरफदारों ने तो कुछ उच्च शिक्षा-संस्थानों को आतंकवाद का अड्डा तक घोषित कर दिया है.
शिक्षा और विचारधारा दो सालों का द्वंद्व |
पिछले दो सालों में मोदी सरकार को लोक सभा में भले ही एक कमजोर विपक्ष के रूप में कांग्रेस का सामना करते हुए सुशासन और नीतियों पर बहस में कम विरोध का सामना पड़ा हो पर देश के कई विश्वविद्यालयों और राष्ट्रीय महत्त्व की संस्थाओं जैसे राष्ट्रीय फिल्म संस्था, आईआईटी, हैदराबाद केंद्रीय विश्वविद्यालय, जेएनयू और हाल ही में एनआईटी. में काफी विरोध का सामना करना पड़ा है. कुछ आलोचक और विश्लेषक तो यहां तक मानते हैं कि वर्तमान सरकार का उच्च शिक्षा से कोई खास सरोकार नहीं है, इसलिए न तो सरकार बजट में उच्च शिक्षा के आवंटन को लेकर गंभीर है, न ही परिसरों के प्रतिरोध के प्रति. अघोषित रूप से सरकार ने इन प्रतिरोधों को साम्यवादी उपज मानकर किनारा कर लिया और कई मामलों में तो सरकार के तरफदारों ने तो कुछ उच्च शिक्षा-संस्थानों को आतंकवाद का अड्डा तक घोषित कर दिया है. आज हालत यह है कि शैक्षणिक माहौल में काफी गिरावट आ गई है, और विश्वविद्यालयों के भीतर और बाहर विचारधारा के नाम पर एक लड़ाई चल रही है वामपंथ और दक्षिणपंथ के बीच.
वास्तव में यह लड़ाई वैचारिक स्तर पर है ही नहीं, बल्कि यह उदारवादी शिक्षा-व्यवस्था और पुरातनवादी सोच के बीच चल रहा द्वंद्व है, जिसको गहराई से समझने की जरूरत है. पुरातनवादी सोच से चलने की कोशिश कर रहे रूढ़िवादियों के अतार्किक, परिवर्तन विरोधी सोच का ही नतीजा है, जब हम संस्कृति की प्रगतिशीलता को छोड़, वैज्ञानिक तर्क का भी विरोध करते हैं, और दीनानाथ बतरा की पौराणिक गाथाओं की कल्पनाओं को आधुनिक वैज्ञानिक खोज से उन्नत पाते हैं, और गणेश के चेहरे को प्लास्टिक सर्जरी का नमूना मानते हुए अयोध्या से लंका तक की यात्रा को पुष्पक विमान की खोज में तब्दील कर राइट ब्रदर्स उनकी कब्र में जाकर यह सूचना देते हैं कि विमान के आविष्कार आप नहीं हो. आजकल शिक्षा के क्षेत्र में, खासकर उच्च शिक्षा में मामला कुछ ज्यादा ही वैचारिक होता दिख रहा है, जो तार्किक कम और पौराणिक ज्यादा है. इसकी वजहों को जानना होगा, नीति निर्माता यह नहीं भूले कि धर्मशक्ति, देशभक्ति और वैचारिक उत्तेजना के आधार पर किसी भी लोकतांत्रिक व्यवस्था में उच्च शिक्षा को न तो दिशा दे सकते हैं, और न ही उनकी दशा बदल सकते हैं.
उदारवादी लोकतांत्रिक मूल्यों की वकालत
स्वतंत्रता के बाद मूल रूप से भारतीय शिक्षा व्यवस्था उदारवादी लोकतांत्रिक मूल्यों की वकालत करती रही है, ताकि समाज से जाति-आधारित रूढ़िवादी समझ और पौराणिकतावादी अप्रमाणिक धार्मिक उन्माद को रोका जा सके और समाज में शिक्षा के प्रचार-प्रसार से एक बुद्धि संपन्न तर्कसंगत व्यवस्था का निर्माण किया जा सके. यही सोच अम्बेडकर, नेहरू और गांधी जैसे राष्ट्रनिर्माताओं का था. भाजपा एवं संघ परिवार के पास शिक्षा संबंधी समग्र नीतिगत मानचित्र का अभाव लग रहा है, उसकी वजह है, संघ के पास शिक्षा के ऊपर एक समग्र सोच की गहराई का न होना. इसलिए 21वीं सदी में भी तार्किक संवाद इनका औजार नहीं है, बल्कि इनका हथियार है जो अभी तक शिक्षा में रचा गया है, बनाया गया है उसको वामपंथी मानकर उल्ट देना. ऐसे में शिक्षा नीति में एक विचित्र गतिहीनता भी झलकती है, जहां बिना विकल्पों के आप वर्तमान को भविष्य की ओर नहीं बल्कि भूतकाल में धकेलने के लिए आमादा है.
शिक्षा और विचारधारा के बीच संबंध एक सामाजिक प्रक्रिया के तहत बनती है और हमेशा राजनीति को प्रभावित करने की क्षमता रखती है. लेकिन हाल की छात्र राजनीति और कैम्पस जीवन का आकलन करें तो पता चलता है कि विचारधारा और राजनैतिक पार्टियां शिक्षा और शिक्षण में जरूरत से ज्यादा ही हस्तक्षेप करती दिख रही हैं. चाहे वामपंथ हो या दक्षिणपंथ छात्र राजनीति को एक काडर व्यवस्था के रूप में पार्टी के संगठन से जोड़ा गया जिसका प्रभाव अध्ययन और शिक्षण प्रक्रिया दोनों पर पड़ा. नतीजा हुआ कि विश्वविद्यालय गैर राजनीतिक होने की जगह पूर्णरूपेण राजनीति कर अखाड़ा बनता चला गया.
प्रथम एनडीए से लेकर आज तक की भाजपा शासन पर हमेशा से ही भगवाकरण का आरोप लगता रहा है. वामपंथ ने इसका विरोध किया और आलोचनात्मक पक्ष पेश करने की कोशिश की. लेकिन वामधारा से प्रभावित संगठनों की भी अपनी सीमाएं देखने को मिलीं जहां समग्र लोकतांत्रिक संवाद को स्थापित करने की जरूरत की कमी रही. वहीं शिक्षा को आगे ले जाने के लिए विचारधारा की आड़ में कई गैर आवश्यक मापदंडों पर जोड़ दिया गया जिसने छात्र आंदोलनों के साथ-साथ देश के बाकी जनांदोलनों को भी प्रभावित किया और कुछ हद तक कमजोर भी किया.
उच्च शिक्षा की ललक कम
भारत में अभी भी उच्च शिक्षा में दाखिला का प्रतिशत अन्तरराष्ट्रीय मानकों की तुलना में काफी कम है. सरकार राष्ट्र-निर्माण एवं विकास में शिक्षा को एक अहम हथियार मानती है. ऐसे में सरकार के लिए आवश्यक है कि सत्ता पक्ष के संगठनों द्वारा रचे गए अध्ययन व्यवस्था के दबाव से बाहर निकले संघ या कोई भी अन्य संगठन अकेले शिक्षा के स्तर और आयाम को नहीं बदल सकती है. इसके लिए एक लोकतांत्रिक संवाद की आवश्यकता है. ऐसी स्थिति में भगवाकरण से उपजे मामलों पर ध्यान देने की जरूरत है. फिल्म संस्था पुणो, आईआईटी, मद्रास, जवाहरलाल नेहरू यूनिवर्सिटी, हैदराबाद केंद्रीय विश्वविद्यालय, इलाहाबाद यूनिवर्सिटी जैसी संस्थाओं में पिछले दो सालों में व्यवस्था पर काफी दबाव पड़ा, लेकिन इससे कुछ सकारात्मक हासिल न हो सका. उल्टे शिक्षा और विचारधारा के इस खेल ने सरकार की मुश्किलें और उलझनों को और बढ़ा दिया है.
अभी भी जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय समेत कई संस्थानों में व्यवस्था और वैचारिक मतभेदों ने शिक्षा एवं शिक्षण कार्य को पीछे धकेल दिया. संविधान और कानूनी प्रावधानों के तहत संस्थानों को स्वायत्ता दी गई उससे पीछे का कारण यह था कि सरकारें कोई भी हों खुले सोच और आलोचनात्मक समझदारी के ऊपर कोई बंधन नहीं होगा. यही वजह रही कि विश्वविद्यालयों को कभी भी सरकारी दफ्तरों में नहीं तब्दील किया गया. लेकिन जब भी सत्ता पक्ष या सरकारें शिक्षा व्यवस्था में कानून और राष्ट्र के नाम पर दखल ज्यादा देंगी तो आलोचनात्मक विश्लेषण वाली तार्किक बुद्धि का हृास होगा. जहां तक शिक्षा का सवाल है, मोदी सरकार मुख्य रूप से तीन उलझनों से गुजर रही है. पहली उलझन संस्थागत है, दूसरी विचारात्मक और तीसरी नीतिगत है.
संस्थाएं लोकतंत्र की जीवन रेखा है और शिक्षण संस्थाएं तो इस जीवन रेखा की कोशिकाएं हैं. इसलिए उनका प्रभाव हमेशा समाज और सरकार दोनोें में दिखता है. जाने-माने शिक्षाविद पॉलो पेरारे का मानना है कि जो नेतृत्व संवादात्मक तरीके से काम न करके अपनी नीति या विचारों को दूसरे पर थोपना चाहता है, वो नेतृत्व लोगों को संगठित नहीं करता बल्कि चालाकी से उनसे काम निकलवाना चाहता है. ऐसा नेतृत्व और सरकारें न तो मुक्त होती हैं, ना ही मुक्ति दिलाने में सहायक का काम करते हैं, अपितु वे हमारी और आपकी स्वतंत्रता का दमन करती हैं, जबकि शिक्षा का काम चाहे व्यवस्था किसी भी विचारधारा की हो लोगों को मुक्ति प्रदान करना है गैर-सामाजिक और अमानवीय बंधनों से चाहे वो बंधन जाति का हो लिंग का हो या धर्म का. अगर ऐसा नहीं होता है तो शिक्षा और शिक्षण दोनों असफल होंगे.
आलोचना स्वीकारने की क्षमता अहम
जहां तक वैचारिक और नीतिगत मतभेद का सवाल है, उसमें सबसे अहम है ‘नए आइडिया’ को प्रोत्साहन मिलना और आलोचना को स्वीकार करने की क्षमता का होना. कबीर से अमत्र्य सेन तक सबने भारतीय आलोचनात्मक तार्किक क्षमता को सराहा है. ऐसे में हर नए विचार को जबरदस्ती में विचारधारा वाली फ्रेमवर्क में ढालना और उसके खिलाफ राजनैतिक स्तर पर बहस और विरोध करना अकादमिक बहसों के केवल राजनीतिक अखाड़े में ही धकेलता है. आज उससे बचने की जरूरत है, ताकि शैक्षिक संस्थानों के सौंदर्य और सौहार्द दोनों को बचाया जा सके. नीतिगत स्तर पर सरकार ने चारा साला कार्यक्रम को हटाकर सीबीसीएस लागू किया, शैक्षणिक व्यवस्था को अनुकूल बनाने के लिए एपीआई स्कोर और अन्य बदलाव कर रही साथ में अन्तरराष्ट्रीय विश्वविद्यालयों को भारतीय भूमि पर बुलाने के लिए नए कानून बनाए जा रहे हैं. केंद्रीय विश्वविद्यालय बिल विचाराधीन है. लेकिन इन नीतियों में आपसी विरोधाभास भी है, और कई मामलों में ये सम्मिलित शिक्षा व्यवस्था के उद्देश्य के लिए भी ठीक नहीं हैं. इन कानूनों को शिक्षा के लोकतांत्रिक पक्ष पर भी ध्यान देने की जरूरत है, जिससे मानव संसाधन के गुणवत्ता के साथ-साथ सामाजिक संतुलन को बनाए रखते हुए एक समतामूलक, स्वतंत्रता प्रेमी लोकतांत्रिाक एवं सहिष्णु शिक्षित समाज का निर्माण संभव हो.
दो सालों में मोदी सरकार ने संघ प्रायोजित शिक्षा प्रणाली को जितना प्रसारित करना चाहा सरकार की उलझनें उतनी बढ़ी हैं. आज के शिक्षा व्यवस्था में परिवर्तन के नाम कुछ न कर पाने के लिए पूर्णरूपेण वामपंथ को दोषी ठहराना हर दृष्टिकोण से अनुचित है. अभी सरकार के तीन साल बाकी हैं. ऐसे में आवश्यक है कि विश्वविद्यालयों में वैचारिक प्रयोगशाला बनाए बिना सरकार जिन उलझनों के साथ शासन कर रही उससे बाहर निकले और शिक्षा और शिक्षण दोनों को मजबूती प्रदान करे. संविधान सम्मत व्यवस्था चलना ही सबके हक में है. उम्मीद है कि आने वाले वर्षो में मोदी सरकार केवल विचारधारा के नाम पर हो रही विवाद और टकरार की राजनीति से बाहर आएगी और शिक्षा को एक सामूहिक जिम्मेदारी समझते हुए खुले मन से शिक्षण व्यवस्था के हर पहलू पर हर मत के लोगों से संवाद के बाद एक समग्र शिक्षा प्रणाली बनाने पर जोर देगी ताकि आने वाले समय में वास्तव में भारत को एक ज्ञान महाशक्ति के रूप में जाना जाए.
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