हो सके तो उनका साथ दें

Last Updated 30 May 2016 06:12:35 AM IST

सोशल नेटवर्किंग साइट्स की ताकत पिछले दिनों साफ नजर आई. 'हैवेल्स' कंपनी को अपने विज्ञापन-मैं पंखा हूं-का एक टुकड़ा निकालना पड़ा.


हो सके तो उनका साथ दें.

इस टुकड़े में आरक्षण पर जो परोक्ष कमेंट था-उसकी सोशल मीडिया पर खूब आलोचनाएं हुई. विज्ञापन के गैर जिम्मेदाराना कटेंट पर हैवेल्स के मालिकान को कटघरे में खड़ा किया. बाद में कंपनी को माफी मांगनी पड़ी.

देश में जातिगत आरक्षण पर बहस छिड़ी हुई है. ऐसे में विज्ञापन के उस टुकड़े को हटा दिया गया. लेकिन इस विज्ञापन का एक टुकड़ा चैनलों पर चलता रहा. इसमें स्टूडेंट्स के प्रोटेस्ट मूवमेंट को दिखाया गया था. इस मूवमेंट में किताबें जलाई जा रही थीं-पर एक लड़का जली हुई किताब को उठाकर कहता है- मैं पंखा हूं. वह इस आंदोलन की आग को शांत करना चाहता है. बेशक, आग लगाने वाले स्टूडेंट्स नहीं, वह लड़का विज्ञापन का हीरो है. मायने यह है कि आंदोलन करना आग लगाने जैसा है. इसका समर्थन कौन करेगा? हर आंदोलन, प्रोटेस्ट मूवमेंट आग लगाने जैसा नहीं होता.

इस तरह के विज्ञापनों में आंदोलन की तस्वीरों का घालमेल आगजनी से इस तरह किया जाता है कि हम दोनों को अलग नहीं कर पाते. इस विज्ञापन में भी ऐसा ही कुछ है. लेकिन इस टुकड़े को हटाने के लिए कोई बात नहीं उठी. देश में स्टूडेंट्स एक सरीखी लड़ाई लड़ते हुए भी अलग-अलग खेमे में बंटे हुए हैं. उनकी आवाज \'नक्कारखाने में तूती\' जैसी है. इसलिए यह विज्ञापन बंद नहीं हुआ. वैसे स्टूडेंट्स के प्रोटेस्ट मूवमेंट्स के खिलाफ मॉस मीडिया का लगातार इस्तेमाल किया जा रहा है.

पिछले साल पेप्सी का एक विज्ञापन चला. स्टूडेंट्स काले कपड़ों में भूख हड़ताल पर बैठे हैं. अभी जर्नलिस्टों को वे अपनी बात बता ही रहे हैं कि एक लड़का गटागट पेप्सी पी जाता है. फिर कहता है-पेप्सी थी पी गया. इसके बाद एक बिस्कुट के विज्ञापन में भी स्टूडेंट्स को इसी अंदाज से दिखाया गया. एक स्टूडेंट मंच पर भाषण देते-देते छोले-भटूरे की बात करने लगता है. इस विज्ञापन से आंदोलन की संजीदगी पर सवाल खड़े होते हैं.

भूख का सच बॉलिवुडिया तर्ज पर बनने वाले एड का कंटेट बन जाता है. यह भूख किसी खास कंपनी के बिस्कुट और चॉकलेट से शांत होती है. यह माहौल सिर्फ  विज्ञापनों के जरिये ही तैयार नहीं किया जा रहा. जेएनयू प्रकरण में कुछ न्यूज चैनलों ने जिस तरह खबरें चलाई, उनकी चौतरफा आलोचना हुई. बोगस टेप्स के जरिये स्टूडेंट्स के खिलाफ एक माहौल तैयार किया गया. इसी तरह अंग्रेजी के एक अखबार ने दिल्ली यूनिर्वसिटी के स्टूडेंट्स के प्रोटेस्ट मूवमेंट्स पर एक खबर लगाई.

खबर में कहा गया है कि यहां जब स्टूडेंट्स भूख हड़ताल पर बैठते हैं तो आसपास के चाट-पकौड़ी वालों की पौ-बारह हो जाती है. कई वेंडरों के बयानों को मोटे-मोटे अक्षरों मे छापा गया. मायने यह कि भूख हड़ताल सिर्फ बहाना होता है, पीछे से मिल-बैठकर गपागप दावत उड़ाई जाती है.

इस तरह मॉस मीडिया की मंशा पर सवाल खड़े होते हैं. जिन जगहों पर पेड न्यूज का चलन है, वहां एक तीर से बहुत आसानी से दो निशाने साधे जा सकते हैं. ऐसा हर कहीं होता है. 1999 में सिएटल में डब्ल्यूटीओ की बैठक के दौरान सड़कों पर स्टूडेंट्स का बहुत बड़ा जत्था विरोध कर रहा था. अगले दिन न्यूयार्क टाइम्स ने खबर छापी कि किस तरह स्टूडेंट्स ने प्रोटेस्ट करते हुए पुलिस वालों पर आग जलती बोतलें फेंकी. तस्वीरें भी छापी गई जो जाहिर सी बात है, पुरानी थीं.



बाद में पता चला कि किसी इंफ्लूएंशियल ग्रुप के कहने पर इस पेड फोटो को छापा गया था. अपने यहां देश भर में स्टूडेंट्स अपने हक की लड़ाई लड़ रहे हैं. दिल्ली से लेकर पश्चिम बंगाल तक और तेलंगाना से लेकर उत्तर प्रदेश तक-हर जगह स्टूडेंट्स का संघर्ष जारी है. इस लड़ाई में हम किसी भी तरफ से लड़ें, जीत सिर्फ युवा सपनों की होनी चाहिए. यह आंदोलन यूनिर्वसिटीज से शुरू होकर सिविल सोसायटी तक बढ़ता है. और हर जगह सरकारें, सत्ता इन आंदोलनों से डरती हैं.

नब्बे के दशक में व्यंग्यकार हरिशंकर परसाई ने युवा पीढ़ी पर \'आवारा भीड़ के खतरे\' नाम से एक लेख लिखा था. लेख में परसाई जी ने कहा था युवा वर्ग को सिर्फ आक्रोश नहीं करना चाहिए. एक दिशा भी तय करनी चाहिए. दरअसल, वह नव उदारवाद का शुरुआती दौर था. देश में नियो रिच वर्ग उभर रहा था. इसके साथ उन लोगों में असंतोष भी बढ़ रहा था, जो उस वर्ग से अलग थे.

गनीमत है, पच्चीस साल बाद की युवा पीढ़ी ने उस दिशा को समझ लिया है. देश भर में यूथ अपने हक के लिए लड़ रहा है. अगर आप उसका साथ न दे सकें, तो कम-से-कम उसके खिलाफ माहौल तो मत बनाइए.

 

 

माशा
लेखिका


Post You May Like..!!

Latest News

Entertainment