चुनावी हिंसा के विरुद्ध नागर पहल

Last Updated 29 May 2016 05:01:11 AM IST

पहले क्या अपराध था रूपा गांगुली का? रूपा गांगुली यानी कभी बेहद लोकप्रिय रहे टेलीविजन महाभारत की बेहद चर्चित द्रौपदी, और अब पश्चिम बंगाल में भाजपा की नेता.


चुनावी हिंसा के विरुद्ध नागर पहल

उन पर कथित तौर पर तृणमूल के गुंडों ने हमला किया और उनके साथ कार में बैठे उनके सहयात्रियों को घायल कर दिया. बताते हैं वह भाजपा के पोलिंग बूथ एजेंट को देखने गई थीं, जिसे ऐसे ही एक हमले में घायल कर दिया गया था. इसी तरह का हमला एक माकपा नेता सतरूप घोष पर भी किया गया और यहां भी हमलावर वही तृणमूल के निष्ठावान बताए गए. चुनाव के पश्चात केरल के कुछ हिंसा पीड़ितों को दिल्ली आकर प्रदर्शन करना पड़ा. रूपा गांगुली क्योंकि एक चर्चित चेहरा थीं, इसलिए उन पर हुए हमले को ज्यादा सुर्खियां मिलीं, अन्यथा हिंसा की छोटी-बड़ी घटनाएं हर चुनावी राज्य में खासी संख्या में हुई और इसमें लगातार बढ़ोत्तरी ही हो रही है.

भारतीय चुनाव आयोग का मुख्य कार्य चुनाव कराना नहीं, बल्कि हिंसा मुक्त तथा शांतिपूर्ण चुनाव कराना है. राज्यों के जो चुनाव पहले कभी आसानी से हो जाते थे, वे अब इलेक्ट्रोनिक उपकरणों के आ जाने के बावजूद पांच-छह चरणों में कराए जाने लगे हैं, सिर्फ इसलिए कि हर चरण में पर्याप्त सुरक्षाबलों की तैनाती की जा सके और हिंसक तत्वों को उनकी मांदों में ही रोका जा सके. चुनाव आयोग की सख्त निगरानी और सुरक्षा बलों की भारी-भरकम तैनाती के बावजूद हिंसा फूट ही पड़ती है. चुनाव आयोग हिंसा को रोकने के लिए हथियार धारकों से उनके हथियार जमा करवा लेता है, लेकिन हथियार तो सिर्फ वे जमा होते हैं, जिन्हें वैघ तरीके से लाइसेंस लेकर प्राप्त किया गया हो.

हिंसा का अधिकांश तो अवैध हथियारों के हवाले होता है, जिन पर चुनाव आयोग का काई नियंत्रण नहीं होता. अब क्योंकि अवैध धंधे, संगठित अपराध और राजनीति का ‘धंधा’ पारस्परिक तौर पर जुड़े हुए हैं, इसलिए धंधेबाज राजनेता अपने नियंत्रण में ज्यादा से ज्यादा हथियार रखना चाहता है, ताकि इनके बल पर वह अपने मतदाताओं पर अपना प्रभाव बनाए रख सके और अपने प्रतिद्वंद्वी को डरा-धमका सके. हथियार प्रभुत्व के प्रतीक हैं. चुनाव प्रभुत्व की स्थापना करते हैं, इसलिए चुनाव, हथियार और हिंसा का चोली-दामन का साथ बन गया है. लोकतंत्र की सैद्धांतिक मान्यताएं जो हों, लेकिन भारत में उसकी व्यावहारिकता यही है. इसी व्यावहारिकता की खातिर हर राजनीतिक दल दबंगों को सम्मानित उम्मीदवार बनाता है. हथियारों की संस्कृति दरअसल चुनावी हिंसा की सामाजिक स्वीकृति और उसकी व्यापकता की संस्कृति है.

अब सवाल यह है कि जब चुनावों के साथ हिंसा की परम्परा इतनी मजबूत हो गई हो कि कोई भी चुनाव सुरक्षा बलों के बिना सम्पन्न ही न हो सके और उसे परोक्ष तौर पर सामाजिक स्वीकृति मिली हुई हो, तब क्या केवल चुनाव आयोग इस पर रोक लगा सकता है, चुनाव के पूर्व और पश्च परिदृश्य को पूरी तरह हिंसा मुक्त करा सकता है?  सीधा-सा जवाब है कि जिस तरह से कोई भी अमानवीय दुष्प्रवृत्ति बिना सामाजिक उपचार किये केवल कानूनी उपचार से दुरुस्त नहीं होती, उसी तरह से चुनावी हिंसा की दुष्प्रवृित्त से भी केवल प्रशासनिक ताम-झाम के जरिए नहीं निपटा जा सकता. इसके लिए सामाजिक-सांस्कृतिक उपचार बेहद जरूरी है.

हमने पिछले पैंसठ वर्षो में इस हिंसा पर नियंत्रण के लिए ऊपरी यानी प्रशासनिक व्यवस्थाएं तो मजबूत की हैं, लेकिन ऐसी कोई आंतरिक चुनावी संस्कृति विकसित नहीं की, जो हिंसा के विरुद्ध स्वत: प्रतिरोधकारी हो. ऐसा करना असंभव कार्य नहीं था मगर हमारे राजनेताओं और विचारकों ने कभी इस पर गंभीरता से विचार नहीं किया.  उन्होंने कभी इस पर नहीं सोचा कि चुनाव किस तरह के नकारात्मक सामाजिक प्रभाव पैदा करते हैं, किस तरह चुनावी प्रतिद्वंद्विता को वैयक्तिक प्रतिद्वंद्विता में बदलते हैं, और पारिस्परिक मतभेदों को किस तरह आपसी शत्रुता में परिवर्तित कर हिंसा को बढ़ावा देते हैं. चुनावों के प्रभाव का औपचारिक समापन उनके परिणामों के साथ मान लिया जाता है. चुनाव के दौरान पैदा हुई शत्रुताओं को अनदेखा कर दिया जाता है और उन्हें मिटने या बढ़ने के लिए अपने हाल पर छोड़ दिया जाता है, जबकि इन शत्रुताओं का उपचार चुनाव प्रक्रिया का हिस्सा होना चाहिए.

चुनाव प्रक्रिया का हिस्सा होने का तात्पर्य यह नहीं कि यहां भी सरकार या चुनाव आयोग कोई नयी कानूनी व्यवस्था लागू करें, बल्कि यह है चुनावों की एक सामाजिक संस्कृति विकसित की जाए, जो सरकार या चुनाव आयोग पर निर्भर नहीं करे. इसके विपरीत, यह विशुद्ध तौर पर एक सामाजिक प्रयास हो. जिस तरह एक धार्मिक त्योहार या पर्व के अवसर पर सभी राजनीतिक दलों के लोग एक साथ मिल एक परंपरा के अनुसार उत्सव मनाते हैं, कुछ-कुछ उसी तरह. मसलन, किसी भी क्षेत्र में चुनावों की घोषणा के साथ ही एक नागर पहल शुरू हो जानी चाहिए. जैसे ही नामांकन प्रक्रिया समाप्त हो और प्रत्याशियों के नाम अंतिम तौर पर घोषित हो जाएं तो नागर पहल के तरह एक ऐसा उत्सव आयोजित किया जाए, जिसमें सभी प्रत्याशी चाहे वे दलीय हों या निर्दलीय, एक मंच पर एकत्रित हों. वे आपस में मित्रतापूर्ण वर्ताव करें और लोगों को साझा संदेश दें कि वे किसी भी तरह की हिंसा का समर्थन नहीं करते और अपने समर्थकों से अपील करें कि वे हिंसा से दूर रहें.

इसी तरह का नागर समारोह चुनाव परिणाम आने के तुरंत बाद आयोजित किया जाना चाहिए, जिसमें विजयी प्रत्याशी के साथ-साथ सभी पराजित प्रत्याशी भी भाग लें. नागर समाज सभी को सम्मानित करे. पराजित प्रत्याशी और विजयी प्रत्याशी विनम्र शब्दों में एक दूसरे से चुनाव के दौरान पैदा हुई कटुताओं को भुलाने का आग्रह करे और क्षेत्र की बेहतरी संबंधी आए सुझावों को चाहे वे धुर विरोधी की ओर से ही क्यों न आये हों, क्रियान्वित करने का वादा करे. इससे हिंसक तत्व हतोत्साहित होंगे. यह प्रक्रिया हर छोटे-बड़े चुनाव के साथ जुड़नी चाहिए. इस तरह के सुझाव मौजूदा माहौल में भले ही बचकाने लगें, लेकिन हिंसक चुनावी संस्कृति को बदलने के लिए सामाजिक प्रयोग जरूरी हैं. ऐसे नागर प्रयास जो स्वयं नागरिकों की ओर से क्रियान्वित हों, हिंसा विरोधी चुनावी संस्कृति को समृद्ध करेंगे. चुनाव से पूर्व और चुनावोपरान्त हिंसा को रोकने में मददगार होंगे. जरूरत सार्थक पहलकदमी की है.

विभांशु दिव्याल
लेखक


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