विकास की दुविधा
विकास के शिखर पर बैठा आज का अकेला मनुष्य जहां अपनी उपलब्धियों को गिनता हुआ बड़ा प्रसन्न और गर्वस्फीत हो रहा है, वहीं इससे भी नहीं नकारा जा सकता कि आज मानव सभ्यता कई तरह की त्रासदियों से गुजर रही है.
गिरीश्वर मिश्र |
भौतिक उपलब्धि के मुकाम पर आकर वह उलझी हुई सी और ठिठकी हुई सी है. उसकी त्रासदियों में शायद सबसे बड़ी त्रासदी खुद मनुष्य के अस्तित्व को लेकर है. यह बात तो साफ जाहिर है कि बाहर की दुनिया में हमारी प्रगति की रफ्तार बड़ी तेज है पर अंदर की दुनिया में क्या हो रहा है, यह चिंता का विषय बनता जा रहा है.
भौतिक उपलब्धियां तो निश्चय ही खूब बढ़ी हैं पर अंदर की दुनिया में कुहराम भी मच रहा है.
इस बात के पुख्ता प्रमाण हैं कि आतंरिक शान्ति, प्रगति और स्वास्थ्य की दृष्टि से मनुष्य पिछड़ रहा है. वह असमंजस में पड़ा है और उसे इन सवालों के जवाब ढूंढ़ने मुश्किल हो रहे हैं कि आखिर वह है कौन? इस सृष्टि के साथ उसका क्या रिश्ता है? इस सृष्टि के साथ वह कैसे जुड़े? जुड़े भी कि नहीं? हमारा अनुभव बता रहा है कि अब सृष्टि-केंद्रित व्यापक अस्तित्व के विचार की जगह व्यक्ति-केंद्रित विचार मजबूत हो रहा है. हम सभी चीजों को बांट कर देखते हैं, और फिर श्रेणियों को उनकी परिभाषा में बांध कर स्याह-सफेद की परस्पर विरोधी वस्तुएं बनाते रहते हैं, जो एक दूसरे से बिल्कुल भिन्न होती हैं. पुरु ष-स्त्री, मैं-तुम, पूर्व-पश्चिम, निज-पर आदि की श्रेणियां ऐसे ढंग से भिन्न वस्तुओं के रूप में प्रस्तुत की जाती हैं, मानो एक का दूसरे से कोई लेना-देना ही न हो.
हमारी अधूरी सोच की शैली में बदलाव जरूरी हो गया है. बाहरी दुनिया ही नहीं, बल्कि आतंरिक दुनिया में भी बदलाव जरूरी है. दुनिया में एकता, शान्ति और समरसता के लक्ष्य अगर पाने हैं, तो सब कुछ अर्थात समग्र को देखना ही पड़ेगा और उनकी पारस्परिकता को पहचानना होगा. आत्मबोध जरूरी है और हर एक की अपनी पहचान भी होनी चाहिए. हम अपने बारे में क्या जानते हैं, यह निजी अनुभव का विषय है. जब हम खुद अपने करीब होते हैं, शायद प्रतिदिन ही, तो कुछ एक क्षणों में ऐसा जरूर अनुभव हमें होता है. शायद हम दुनिया को प्रत्यक्ष, विचार और आध्यात्मिक दृष्टि से अलग-अलग ढंग से देखते हैं.
ज्ञान और संचार मानसिक दृष्टि से भाषा, भाव और चेतना, इन तीन स्तरों पर सक्रिय होते हैं. पहले में हम प्रतिमाएं, प्रतीक, संप्रत्यय की सहायता लेते हैं. दूसरा स्तर है-संवेग और भावना का. तीसरा स्तर है-अनुभव, सूझ और अवधान का. जब हमारी दृष्टि समग्र की और उन्मुख रहती है तो ये तीनों एक साथ काम करते हैं. सामान्य जीवन में व्यक्ति अक्सर पहले स्तर से ही जुड़ा रहता है. संवेग और भावना का अनुभव भी अहं की सीमा में, जीवन रक्षा और निश्चितता की चाह से जुड़ा रहता है. असुरक्षा में कुएं के मेढक की तरह ही जीना होता है. जब चेतना के स्तर पर जीते हैं, तो विश्व से जुड़ते हैं.
जीवन के लिए संचार अनिवार्य है. पर आज संचार के सरोकार बाजार से परिचालित हो रहे हैं. वास्तविक अथरे में संचार समग्रता में मानव अभिव्यक्ति के सम्प्रेषण का एक बहुस्तरीय तरीका है जिसमें सारी संवेदनाएं समाविष्ट हैं. जब हम समग्र या समूचे की बात करते हैं, तो उसका अर्थ होता है सभी अंश एक किसी एक को ‘बिलोंग’ करते हैं. वे आपस में अंतर्गथित हैं. वास्तविक संचार में व्यक्ति समष्टि में भाग लेता है क्योंकि सृष्टि का जीवन भागीदारी वाला जीवन है, उसके बिना कुछ भी नहीं रहता. जीवन में भागीदारी के रूप में संचार की यह अपेक्षा है कि समानुभूति, दूसरों के साथ सहभाव, दूसरे की भाषा को भी जाने. संचार में व्यक्ति अपनी चेतना को इस तरह बदलता है कि वह दूसरे की चेतना का हिस्सा बन जाती है. इसके लिए संवाद और संवेदना का आधार चाहिए.
जीवंत अनुभव से उपजा संचार और प्रतिभागिता ‘निज’ और ‘पर’ के बीच संवाद का आधार बन सकता है. शायद वास्तविक ज्ञान की राह भी ऐसी ही है. दूसरे को समझना सिर्फ सूचना का लेन-देन नहीं होता है. यह सभी के लिए सीखने की प्रक्रिया है. आज का आधुनिक आदमी सिर्फ अभिव्यक्ति या अपने प्रदशर्न से ही मतलब रखता है. वह भाषा का अतिशय उपयोग करता है. अक्सर अंदर-बाहर के शोर में ऊपर आती गुटरगूं ही सुनाई पड़ती है. पूरा श्रवण तो वह होगा, जिसमें अकथित या मौन तथा भाषा, दोनों ही समन्वित हों. हमारे ब्रह्माण्ड में सारे अवयव एक दूसरे से जुड़े हैं, और हर कोई दूसरे में शामिल भी होता है. दूसरों के लिए सहज उन्मुक्तता के बिना असली संचार संभव नहीं होगा.
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