मोदी, संघ और विपक्ष

Last Updated 29 May 2016 04:39:50 AM IST

नरेन्द्र दामोदर दास मोदी भारतीय राजनीतिक क्षितिज पर उभरा एक ऐसा नाम है, जिसने हर किसी को प्रभावित किया, चाहे जिस रूप में हो.


मोदी, संघ और विपक्ष

चाहे वे सहयोगी रहे हों या विपक्षी. पिछले डेढ़ दशक में राज्य की राजनीति से लेकर केंद्र के मुखिया के तौर पर अपना सफर तय किया है. गुजरात के मुख्यमंत्री और विकास की राजनीति और विवादों को भी अपने साथ साथ लेकर चलते गए. कई बार ऐसा लगा कि उनका राजनीतिक सफर अब खत्म हो जाएगा. पर बार-बार वे काफी मुखर हो कर बरकरार रहे. प्रदेश में राजनीतिक विरोधी उनकी पार्टी में भी रहे और उनके बाहर भी. पर समय-समय पर नतमस्तक होते गए. इसी यात्रा को आगे बढ़ाते हुए केंद्र में भारतीय जनता पार्टी के प्रधानमंत्री पद के उम्मीदवार भी बने. पार्टी को अर्श से लेकर फर्श तक खड़ा करते हुए पूर्ण बहुमत की सरकार बनाने में सफल रहे. जैसा, 1984 के बाद केंद्र की राजनीति में देखने को नहीं मिला था. विवादास्पद छवि और पार्टी के शीर्ष नेताओं के विरोध को दरकिनार करते हुए भारत के ऐसे प्रथम प्रधानमंत्री बने जिसका संबंध कांग्रेस से कभी नहीं था, और बहुमत भी हासिल था.

जनादेश इतना बड़ा था कि स्वयं मोदी भी जिम्मेदारियों को दरकिनार नहीं कर सकते थे. राह कठिन थी, लेकिन भागीरथी प्रयास की जरूरत थी. पार्टी के सीमित संसाधनों के साथ उन्हें सरकार को आगे लेकर चलना था. उन्हें यह भी पता था कि सफर गुजरात की तरह मुश्किल भी नहीं होगा और आसान भी नहीं. व्यक्तित्व ऐसा रहा कि किसी के अंदर रहकर बेहतर नेतृत्व प्रदान नहीं कर सकता था. सो, उन्होंने विरोध के बावजूद अपनी टीम खड़ी की और शीर्ष नेताओं को सलाहकार की भूमिका तक सीमित कर दिया. यह भारतीय जनता पार्टी के अंदर एक बड़ी घटना इसलिए थी, क्योंकि एक कैडर पार्टी होने के कारण पदानुक्रम निश्चित रहता है. जो राष्ट्रीय स्वयंसंघ की अनुशंसा पर काम करता है. इसके बावजूद जोशी और आडवाणी जैसे नेताओं की भूमिका को सीमित करने में संघ के सहयोग से कामयाब रहे. इस घटना को पार्टी के अंदर नरेन्द्र मोदी की जीत माना गया. इससे भारतीय जनता पार्टी पर उनकी पकड़ ज्यादा मजबूत हुई. और एक नसीहत भी जो भविष्य में उनको चुनौती दे सकते थे. उसके बाद नए चेहरों को मंत्रिमंडल में जगह देकर और मुख्यमंत्री पद देकर अपनी किलेबंदी मजबूत की. अपने कुशल नेतृत्व और राजनीतिक धैर्य और सूझ-बूझ के दम पर पिछले दो सालों में उम्मीद से परे विभिन्न स्तरों पर प्रतिष्ठा कायम की है.

धैर्य और संतुलन बनाए रखा मोदी ने
पिछले दो सालों में चाहे विदेश नीति रही हो या आर्थिक-सामाजिक नीति की दिशा में बढ़ाया गया कदम हो, मोदी ने हमेशा धैर्य और संतुलन के साथ सत्ता के गलियारों में चहलकदमी की और अपनी एक अमिट छाप छोड़ी. सरकार की सबसे बड़ी उपलब्धि और आकलन का आधार होता है उसके प्रति धारणा. देखा जाए तो तो मोदी ने इस धारणा को बनाए रखा है कि देश में सरकार कुछ कर रही है. हालांकि उन्हें कुछ प्रदेशों के चुनावों में हार का सामना करना पड़ा. फिर भी देश में प्रधानमंत्री के रूप में वह पहली पसंद है. ऐसा इसलिए भी संभव है कि विपक्ष के पास प्रधानमंत्री के रूप में टक्कर देने वाले नेतृत्व का अभाव है. राहुल गांधी ने विकल्प के रूप में लोगों को निराश किया.

मोदी को अपने शासनकाल में सबसे ज्यादा चुनौतीपूर्ण लगा होगा तो संघ के साथ संतुलन स्थापित करते हुए विपक्ष के हमलों को झेलना. इस मुद्दे पर उनकी लड़ाई दोतरफा रही है. एक तरफ विपक्ष का हमला रहा है, जो आरोप लगाता रहा है कि सरकार पर संघ हावी है. कांग्रेस इस आरोप के माध्यम से विपक्ष को एकजुट रखने का प्रयास करती रही है, और साथ ही राज्य सभा में सशक्त चुनौती देने में कामयाब भी रही है. वहीं मोदी ने कभी इनकार नहीं किया किया कि संघ का सहयोग उन्हें नहीं मिलता. वे ऐसा कर भी नहीं सकते क्योंकि वैचारिक स्तर पर पर खुद को अलग नहीं दिखा सकते. मोदी यह भली-भांति जानते हैं, चाहे वो जनता पार्टी की सरकार रही हो, जिसमें जनसंघ एक सहयोगी पार्टी थी. चाहे अटल बिहारी वाजपेयी की रही हो. विपक्ष ऐसे हमले करता रहा है. यह उनके लिए नई चुनौती नहीं है.

मोदी की लड़ाई संघ के पहलू को लेकर ज्यादा रही है. जहां संघ के आनुषंगिक संगठनों और नेताओं ने ज्यादा परेशान किया. जहां तक बात संघ से रिश्तों को लेकर सवाल है, तो मोदी और संघ प्रमुख मोहन भागवत के रिश्ते सहज रहे हैं पुराने दिनों से. दोनों एक दूसरे को असहज होने से बचाते रहे हैं. ऐसा संबंध तत्कालीन संघ प्रमुख सुदशर्न और अटल बिहारी वाजपेयी के दौरान भी देखने को नहीं मिला था. संघ के आनुषंगिक संगठनों से मिलने वाली चुनौतियों से निपटने में मोहन भागवत का पूर्ण सहयोग मिला और अपने विकास के संदर्भ में किए गए वादों पर भरोसा दिलाने में सफल रहे. यह लाज़िमी भी है कि उन्हें विकास पुरु ष के नाम पर वोट मिला है.

इसके इतर जब हम संघ और उसके नेताओं के बयानों को देखें तो भी वहां आमूलचूल परिवर्तन देखने को मिला है. जो कहीं ना कहीं भारतीय जनता पार्टी और नरेन्द्र मोदी के लिए सुखद स्थिति है. चाहे वो धर्मातरण हो या असहिष्णुता के नाम पर विपक्ष द्वारा भ्रम फैलाने का मुद्दा रहा हो या फिर आरक्षण को लेकर सवाल रहे हों. संघ ने खुलकर मोदी में आस्था जताई है. आनुषांगिक संगठनों और उनके नेताओं के बयानों की ध्वनि को धीमा करने में संघ के नेताओं खासकर शीर्ष पद पर बैठे  व्यक्तियों का भरपूर सहयोग मिला है. धर्मातरण के मुद्दे पर संघ ने साफ़ किया कि सरकार का इसमें कोई दखल नहीं है, और ये उनका अपना दायरा है जो कि वर्षो से करते आ रहे हैं. इसमें किसी के हस्तक्षेप की गुंजाइश नहीं है. असहिष्णुता के मुद्दे पर भी संघ और सरकार दोनों का सुर एक समान था. सरकार कानून व्यवस्था के मामले में किसी दुर्भावना से काम नहीं कर रही. भारत माता की जय बोलने के मुद्दे पर भी सरकार ने अपनी स्थिति स्पष्ट रही है. इसी मुद्दे पर बोलते हुए मोहन भागवत ने भी स्पष्ट किया है कि भारत माता कि जय बोलना व्यक्तिगत मामला है, इसके लिए किसी पर दबाव नहीं बनाया जा सकता. इन सब मुद़्दों में संघ ने सरकार का पूरा साथ दिया जबकि विपक्ष मुखर रहा.

आरक्षण पर फंसा पेच
भारतीय राजनीति में आरक्षण एक प्रमुख मुद्दा रहा है. विपक्ष हमेशा से भारतीय जनता पार्टी पर हमला करता रहा है कि संघ और मोदी का इस पर स्पष्ट मत नहीं है. इसी क्रम में मोहन भागवत के बयान को विपक्ष ने खूब इस्तेमाल किया. अपनी बढ़त बनाने के लिए और उसमें सफल भी हुए. हालांकि भारतीय जनता पार्टी बिहार चुनाव में बुरी तरह पराजित हुई पर संघ के नेताओं भैया जी जोशी और मोहन भागवत ने स्थिति और नीति को स्पष्ट करने का प्रयास किया. भैया जी जोशी ने आरक्षण की नीति को सही ठहराया और कहा कि आरक्षण का फायदा जिन्हें मिल चुका है और सुखद स्थिति में हैं, उन्हें खुद ही आरक्षण के दायरे से अलग कर लेना चाहिए. साथ में यह भी कहा कि यह भी सोचना चाहिए कि आरक्षण का फायदा वंचित वर्ग को मिल पाया है या नहीं. भैया जी जोशी और मोदी के रिश्ते जगजाहिर हैं. उन्हें शुरु आत में संगठन से बाहर का रास्ता देखना पड़ा क्योंकि मोदी नाखुश थे. पुन: मोहन भागवत के प्रयासों से वापसी हुई.

दूसरी तरफ मोहन भागवत ने स्पष्ट किया कि आरक्षण नीतिगत और सही फैसला था और पं. दीनदयाल उपाध्याय के एकात्म मानववाद के सिद्धांतों के अनुरूप रहा है. इस प्रकार हम देखते हैं कि संघ ने सरकार को आगे आकर स्थिति को स्पष्ट करने में मदद की जब भी सरकार असहज स्थिति पड़ी. इसी तरह विपक्षी पार्टयिों द्वारा लगातार यह गलतफहमी फैलाने की कोशिश की गई कि सरकार के अंदर सब कुछ सही नहीं चल रहा है. और संघ अनावश्यक हस्तक्षेप कर रहा है पर वास्तविकता में परिस्थिति एकदम उल्ट है. संघ और सरकार के दरम्यान सहयोग अपेक्षा के अनुरूप है. एक तरफ संघ जानता है कि सरकार का रहना कितना आवश्यक है तो दूसरी तरफ सरकार को भी पता है कि कार्यकर्ता उसकी ताकत हैं.

संदीप भारद्वाज
असि. प्रो. दिल्ली विवि


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