मोदी खुद ही करें मूल्यांकन

Last Updated 28 May 2016 05:16:14 AM IST

किसी के चरित्र का सब से अच्छा जानकार उसका विरोधी होता है.


मोदी खुद ही करें मूल्यांकन

कौन है जो अपने को महामानव नहीं समझता. बाली को छिप कर मारने वाले, शंबूक की अकारण हत्या करने वाले और निर्दोष सीता को आजीवन वनवास देने वाले राम भी अपने को ऐसा ही समझते थे. अखबारों और टीवी चैनलों से बच कर रहियो. वे मुंह देख कर टीका लगाते हैं. जनमत पर भी मत जइयो. उसका पता लगाना सौ किलोमीटर दूर से समुद्र की लहरें गिनना है. जो संस्थाएं जनता की राय का सर्वे करती हैं, उन्हें पहले से पता होता है कि किसी खास मुद्दे पर जनता क्या सोचती है. वह वही सोचती है जो सर्वे करने वाले सोचते हैं. सर्वे करने वालों का काम उस सोच पर मुहर लगाना भर होता है. अपने मित्रों और परिचितों की राय पर जाना तो और भी खतरनाक है. जो मोदी का समर्थक है, वह कहेगा, मोदी ने बहुत अच्छा काम किया है. जो मोदी का विरोधी है, वह सौ में पांच नम्बर देने को भी तैयार नहीं होता. हमारे यहां का उसूल यह है कि काम बाद में होता है, उसके बारे में राय पहले बन जाती है.


इसलिए मैंने सोचा कि प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी के दो साल पूरे होने की सही समीक्षा तो स्वयं मोदी की कर सकते हैं. प्रधानमंत्री मोदी के रूप में नहीं, नेता, विपक्ष के रूप में. इतिहास ने प्रमाणित किया है कि दूसरी राय ज्यादा सच्ची होती है. मनमोहन सिंह अपनी निगाह में देश के सर्वश्रेष्ठ प्रधानमंत्री थे. लेकिन विपक्ष की निगाह में उनका शासन दो कौड़ी का भी नहीं था. जब चुनाव हुआ, तो विपक्ष का मूल्यांकन ज्यादा सही निकला. हो सकता है, तीन साल बाद एक बार फिर यही साबित हो. लेकिन दिल्ली में प्रचलित इस कहावत में दम है: कल किसने देखा है. कल की सोचता तो कोई प्रधानमंत्री या मुख्यमंत्री फेल क्यों होता? शायर ने कहा है, आकबत (भविष्य) की खबर खुदा जाने, आज तो चैन से गुजरती है. गजब यह है कि इस मामले में वामपंथी भी खुदा में यकीन रखते हैं, वरना वे आज की चिंता न करते? वे इतिहास के बारे में इतिहास से ज्यादा जानते हैं. 

मोदी के बारे में किसकी क्या राय
लेकिन प्रधानमंत्री मोदी के बारे में नेता, विपक्ष मोदी क्या सोचते हैं, यह कैसे मालूम हो? राजनेताओं के बारे में बहुत पुरानी राय यह है कि वे जो सोचते हैं, वह बोलते नहीं हैं, और जो बोलते हैं, वह सोचते नहीं हैं. यह तो पुलिस वाले ही जानते हैं कि कोई क्या सोचता है, यह उससे कैसे बुलवा लिया जाए. लेकिन पुलिस नेता पर शासन नहीं करती, नेता पुलिस पर शासन करता है. पुलिस की तरह नेता भी सब मिले रहते हैं. इसलिए किसी का सच सामने नहीं आ पाता. इसी आधार पर नेता दावा करता है कि पुलिस अपना काम करने के लिए स्वतंत्र है, उस पर हमारा कोई दबाव नहीं होता, और पुलिस दावा करती है कि हम पर कोई राजनीतिक दबाव नहीं है, कानून अपना काम कर रहा है.

लेकिन प्रकृति ने हमारी बौद्धिक कमियों को पूरा करने के लिए हम सभी को एक अद्भुत चीज दी है, जिसका नाम है कल्पना. कल्पना के सहारे ही हम समझ जाते हैं कि कौन आतंकवादी है और कौन आतंकवादी नहीं है, किसे हवाई अड्डे पर रोका जाना चाहिए और किसे नहीं तथा कौन राष्ट्रभक्त है और कौन राष्ट्रद्रोही. सिर्फ  सबूत के आधार पर काम होता, तो देश में कोई काम ही नहीं हो पाता. पुलिस हाथ पर हाथ धरे बैठी रहती. इसलिए वह गिरफ्तार पहले करती है, सबूत बाद में खोजती है. हमरी न मानो, तो कन्हैया से पूछो. तो उसी कल्पना शक्ति के सहारे मैं लिखता हूं कि एक मोदी दूसरे मोदी के बारे में क्या सोचते हैं.

अर्थात नरेन्द्र मोदी अगर विपक्ष के नेता होते, तो वे प्रधानमंत्री मोदी के दो वर्ष के कार्यकाल पर किस तरह के विचार व्यक्त करते.
विदेश यात्रा के बारे में : कुछ के बारे में कहा जाता है कि वे भूल भले जाएं पर माफ नहीं करते, कुछ के बारे में यह कि वे माफ भले कर दें, पर भूलते नहीं हैं. मोदी की खासियत यह है कि वे न भूलते हैं, न माफ करते हैं. कोई चाहे तो लालकृष्ण आडवाणी से इसकी तसदीक कर सकता है. आडवाणी कुछ न बोलें, तो मुरली मनोहर जोशी से पूछा जा सकता है. मोदी जब गुजरात के मुख्यमंत्री थे, तब एक बार अपनी छवि सुधारने के लिए अमेरिका जाना चाहते थे. पर अमेरिका ने वीसा जारी नहीं किया. लगता है कि प्रधानमंत्री उसी का बदला चुका रहे हैं.

वे बार-बार अमेरिका जाते हैं, ताकि अमेरिका के प्रेसिडेंट को लज्जित कर सकें. वे अमेरिका ही नहीं, दूसरे देशों में भी जाते हैं, ताकि दिखा सकें कि पूरी दुनिया उनकी मुट्ठी में है. दरअसल, भारत की राजधानियों की सैर करने में कोई मजा नहीं है. मजा यह दिखाने में है कि अन्य देशों में कितना स्वागत होता है. इसलिए एक देश का सूटकेस खाली करने के बाद वे दूसरे देश का सूटकेस तैयार करने लग जाते हैं. यह मनोविज्ञान का मामला है, इसलिए मैं इस पर टिप्पणी नहीं करूंगा. टिप्पणी इसलिए भी नहीं करूंगा क्योंकि इसका ताल्लुक अन्य देशों से हमारे संबंधों से है.

चुप्पी साध लेने पर : लोग प्रधानमंत्री मोदी को मौनी बाबा कहने लगे हैं. मैं भी इस आरोप को दुहरा सकता हूं. लेकिन नेता, विपक्ष होने के कारण मेरा कर्तव्य बनता है कि मैं कभी-कभी सच भी बोलूं. असली मौनी बाबा तो नरसिंह राव थे.

बाबरी मस्जिद ढहा दिए जाने के बाद भी वे कुछ नहीं बोले. मनमोहन सिंह की आवाज अच्छी है, पर उन्होंने पता नहीं क्यों राव का अनुकरण किया था. और देशों में यह होता है कि प्रधानमंत्री बोलता है, देश सुनता है. हमारे यहां देश बोलता है, प्रधानमंत्री सुनता है. लेकिन कांग्रेस के प्रधानमंत्रियों और नरेन्द्र मोदी में एक बुनियादी फर्क है. वे अनवरत चुप रहते थे. मोदी जानते हैं कि कब बोलना है, और कब चुप रहना है. इसलिए मैं उनकी चुप्पी को चुप्पी नहीं समझता. दरअसल, मेरा खयाल है कि उनकी चुप्पी उनके शब्दों से ज्यादा बोलती है. एक बार अमेरिका के राष्ट्रपति निक्सन ने कहा था: रीड मई लिप्स (मेरे होंठों को पढ़ो). वैसे ही, जब मोदी ने चुप्पी साध ली हो, तब लोगों को चाहिए कि वे उनके होठों को पढ़ने की कोशिश करें. इसके अलावा, मुक्तिबोध ने कहा था, सभी जगह अर्थ नहीं होता है. कभी-कभी व्यर्थ भी होता है.

मोदी पर आरोप

अच्छे दिन आ रहे हैं : प्रधानमंत्री मोदी पर आरोप लगाया जाता है कि चुनाव के पहले ‘अच्छे दिन आ रहे हैं’ कह कर उन्होंने जनता को गुमराह किया था. मुझे भी यही कहना है. मोदी ब्लफ मास्टर हैं. लेकिन इसमें कोई नई बात नहीं है. हर प्रधानमंत्री यही करता है. क्या कांग्रेस 1947 से ही यही झांसा नहीं दे रही है? नतीजा यह निकला कि उसके अपने अच्छे दिन भी पता नहीं कहां चले गए. अब वे लौटेंगे भी नहीं, क्योंकि ‘अच्छे दिन आ रहे हैं’ कहने की बारी अब किसी और की है. इस बारे में मैं अमित शाह की दाद देता हूं. भाजपा अध्यक्ष ने ठीक ही कहा कि यह एक जुमला था. दरअसल, लोकतंत्र जुमलों से ही चलता है. ‘गरीबी हटाओ’ क्या जुमला नहीं था? ‘समाज का समाजवादी पैटर्न’ क्या जुमला नहीं था? ‘जय जवान जय किसान’ भी तो जुमला ही साबित हुआ. मोदी से मेरी शिकायत यह है कि उन्होंने बहुत कमजोर जुमला चुना. तभी तो आज हर कोई पूछ रहा है कि अच्छे दिन कब आएंगे. मुझसे राय लेते तो मैं दूसरा जुमला बताता ‘हम होंगे कामयाब एक दिन’. इसमें यह नहीं बताया गया है कि किस दिन. आरएसएस 1925 से यह नारा दुहरा रहा है.

काला धन : प्रधानमंत्री मोदी की सब से बड़ी विफलता मैं इसे ही मानता हूं. उन्हें इस तरह का वादा नहीं करना चाहिए था. हमारे देश का रिवाज यह है कि काला धन प्रधानमंत्री का पीछा करता है, प्रधानमंत्री काला धन का पीछा नहीं करता. इसलिए मैं दावा करता हूं कि कोई भी कम्युनिस्ट इस देश का प्रधानमंत्री नहीं बन सकता. वह सफेद धन के पीछे पड़ा रहता है. काला धन इस देश की गंगा है. गंगा में सभी डुबकी लगाते हैं, और फिर भी पाक बने रहते हैं. विश्वनाथप्रताप सिंह ने भी काला धन निकालने का वादा किया था. यहां मैं एक रहस्य खोलना चाहता हूं. वे सफलता के बहुत करीब पहुंच गए थे. तभी उनकी गद्दी खिसका दी गई. आडवाणी की गिरफ्तारी तो मात्र बहाना थी. प्रधानमंत्री का काम सफेद धन को बढ़ाना है, काला धन को कम करना नहीं. काला धन उद्योगपतियों, फिल्म कलाकारों और नेताओं का व्यक्तिगत मामला है. उसमें किसी और को दखल नहीं देना चाहिए.

विदेश नीति : हिटलर के मर जाने के बाद आरएसएस की कोई विदेश नीति नहीं रही. मोदी की भी कोई विदेश नीति नहीं है. वे अमेरिका को भी उतना ही प्यार करते हैं, जितना चीन को. उनकी निगाह में रूस भी उतना ही अच्छा है, जितना इस्रइल. यह भी कह सकते हैं कि कोई भी देश उनके लिए विदेश नहीं है. एक हवाई जहाज से उतर कर दूसरे हवाई जहाज में दाखिल होते-होते कहीं वे कभी यह कह न बैठें-दिल्ली मेरा परदेस. लेकिन यह भी अच्छा ही होगा. जिस दिन उन्हें यह एहसास होगा कि भारत उनके लिए देश नहीं, विदेश है, वे यहां ज्यादा आने लगेंगे. मोदी की विदेश नीति का एकमात्र पैमाना पाकिस्तान है. लेकिन मैं चेतावनी देना चाहता हूं कि वह एक ऐसा लंगूर है, जो किसी एक डाल से नहीं लटका रह सकता. शायद इसीलिए मोदी भी दोनों हाथों से शतरंज खेल रहे हैं. इसके लिए उन्हें बधाई दी जा सकती है.

शासन : उनके शासन के बारे में क्या कहा जाए जिन्हें शासन के लिए ही जाना जाता है. महाकवि तुलसी ने लिखा है, भय बिनु होय न प्रीत. मोदी ने इसे साबित कर दिया है. आखिर, दोनों उत्तर प्रदेश के ठहरे. एक वहां का कवि, दूसरा वहां का सांसद. लोकतंत्र में शासन का मतलब होता है प्रशासन और सच यह है कि केंद्र के हाथ में प्रशासन है ही नहीं. यह राज्यों का विषय है. सो, केंद्र के गृह मंत्री ने अपने हाथ में यह काम ले लिया कि आतंकवादियों और देशद्रोहियों पर नजर रखें. लेकिन दो साल में राजनाथ सिंह को दो सौ भी नहीं मिले. जो पांच-सात मिले, वे जेएनयू में मिले. पर वे स्मृति ईरानी के विभाग के थे. बाकी से निपटने का जिम्मा छत्तीसगढ़ सरकार ने ले रखा है. इस बारे में मोदी क्या कर सकते हैं? हां, उन्होंने भाजपा का प्रशासन अच्छी तरह संभाला हुआ है. कोई चूं करके तो देखे.

समग्र मूल्यांकन : मोदी का समग्र मूल्यांकन करना कठिन है. अभी  तक वे समग्रता से प्रगट कहां हुए हैं? अभी तो सिर्फ  दो साल हुए हैं. मेरे खयाल से, जिसे आपने पांच साल दे रखे हैं, उससे दो साल में ही सवाल पूछना अशिष्टता है. यह लोकतंत्र का अपमान भी है. इसलिए विपक्ष का नेता हुए भी मैं कोई टिप्पणी करना नहीं चाहता. वैसे भी, यह ‘सेल्फ-एसेसमेंट’ का युग है. इसलिए मोदी अपने काम का जो मूल्यांकन करते हैं, उसे हमें स्वीकार कर लेना चाहिए. मूल्यांकन तो उनका होगा, जो मोदी का विरोध करते हैं. वे चाहे पार्टी में हों या देश में.

राजकिशोर
वरिष्ठ पत्रकार


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