केरल : वामपंथ की वापसी

Last Updated 27 May 2016 05:44:08 AM IST

जैसा कि आम तौर पर अनुमान लगाया जा रहा था, 2016 के विधानसभायी चुनाव में केरल में वामपंथ ने जीत का परचम लहराया है, और कांग्रेस के हाथ से एक और राज्य निकल गया है.


केरल : वामपंथ की वापसी

सीपीआई (एम) के नेतृत्व वाले एलडीएफ ने 140 सदस्यीय विधान सभा में 91 सीटें हासिल कर पांच साल बाद जोरदार तरीके सरकार में वापसी की है. दूसरी ओर, कांग्रेस के नेतृत्व वाला सत्ताधारी यूडीएफ 47 सीटों पर सिमट कर रह गया है. एक सीट भाजपा को मिली है, जिसके बुजुर्ग नेता, पूर्व केंद्रीय मंत्री ओ राजगोपाल ने, नौ कोशिशों के बाद जीत हासिल कर, अपनी पार्टी को पहली बार केरल विधान सभा में प्रवेश दिलाया है. एक एक निर्दलीय उम्मीदवार के हिस्से में रही है.

केरल इस देश का सबसे ज्यादा साक्षर राज्य है. देश के दक्षिणी छोर पर स्थित इस राज्य में पिछले करीब चार दशकों से यही नियम बना रहा है कि हर चुनाव में, पिछली सरकार हार जाती है. इस राज्य की राजनीति, जहां 1957 में सिर्फ भारत में ही नहीं बल्कि दुनिया भर में पहली बार, चुनाव के जरिये कम्युनिस्ट सरकार बनी थी, हमेशा से कम्युनिस्ट तथा कांग्रेस, दो ध्रुवों के बीच बंटी रही है. प्रसिद्ध कम्युनिस्ट नेता, ई एम एस नंबूदिरीपाद के नेतृत्व में बनी पहली कम्युनिस्ट सरकार ने जिन व्यापक तथा दूरगामी सामाजिक, आर्थिक, सांस्कृतिक तथा राजनीतिक प्रक्रियाओं को उन्मुक्त किया था, उनके परिणामस्वरूप इस राज्य के जीवन में दो तरह की विशिष्टताएं पैदा हुई हैं, जो इस राज्य को देश के दूसरे अनेक राज्यों से अलग करती हैं.

पहली तो यह कि इस राज्य में एक हद तक ‘कल्याणकारी शासन’ का मॉडल स्थापित हो गया है, जिसका सबूत मानव विकास के अधिकांश सूचकांकों पर केरल का देा भर में शीर्ष पर बने रहना ही नहीं है बल्कि अनेक विकसित देशों से टक्कर लेना भी है. यह समझना मुश्किल नहीं है कि कम-से-कम जनतांत्रिक व्यवस्था में इस मॉडल को समेटना, पक्के से पक्के नव-उदार नीति समर्थकों के लिए भी संभव नहीं है.

दूसरी ओर, संभवत: इसके कारण तथा परिणाम, दोनों के रूप में, इसके साथ द्वंद्वात्मक रूप से जुड़ी हुई विशिष्टता, इस राज्य की राजनीति के सीपीआइ (एम) और कांग्रेस, दो ध्रुवों के गिर्द निर्मित, दो राजनीतिक गठबंधनों, क्रमश: एलडीएफ तथा यूडीएफ में बंटी होने में है. राज्य की चुनावी राजनीति लगभग पूरी तरह से इन दोनों मोचरे की होड़ पर ही केंद्रित बनी रही है. इन दोनों मोचरे से बाहर, इस बार अगर भाजपा तथा निर्दलीय के हिस्से में एक-एक सीट आ गई है, तो ऐसा अपवादस्वरूप ही हुआ है. जैसा हमने पीछे कहा, हर चुनाव में इन दोनों के बीच सत्ता-बदल हो जाता है, हालांकि यह भी याद रखना चाहिए कि मत फीसद के बहुत थोड़े से ही अंतर से, दोनों के बीच सत्ता इधर-से-उधर होती आई है.

वैसे 2011 के चुनाव में जरूर एलडीएफ, विधानसभाई चुनाव में सत्ता-बदल के इस नियम को झुठलाने के बहुत करीब तक पहुंच गया था और इस सबसे कम अंतर वाले चुनाव में, सिर्फ तीन सीटों तथा एक फीसद से कम वोट के अंतर से यूडीएफ ने सत्ता हासिल की थी. इस पहलू से देखा जाए तो इस चुनाव में एलडीएफ की जीत, सिर्फ घड़ी के पेंडुलम के इधर-से-उधर होने का ही मामला नहीं है. इस बार दोनों मोचरे के बीच सिर्फ 34 सीटों का भारी अंतर ही नहीं है, दोनों के मत फीसद में भी 4 फीसद से ऊपर का, इस राज्य के हिसाब से भारी अंतर है. एलडीएफ के हिस्से में लगभग 44 फीसद वोट आए हैं, जबकि यूडीएफ 39 फीसद से भी नीचे सिमट कर रह गया है. यह भी बहुत ही महत्त्वपूर्ण है कि दो साल पहले, 2014 के लोकसभाई चुनाव के अपने मत-फीसद को एलडीएफ ने इस चुनाव में बनाए रखा है, जबकि यूडीएफ के वोट में लोकसभाई चुनाव के मुकाबले पूरे 4 फीसद की गिरावट हुई है.

भाजपा के केरल प्रवेश की कहानी

यह हमें इस चुनाव में मुकाबले को तिकोना बनाने की जी-तोड़ कोशिश कर रही, भाजपा और उसके द्वारा खड़े किए गए एनडीए के प्रदर्शन पर ले आता है. वैसे केरल विधानसभा में भाजपा के पहली बार प्रवेश की अपनी ही कहानी है, जिसमें आम तौर पर कांग्रेस और भाजपा के बीच लेन-देन का गुप्त हाथ देखा जा रहा है. यह बेशक विचित्र है कि तिरुअनंतपुरम की जिस निमोम सीट से भाजपा को कामयाबी मिली है, उस पर इस चुनाव में कांग्रेस के उम्मीदवार को 14 हजार वोट भी नहीं मिले हैं, जबकि दो साल पहले संसदीय चुनाव में इसी चुनाव क्षेत्र से यूडीएफ के हिस्से में 32,000 वोट आए थे! अचरज की बात नहीं कि 67 हजार से ज्यादा वोट लेकर, भाजपा के उम्मीदवार ने इस बार इस सीट से सीपीआइ (एम) के उम्मीदवार को, करीब 8 हजार वोट के अंतर से हरा दिया. लेकिन, इससे अलग भाजपा, एसएनडीपी योगम के नाम पर गठित, जिस जातिवादी पार्टी बीडीजीएस के सहारे केरल की राजनीति में पांव जमाने की कोशिश कर रही थी, उसे खुद करारी हार का मुंह देखना पड़ा है और उसके प्रभाव के मुख्य क्षेत्र माने जाने वाले, अल्लपुझा तथा कोल्लम जिलों में भी उसका हाथ खाली ही रहा है.

बेशक, इस तरह की ताकतों के साथ गठजोड़ के और एक हद तक कांग्रेस के साथ गुपचुप सौदों के जरिये भी, भाजपा अपने गठबंधन के साथ इस चुनाव में 15 फीसद से कुछ कम वोट हासिल करने में ही कामयाब नहीं रही है बल्कि दो साल पहले हुए संसदीय चुनाव के मुकाबले वोट में करीब 5 फीसद की बढ़ोतरी भी दर्ज कराने में कामयाब रही है. चूंकि एलडीएफ ने अपना वोट बनाए रखा है, जाहिर है कि यह बढ़ोतरी मुख्यत: यूडीएफ के वोट में हुई 4 फीसद की गिरावट से तथा एक हद तक अन्य के वोट में आई कमी से ही आई है. 

बेशक, केरल विधान सभा में भाजपा के पहली बार प्रवेश और उसके नेतृत्व में सांप्रदायिक-जातिवादी गठजोड़ के 7 सीटों पर दूसरे स्थान पर भी आने को, इस लगभग आधी मुस्लिम तथा ईसाई आबादी वाले राज्य के राजनीतिक ही नहीं सामाजिक ताने-बाने के लिए भी काफी चिंता की नजर से देखा जाना चाहिए. संघ-भाजपा के नेतृत्व में एक वृहत्तर सांप्रदायिक-जातिवादी गठजोड़ खड़ा करने की रणनीति को, प्रधानमंत्री मोदी से लेकर भाजपा अध्यक्ष अमित शाह तक के धुंआधार प्रचार के जरिए जोर-शोर से आगे बढ़ाया जा रहा था.

इसके बावजूद जैसे नतीजे आए हैं उनसे भाजपा की इस मुहिम की खास कामयाबी के आसार तो नहीं ही दिखाते हैं. फिर भी, चुनाव के नतीजे आने के बाद, एलडीएफ के विजय जुलूसों व नेताओं पर भाजपा-आरएसएस के हमले दिखाते हैं कि संघ परिवार, इस मुहिम को आगे और तेज करने की ही कोशिश करने जा रहा है. बेशक, एलडीएफ के जनहितकारी शासन में भाजपाई गठजोड़ की ऐसी कारगुजारियों को खास जन-समर्थन नहीं मिलने वाला है. फिर भी यह तथ्य चिंता बढ़ाने वाला है कि इस चुनाव में पराजित यूडीएफ में भी, सबसे ज्यादा धक्का कांग्रेस को ही लगा है और वह 22 सीटों पर ही सिमट गई है, जबकि मुस्लिम लीग तथा केरल कांगेस (एम) जैसे उसके बड़े सहयोगियों ने, थोड़ी सी सीटें गंवाने के बावजूद, अपनी स्थिति कमोबेश बचाए रखी है. इससे, भाजपाई गठजोड़ के लिए, सांप्रदायिक धुवीकरण को तेज करने वाली अपनी कारगुजारियों के लिए, गुंजाइश कुछ और बढ़ जाती है.

राजेंद्र शर्मा
वरिष्ठ राजनीतिक विश्लेषक


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