बेटियों के खिलाफ तकनीक
शादी के 46 साल बाद मां-बाप बने 72 साल की दलजिंदर कौर और 79 वर्ष के मोहिंदर गिल खुशी से फूले नहीं समा रहे हैं क्योंकि आईवीएफ तकनीक ने संतान के उनके सपने को पंख लगा दिए हैं.
बेटियों के खिलाफ तकनीक |
हाल में उन्हें इस तकनीक के सहारे संतान की प्राप्ति हुई है. हालांकि इसे तकनीकी श्रेष्ठता का एक बेजोड़ उदाहरण माना जा रहा है, पर विज्ञान के साथ-साथ समाज के कुछ सवाल इस प्रसंग में उठ खड़े हुए हैं. विज्ञान का सवाल यह है कि क्या इतनी उम्र में बच्चा पैदा करना ठीक है?
विशेषज्ञ कहते हैं कि आईवीएफ के माध्यम से भी मां-बाप बनने के लिए दंपति की संयुक्त आयु 100 साल से ज्यादा नहीं होनी चाहिए. उधर, समाज का एक सवाल यह है कि यदि बच्चे के वयस्क होने से पहले मां-बाप की मृत्यु हो जाती है (जिसकी आशंका इस मामले में काफी ज्यादा है) तो उसके भरण-भोषण की जिम्मेदारी कौन उठाएगा? पर इनसे ज्यादा बड़ा सवाल वारिस पैदा करने की चाह है जिसे लेकर तकनीकी सहयोग से बेटियों का तो गला गर्भ में ही घोंटा जा रहा है, जबकि बेटों को पैदा करने की प्रवृत्ति बढ़ती जा रही है. दलजिंदर कौर और मोहिंदर गिल तकनीकी मदद से संतान इसीलिए पैदा करना चाहते थे क्योंकि उन्हें अपनी जमीन-जायदाद का वारिस चाहिए था. वारिस नहीं होने की सूरत में उनकी संपत्ति पर नाते-रिश्तेदार हक जता रहे थे. असल में, वारिस पैदा करने की इसी चाहत के दर्शन समाज में हो रहे हैं और इसीलिए पिछले कुछ अरसे में आईवीएफ, अल्ट्रासाउंड और सरोगेसी जैसी तकनीकों को काफी बढ़त हासिल हुई है.
खासतौर से हमारे समाज के संपन्न तबकों में बेटों की चाहत काफी ज्यादा है. जो व्यक्ति जितना अधिक अमीर है, उसे अपने यहां बेटी की बजाय बेटे के जन्म की ज्यादा फिक्र है. चार वर्ष पूर्व बॉलीवुड के अभिनेता शाहरुख खान ने किराये की कोख यानी सरोगेट मदर के जरिये अपने घर आने वाले नए मेहमान (अबराम) का लिंग परीक्षण कराया था. इसे लेकर काफी हंगामा मचा था. कहा गया था कि इस तरह शाहरुख एक नजीर कायम कर रहे हैं और बेटियों की जगह बेटों को ही दुनिया में लाने की घृणित सोच और प्रवृत्ति को बढ़ावा दे रहे हैं.
उस समय महाराष्ट्र के स्वास्थ्य विभाग ने इस मामले की जांच के आदेश दे दिए थे और कहा था कि यदि खान-दंपति इसके दोषी पाए जाते हैं, तो मुमकिन है कि इसके लिए वे निर्धारित सजा के हकदार भी हों, पर यह अजीब बात है कि आगे चलकर यह पता ही नहीं चला कि आखिर इसके लिए किसे जिम्मेदार पाया गया? स्पष्ट हो रहा है कि कानून और सजा होते हुए भी लोग चोरी-छिपे बेटियों से निजात पाने का हर नुस्खा अमल में ला रहे हैं. खास तौर से अमीर तबके का यह रवैया समझ से परे है कि जब बेटी हो या बेटा, उसकी परवरिश पर होने वाले खर्च की उसे कोई परवाह नहीं है, तो वह सिर्फ और सिर्फ बेटों की ही कामना क्यों कर रहा है? धनी राज्यों, जैसे पंजाब, हरियाणा और दिल्ली के रसूखदार दक्षिणी इलाकों में बेटों के मुकाबले बेटियों की जन्म दर सरकार द्वारा चलाए जा रहे ‘बेटी बचाओ, बेटी पढ़ाओ’ जैसे अभियानों के बावजूद बेहद कम है.
मुमकिन है कि इन इलाकों की हजारों आलीशान कोठियों में अरसे से किसी बेटी की किलकारी ना गूंजी हो. अगर सरकार कभी यह निष्पक्ष सर्वेक्षण कराए कि देश में डॉक्टर, इंजीनियर और वैज्ञानिकों के घरों में पिछले एक दशक में कितने बेटों या बेटियों ने जन्म लिया है, तो यह साफ पता चल जाएगा कि कथित तौर पर पढ़े-लिखे व संपन्न समाज ने आईवीएफ जैसी तकनीकों और अल्ट्रासाउंड जैसी मशीनों के बल पर बेटियों से तकरीबन छुटकारा पा लिया है और उनकी जगह बेटे पैदा किए जा रहे हैं.
आज जो काम आईवीएफ और सरोगेसी से मुमकिन हो रहा है, आगे चलकर डीएनए तकनीकों के सहारे मुमकिन है कि लोग बेटा ही चाहिए-अपनी इस सोच के मुताबिक बच्चे को डिजाइन भी करवा लें. लेकिन गर्भ की विकृतियों का पता लगाने के मकसद से तकनीकों का जो इस्तेमाल दुनिया में शुरू हुआ था, उसके बारे में तो शायद उसके आविष्कर्ताओं ने भी नहीं सोचा होगा. संपन्नता और बेटियों की गुमशुदगी के बीच जो प्रतिकूल रिश्ता बन गया, वह बेहद चिंताजनक है. इसका एक अर्थ यह निकालता है कि संपन्नता सदियों पुराने लैंगिक भेदभाव को हकीकत में बदलने का जरिया बन गई है. यह पुत्र मोह की सामंती चाह का विस्फोट है, जो बताता है कि आधुनिक रहन-सहन, पब-बार, फैशन के बावजूद हम सदियों पहले की किसी दुनिया में जी रहे हैं.
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