विश्लेषण : वक्त रहते संभले कांग्रेस

Last Updated 26 May 2016 05:43:27 AM IST

पांच विधानसभा चुनाव के नतीजे भाजपा, तृणमूल और अन्नाद्रमुक जैसी क्षेत्रीय पार्टियों और वामदलों के लिए अच्छी खबर लेकर आए हैं, मगर कांग्रेस के लिए वह सदमा कानूनी है.


वक्त रहते संभले कांग्रेस

कांग्रेस जो हाल ही में उत्तराखंड में अपनी जीत पर फूली नहीं समा रही थी, उसके लिए ये नतीजे खतरे की घंटी है कि अब भी उसने अपने  तौर तरीके नहीं बदले तो नरेन्द्र मोदी का  ‘कांग्रेसमुक्त भारत’ का सपना पूरा होते देर नहीं लगेगी. इन विधानसभा चुनाव में दो कांग्रेस शासित राज्यों केरल और असम में  कांग्रेस की करारी हार ने यह साबित कर दिया कि कांग्रेस इस दिशा में तेजी से बढ़ रही है.

अगर ऐसा हुआ तो 130 साल पुरानी और कभी देश पर एकछत्र राज करनेवाली कांग्रेस का यह दुर्भाग्य होगा. यह स्वस्थ लोकतंत्र के लिए भी शुभ नहीं होगा क्योंकि मजबूत विपक्ष उसकी जरूरत होती है. लेकिन कांग्रेस तेजी से ह्रास की तरफ बढ़ रही है. लोकसभा चुनाव में कांग्रेस चुनाव ही नहीं हारी हिम्मत भी हार गई है. इतिहास में दशकों सत्ता की सियासत करने वाली इस पार्टी ने 2014 के लोकसभा में चुनाव में जैसा खराब प्रदर्शन किया, वह पूरे देश के लिए चौंकाने वाला ही रहा. अब तक कांग्रेस की सात राज्यों-उत्तर पूर्व में मेघालय, मिजोरम, मणिपुर और असम दक्षिण में केरल और कर्नाटक, उत्तर में हिमाचल और उत्तराखंड में कांग्रेस की सरकारें थी. इस तरह 11 प्रतिशत आबादी वाले राज्यों में कांग्रेस (बिहार को छोड़कर) की सरकारें थी. जबकि 36 प्रतिशत आबादी वाले राज्यों पर भाजपा की सरकारें हैं.

हाल ही के विधानसभा  चुनाव में केरल और असम में कांग्रेस की हार से कांग्रेस की स्थिति अत्यंत दयनीय यानी केवल 6 प्रतिशत आबादी वाले राज्यों में ही कांग्रेस सिमट गई है. ऐसे में कांग्रेस के पास उत्तर-पूर्व के तीन राज्य मणिपुर, मिजोरम और मेघालय रह जाते हैं, जिनकी आबादी एक प्रतिशत से भी कम है. कांग्रेस के इन हालातों के कारण भाजपा सोचती है कि 2018 के विधानसभा चुनावों में वह लगभग कांग्रेसमुक्त भारत बनाने में सफल होगी. अक्सर कई राजनीतिक विश्लेषक कांग्रेस की तुलना पौराणिक कथाओं के फिनिक्स पक्षी से करते हैं, जो मर जाने के बाद फिर जिंदा हो उठता है.

कांग्रेस भी कई चुनावों में करारी हार के बाद कई बार फिर जिंदा हुई और उसने फिर सत्ता हासिल की. इस कारण आम कांग्रेसी को अब भी विश्वास है कि कांग्रेस एक दिन फिर केंद्र में सत्ता में लौटकर आएगी. लेकिन अब कांग्रेस में यह फिनिक्स पक्षीवाला गुण कम होता जा रहा है. कांग्रेस लगातार कमजोर होती जा रही है. 1981, 1991 और 2004-2014 में कांग्रेस सत्ता में लौटकर आई. लेकिन हर बार उसकी ताकत कम होती गई. 1984 -89 में उसकी ताकत 415 थी जो 1991 में घटकर 244 रह गई, उसके बाद जब वह 2004 में सत्ता में लौटी तब उसकी ताकत 206 रह गई थी जो 2014 के चुनाव में 45 रह गई. ऐसे में कांग्रेस की फिर से सत्ता में वापसी नामुमकिन  लगती है.

कांग्रेस के बारे में विश्लेषकों की एक और राय रही है कि जब भी कोई कांग्रेस जैसी विचारधारा वाला या दबे कुचले वर्ग में जनाधार रखनेवाला कोई राजनीतिक दल उभरता है तो कांग्रेस के जनाधार में सेंध लगाता रहा है. यह परंपरा मंडल और बसपा से शुरू होने बाद ओडिसा में नवीन पटनायक, पश्चिम बंगाल में ममता बनर्जी, सीमांध्र-तेलंगाना में जगमोहन रेड्डी और चंद्रशेखर राव या हाल ही में दिल्ली में आम आदमी पार्टी के अरविंद केजरीवाल तक जारी है. भाजपा को 1991 के चुनाव में 20.11 प्रतिशत वोट मिले थे जो 2014 में 31.1 प्रतिशत हो गया. क्षेत्रीय दलों का प्रतिशत 1991 में 39.44 प्रतिशत था, जो 2014 में 46.6 प्रतिशत हो गया. जबकि कांग्रेस के प्रतिशत में लगातार गिरावट आ  रही है. उसका प्रतिशत 1991 में 36.26 था. वह 2014 में 19.3 प्रतिशत रह गया. इस तरह भाजपा और क्षेत्रीय दल कांग्रेस की कीमत पर आगे बढ़े.

अब वह वक्त आ गया है जब, कांग्रेसियों को कांग्रेस की इस दयनीय स्थिति पर वस्तुनिष्ठ तरीके से और निर्मम होकर विश्लेषण करना चाहिए. दरअसल कांग्रेस के मौजूदा हालात के लिए कांग्रेसी स्वयं ही जिम्मेदार हैं. सत्ता पर बने रहने के मोह में उन्होंने कांग्रेस जैसी राष्ट्रीय और लोकतांत्रिक पार्टी को एक परिवार के हाथों में सौंप दिया. कांग्रेसियों की दलील यह होती थी कि इस परिवार के बगैर कांग्रेस में एकता नहीं रह पाएगी और गांधी परिवार की हस्तियों का करिश्मा ही कांग्रेस को वोट दिला पाता है. लेकिन अब गांधी नेहरू परिवार का जादू खत्म हो गया है. इसके कारण यह परिवार कांग्रेस का खेवनहार नहीं उसका बोझ गया है. यदि कांग्रेसजन चाहते हैं कि कांग्रेस का अस्तित्व बना रहे तो, अब जितनी जल्दी हो सके गांधी नेहरू परिवार के वर्चस्व से मुक्ति पा लेनी चाहिए. तभी उसमें राष्ट्रीय और क्षेत्रीय नेतृत्व का उदय हो पाएगा.

हाल ही के चुनावों में एक बात साबित हो गई है कि गांधी परिवार की कांग्रेस को वोट दिलाने की क्षमता खत्म हो गई है. इसलिए सोनिया गांधी, और राहुल के बाद प्रियंका को राजनीति में लाने का कोशिश चल रही है, मगर इस बात की क्या गारंटी है कि प्रियंका केवल इंदिरा गांधी जैसा व्यक्तित्व होने के कारण कांग्रेस को अपना खोया हुआ गौरव दिलाने में कामयाब हो जाएंगी. प्रियंका तो अभी बंधी मुट्ठी हैं, जबतक मुट्ठी बंधी हैं, तब तक लाख की खुलते ही खाक की हो जाएंगी. उनका भी वही हश्र हो सकता है, जो सोनिया और राहुल का हुआ है. आज कांग्रेस मुक्त भारत की दयनीय स्थिति से बचने का एक ही रास्ता है, पहले कांग्रेस गांधी नेहरू परिवार से मुक्ति पाए. तब वह सही मायने में लोकतांत्रिक पार्टी बन पाएगी और उसकी प्रगति के रास्ते खुलेंगे.

सतीश पेडणेकर
लेखक


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