पर्यावरण : ये दहन भी हितकारी

Last Updated 25 May 2016 04:23:04 AM IST

संयुक्त राष्ट्र की वैश्विक पर्यावरण पूर्वानुमान कमेटी ने एक बार फिर चेतावनी दी है कि जिस तरह से धरती का तापमान बढ़ रहा है, उससे सन 2050 तक समुद के किनारे बसे दुनिया के दस शहरों में तबाही आ सकती है.


पर्यावरण : ये दहन भी हितकारी

इसमें भारत के मुंबई, कोलकाता जैसे शहरों पर भी गंभीर खतरा बताया गया है. अनियोजित विकास, बढ़ती आबादी और जलवायु परिवर्तन के चलते समुद्र में पानी की मात्रा बढ़ेगी और इस विस्तार से तटों पर बसे शहर तबाह हो सकते हैं.

फरवरी 1981 में रॉयल स्विस सोसायटी गोष्ठी में यह तथ्य सामने आया था कि कार्बन की मात्रा बढ़ने का फायदा भारत सहित एशिया के कई देशों व अफ्रीकी दुनिया को होगा. विडंबना है कि अत्याधुनिक मशीनों, कार्बन उर्जा के अंधा-धुंध इस्तेमाल से दुनिया का मिजाज बिगाड़ने वाले पश्चिमी देश अब भारत व तीसरी दुनिया के देशों पर दबाव बना रहे हैं कि धरती को बचाने के लिए कार्बन उत्सर्जन कम करकें. हालांकि, आज भी भारत जैसे देशों में इसकी मात्रा कम ही है.

कोई दो दशक पहले प्रिंस्टन विश्वविद्यालय के एक शोध में बताया गया था कि जिस तरह से धरती पर कार्बन की मात्रा बढ़ रही है, उससे अनुमान है कि धरातल पर तापमान में 20 डिग्री तक की बढ़ोतरी हो सकती है. इससे भारत सहित उत्तरी व पूर्वी अफ्रीका, पश्चिम एशिया आदि इलाकों में बारिश की मात्रा बढ़ेगी, जबकि अमेरिका, रूस सहित पश्चिमी देशों में बारिश कम होगी.

अनुमान है कि इस बदलाव से आने वाले 50 सालों में भारत सहित वष्रा संभावित देशों में खेती संपन्न होगी. इन इलाकों में खेत इतना सोना उगलेंगे कि वे खाद्य मामले में आत्मनिर्भर हो जाएंगे तथा आयात पूरी तरह बंद कर देंगे. यह भी सही है कि कार्बन डायऑक्साईड के कारण तापमान में बढ़ोतरी के चलते एंटार्कटिका, ग्रीन लैंड और आर्कटिक प्रदेशों में बर्फ पिघलेगी.

समझा जाता है कि वहां से इतनी बर्फ पिघलेगी कि विश्व में सागर का जल स्तर तीन से 18 मीटर तक ऊपर उठेगा और इससे 10 प्रतिशत तटीय भूमि जल-मग हो सकती है.
धरती में कार्बन का बड़ा भंडार जंगलों में हरियाली के बीच है. पेड़, प्रकाश-संश्लेषण के माध्यम से हर साल कोई सौ अरब टन यानी पांच फीसद कार्बन वातावरण में पुनर्चक्रित करते हैं. इसमें कोई शक नहीं कि प्राकृतिक आपदाएं देशों की भौगोलिक सीमाएं देख कर तो हमला करती नहीं हैं.

यहां एक बात और गौर करने वाली है कि भले ही पश्चिमी देश इस बात से हमें डरा रहे हों कि जलवायु परिवर्तन से हमारे ग्लेशियर पिघल रहे हैं व इससे हमारी नदियों के अस्तित्व पर संकट है, लेकिन वास्तविकता में हिमालय के ग्लेशियरों का आकार बढ़ रहा है. पश्चिमी हिमालय की हिंदुकुश और काराकोरम पर्वत ृश्रृंखलाओं के 230 ग्लेशियरों के समूह विकसित हो रहे हैं.

 तत्कालीन पर्यावरण मंत्री जयराम रमेश ने विदशी धन पर चल रहे शोध के बजाए वीके रैना के नेतृत्व में वैज्ञानिकों के एक दल को हिमनदों की हकीकत की पड़ताल का काम सौंपा था. इस दल ने 25 बड़े ग्लेशियरों को लेकर गत 150 साल के आंकड़ों को खंगाला और पाया कि हिमालय में ग्लेशियरों के पीछे खिसकने का सिलसिला काफी पुराना है और बीते कुछ सालों के दौरान इसमें कोई बड़ा बदलाव नहीं देखने को मिला है. पाकिस्तान के के-2 और नंदा पर्वत के हिमनद 1980 से लगातार आगे बढ़ रहे हैं. जम्मू-कश्मीर के केंग्रिज व डुरंग ग्लेशियर बीते 100 सालों के दौरान अपने स्थान से एक ईच भी नहीं हिले हैं. सन 2000 के बाद गंगोत्री के सिकुड़ने की गति भी कम हो गई है. 

इस दल ने इस आशंका को भी निमरूल माना था कि जल्द ही ग्लेशियर लुप्त हो जाएंगे व भारत में कयामत आ जाएगी. यही नहीं ग्लेशियरों के पिघलने के कारण सनसनी व वाहवाही लूटने वाले आईपीसीसी के दल ने इन निष्कषरे पर ना तो कोई सफाई दी और ना ही इस का विरोध किया. जम्मू-कश्मीर विश्वविद्यालय के प्रो. आरके गंजू ने भी अपने शोध में कहा है कि ग्लेशियरों के पिघलने का कारण धरती का गरम होना नहीं हैं.

यदि ऐसा होता तो पश्मिोत्तर पहाड़ों पर कम और पूर्वोत्तर में ज्यादा ग्लेश्यिर पिघलते, लेकिन हो इसका उलटा रहा है. ऐस अंतरविरोधों व आशंकाओं के निमरूलन का एक ही तरीका है कि राज्य में ग्लेशियर अध्ययन के लिए  सर्वसुविधा व अधिकार संपन्न प्राधिकरण का गठन किया जाए, जिसका संचालन केंद्र के हाथों में हो.

पंकज चतुर्वेदी
लेखक


Post You May Like..!!

Latest News

Entertainment