अगस्ता : इस बहस की सुबह नहीं
अगस्ता वेस्टलैंड वीवीआइपी हेलीकॉप्टर के सौदे के लेन-देन में घूसखोरी साबित हो चुकी है.
अगस्ता : इस बहस की सुबह नहीं |
यह भी एकाधिक बार साबित हो चुका है कि हर ऐसे बड़े सौदे को पटाने के लिए बहुराष्ट्रीय कंपनियां घूस को गुनाह नहीं मानती हैं. कानूनन मनाही भले हो मगर हमारे देश में भी कंपनियों और कारोबार का यह आम चलन है. जिम्मेदार सार्वजनिक पदों पर बैठे लोगों की लालच उन्हें नैतिक बाधाओं से अमूमन मुक्त कर देती है, छोटी-छोटी सहकारी समितियों में कमीशनखोरी और कानून तथा नैतिकता को ठेंगे पर रखने की अनगिनत मिसालें मिल जाती हैं.
फिर भी भ्रष्टाचार हमें उद्वेलित करता है. उद्वेलित न होना तो इस सभ्यता को लोभ, लालच, अन्याय, शोषण के दलदल में और गहरे धंसने को छोड़ देने जैसा है. मगर भ्रष्टाचार का हल्ला सिर्फ अपने कदाचार, नाकाबिलियत को छुपाने के लिए करना शायद और बड़ा अपराध है. यह भी आश्चर्य है कि भ्रष्टाचार के गिनती के एकाध मामले की जांच-पड़ताल ही अंतिम मुकाम तक पहुंच पाई और दोषियों को सजा हो पाई है जबकि अंतिम फैसले लेने वाले अधिकारी राजनीतिक ही होते हैं.
आजादी के बाद नेहरू की सरकार के समय तो चर्चित जीप घोटाला और मूंदड़ा घोटाला खुला था तो कृष्ण मेनन को इस्तीफा देना पड़ा था. और उच्च पदों पर भ्रष्टाचार पर काबू पाने के लिए पहले आयोग का गठन हुआ था, जहां से लोकपाल संस्था के गठन की अवधारणा पैदा हुई थी. लेकिन आजादी के 66 साल बाद भी लोकपाल सपना बना हुआ है.
इस बीच, लोकपाल के लिए अन्ना हजारे के नेतृत्व में यूपीए सरकार के दौरान एक जनआंदोलन हुआ, जिसकी परिणति नरेन्द्र मोदी सरकार है पर दो साल बाद भी लोकपाल की सुध लेने की फिक्र उसे नहीं हुई. गुजरात में मुख्यमंत्री रहते मोदी ने लोकायुक्त के गठन में कोई रुचि नहीं दिखाई. इससे यह संदेह होता है कि राजनैतिक बिरादरी एक-दूसरे पर राजनैतिक बढ़त पाने और सत्ता हासिल करने के लिए इन मामलों का इस्तेमाल तो करती है, लेकिन उसके आगे वह बढ़ना नहीं चाहती. आखिर हर किसी को शायद अपने घोटाले खुलने का डर जो होता है या फिर व्यवस्था ही ऐसी है कि पूरा तंत्र सत्ता और पूंजी के खेल में ऐसा उलझा हुआ है कि उसे देश की कोई फिक्र नहीं है.
आखिर जिस देश में 95 प्रतिशत लोगों के पास दो जून की रोटी के जुगाड़ में ही पूरी जिंदगी कट जाती हो, वहां क्या क्रूर अट्टाहास की तरह नहीं लगता है. हाल में जारी 15 साल के आयकर के आंकड़ों का सामाजिक-आर्थिक जनगणना और राष्ट्रीय नमूना सव्रेक्षण संगठन के आंकड़ों के मिलान से जाहिर होता है कि ग्रामीण इलाकों में हर महीने 3,000 रु. और शहरों में 6,300 रु. खर्च करने की हैसियत वाले लोगों की फीसद काफी कम है.
इसी साल आई नई किताब ‘पॉपरिज्म इन प्रेजेंट ऐंड पास्ट’ के लेखक प्रो. इमेरेट्स जेन बरमेन कहते हैं कि भारत में अब तो मार्के की सिर्फ कंगाली की बेहद तेज वृद्धि दर ही है. प्रो. बरमेन कई दशकों तक दक्षिण गुजरात में शोध कर चुके हैं. वह भारत और चीन की अर्थव्यवस्था की बारीकियों का करीने से विश्लेषण करते हैं. वे बताते हैं कि जन धन योजना और नकदी हस्तांतरण की योजना दरअसल विश्व बैंक और आईएमएफ की नीतियों के मुताबिक ज्यादा से ज्यादा लोगों को बाजार तक खींच लाने के लिए अपनाई गई हैं.
देश की असलियत की इस पृष्ठभूमि में यह सवाल जायज है कि अगस्ता हेलीकॉप्टर वीवीआइपी के नाम पर ही क्यों खरीदे जा रहे थे? वीवीआइपी को इतनी सुरक्षा की चिंता ही क्यों होती है? देश और आम जन की सुरक्षा को मजबूती प्रदान करने की नीतियों पर फोकस क्यों नहीं होता? ये सवाल इसलिए दूर कर दिए जाएंगे क्योंकि इनसे दूसरे कदाचार खुलने लगते हैं.
तब यह भी सवाल उठने लगेगा कि क्यों चुनावों में विमान और हेलीकॉप्टरों का इस्तेमाल ऑटोरिक्शा जैसा होने लगा है? गत चुनाव में मोदी तो देश के धुर कोने से भी पूरी जहाज लेकर रात बिताने अहमदाबाद ही पहुंच जाया करते थे. कोई कह सकता है कि यह सीधे-सीधे भ्रष्टाचार में नहीं आता, लेकिन हुजूर भ्रष्टाचार की नींव तो इन्हीं खचरे की भरपाई के लिए पड़ती होगी.
इधर कुछ साल से आपने पार्टियों की ‘इलेक्टोरल इकोनॉमी’ की चर्चाएं सुनी होंगी. इनका अर्थ यही है कि चुनाव के लिए भारी-भरकम खचरे का प्रबंध कैसे किया जाए. मोदी के उदाहरण से भ्रम पैदा हो सकता है, अत: यह बताना जरूरी है कि शायद ही कोई राजनैतिक पार्टी इससे अछूती हो क्योंकि इसके बिना अब मुख्यधारा की पार्टियों का वजूद संभव नहीं है. इसीलिए भ्रष्टाचार का हल्ला सिर्फ एक-दूसरे पर बढ़त हासिल करने की रणनीति लगती है.
अगस्ता सौदा उस दौर के हुक्मरानों की मर्जी के बिना हो गया होगा और उससे उनका कोई लेना-देना नहीं होगा, यह तो कोई मूढ़ ही मान सकता है. लेकिन मोदी सरकार भ्रष्टाचार को लेकर इतनी ही गंभीर होती तो और आर्थिक अपराधों के प्रति इतनी संवेदनशीलता होती तो विजय माल्या, ललित मोदी जैसों पर क्यों ढीला रवैया अपनाया जाता? या बैंकों से लगातार लाखों-करोड़ के बकाया कर्ज क्यों लगभग माफ कर दिए जाते?
यह यूपीए के दौर में भी हुआ और एनडीए के पिछले दो साल के राज में इसकी गति और तेज हो गई है. बहरहाल, भ्रष्टाचार की इस सियासी जंग में देश की शायद ही कोई फिक्र है. भाजपा की मोटी रणनीति यह हो सकती है कि जेएनयू और भारत माता की जय के नारे से जैसे उसे देश में सूखे, आर्थिक संकट को भुलाने में सफलता मिली है, कांग्रेस के खिलाफ यह अभियान भी उसे चुनावी लाभ दे जाएगा. लेकिन इसके खतरे भी हैं.
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