दुर्लभ बना रहेगा जल
सूखा अब कोई दुर्लभ परिघटना नहीं माना जा सकता. जलवायु परिवर्तन ने भारत के विभिन्न हिस्सों में सूखा, बाढ़ और चक्रवाती आंधी जैसी भीषण घटनाओं की बारंबारता को बढ़ा दिया है.
दुर्लभ बना रहेगा जल |
इसे खतरे की घंटी समझा जाना चाहिए कि हालिया दशकों में इस प्रकार की घटनाओं की बारंबारता और गंभीरता में इजाफा हुआ है. भारत में सूखा कोई नई बात नहीं है. पहले कई वर्ष ऐसे गुजरे हैं, जब देश को भीषण सूखे का सामना करना पड़ा. लेकिन 1988 के बाद-1999, 2002, 2004, 2009, 2014 और 2015 में-इसके बार-बार पड़ने ने चिंता को बेहद बढ़ा दिया है. इससे संसाधन-विहीन गरीब किसानों को बेशुमार तकलीफों से रूबरू होना पड़ता है. उन्हें अपनी परिसंपत्तियां औने-पौने दाम बेचकर शहरों की ओर पलायन करने को विवश होना पड़ता है. एक तरह से उन्हें उनके हाल पर ही छोड़ दिया जाता है. हालांकि सूखा क्षेत्र-सापेक्ष होता है, और उसी प्रकार से विभिन्न क्षेत्रों में इसके प्रभाव भी अलग-अलग पड़ते हैं, लेकिन इतना कहा जा सकता है कि मानव, पशु-धन और प्राकृतिक संसाधनों पर तो सूखे का असर होता ही है.
इस बार भी देश के विभिन्न भागों में गंभीर सूखे की स्थिति का सामना करना पड़ रहा है. केंद्र सरकार पहले ही घोषणा कर चुकी है कि देश गंभीर सूखे की गिरफ्त में है, और जनसंख्या का बड़ा हिस्सा-करीब 33 करोड़ लोग-इसकी मार झेल रहा है. देश के आधे से ज्यादा जिलों में उम्मीद से कम बारिश हुई है, और अनेक जिले लगातार 45 डिग्री सेल्सियस से ज्यादा तापमान में झुलस रहे हैं. महाराष्ट्र, कर्नाटक, झारखंड और तेलंगाना सर्वाधिक प्रभावित राज्य हैं. मौजूदा हालात के मद्देनजर केंद्र सरकार ने सूखा राहत कार्यक्रम आरंभ किए हैं, ताकि फसल को हुए नुकसान की क्षतिपूर्ति और भूमिगत जल का समानता के साथ वितरण किया जा सके. जल-अभाव वाले इलाकों में ‘जल-ट्रेन’ भेजी गई. इसके साथ ही बढ़ते संकट से उबरने के लिए वित्तीय सहायता भी मुहैया कराई जा रही है.
यकीनन ये राहत उपाय अनिवार्य हैं ताकि पेयजल की कमी से राहत दिलाई जा सके, लेकिन यह समस्या कहीं गहरे जड़ें जमाए हुए है, और कृषि क्षेत्र, जो देश की करीब 75 प्रतिशत जनसंख्या का प्रत्यक्ष या परोक्ष रूप से आजीविका का आधार है, के लिए तो इसके खासे निहितार्थ हैं. सूखे की स्थिति से गेहूं और चावल, जिनका भारत की खाद्यान्न टोकरी में खासा योगदान रहता है, जैसी महत्त्वपूर्ण फसलों के उत्पादन और उत्पादकता पर गंभीर रूप प्रभाव पड़ता है. लगातार भूजल का स्तर गिरते जाने और जलाशयों की घटती क्षमता की स्थिति में मात्र सिंचाई से सूखे के हालात से ज्यादा मुकाबला नहीं किया जा सकता.
सिंचित क्षेत्र को बढ़ाया जाना
सरकारी आंकड़ों के मुताबिक, कुल सिंचित क्षेत्र, जो लगभग 63 मिलियन हेक्टेयर के आसपास बना हुआ है और देश में बुवाई के कुल रकबे का 45 प्रतिशत ही है, में शायद ही कोई वृद्धि हुई हो. अलबत्ता, हालिया वर्षो में असम, जम्मू-कश्मीर, मध्य प्रदेश और राजस्थान में सिंचाई-सघनता में सुधार अवश्य हुआ है. लेकिन प्रमुख, मध्यम और लघु सिंचाई परियोजनाओं में बेहद ज्यादा सार्वजनिक निवेश को देखते हुए यह सुधार ज्यादा महत्त्वपूर्ण नहीं है. 2004-05 में इन परियोजनाओं पर जहां 235 बिलियन रुपये की राशि व्यय की गई थी, वहीं 2013-14 में 309 बिलियन रुपये व्यय किए गए. प्रमुख परियोजनाओं पर जहां पूंजीगत परिव्यय में 3.5 गुना वृद्धि हुई, वहीं लघु सिंचाई के लिए यह आंकड़ा 2.5 गुना ही बढ़ा. सिंचित क्षेत्र में वस्तुत: स्थिरता-खासकर नहरी सिंचाई के तहत क्षेत्र में-से अभी इस क्षेत्र में किए जा रहे निवेश की क्षमता और सिंचित क्षेत्र में वृद्धि करने के लिए जरूरी निवेश की मात्रा को लेकर तमाम चिंताएं हैं.
इंटरनेशनल फूड पॉलिसी रिसर्च इंस्टीटय़ूट के एक अध्ययन में बताया गया है कि प्रमुख और मध्यम सिंचाई परियोजनाओं पर किए अतिरिक्त सार्वजनिक निवेश से मिलने वाले सीमांत प्रतिफल में तेजी से कमी दर्ज की गई है. नब्बे के दशक में यह 1.41 प्रतिशत था, जो 2000 में परिव्यय किए जाने के समय गिरकर 0.12 प्रतिशत रह गया. प्रमाणों से यह भी पुष्टि होती है कि सार्वजनिक परिव्यय से सिंचाई क्षमता का अनुपात मध्यम और बड़ी सिंचाई परियोजनाओं की तुलना में लघु सिंचाई परियोजनाओं में ऊंचा है. दुर्भाग्य ही है कि नीति-निर्माता अरसे से लघु सिंचाई परियोजनाओं पर कम तवज्जो देते रहे हैं. लघु सिंचाई संबंधी ढांचा कुंओं को भरा-पूरा करने, सूखे की गंभीरता को कम करने तथा खाद्य नियंत्रण में महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाता है.
दीर्घकालिक सुधारात्मक विकल्प
भारतीय मौसम विभाग ने आगामी दक्षिण-पश्चिम मॉनसून सामान्य से अच्छा रहने की भविष्यवाणी की है, और वित्त मंत्री अरुण जेटली ने उम्मीद जताई है कि कृषि मौजूदा सूखे को झेल जाएगी. उनका कहना है कि दीर्घकालिक समाधान खोजने की दिशा में काम करना होगा. जल-संरक्षण बढ़ाकर तथा कम पानी की खपत वाली फसलों की खेती को बढ़ावा देकर इस प्रकार के संकट का सामना किया जा सकता है. एक अन्य सुधारात्मक उपाय यह हो सकता है कि सूखा-रोधी फसली प्रजातियों को अपनाया जाए जैसा कि ओडिशा के कुछ हिस्सों में धान/चावल की फसलों के लिए किया गया है. इस कार्य में इंटरनेशनल राइस रिसर्च इंस्टीटय़ूट से मदद ली जा सकती है. इससे किसानों की आय और उत्पादकता बचाए रखने में मदद मिलेगी. साथ ही, उपभोक्ताओं के लिए स्थिर दामों को सुनिश्चित किया जा सकेगा. जरूरी है कि सिंचाई क्षेत्र में निवेश बढ़ाया जाए, लेकिन इसके साथ ही यह भी जरूरी है कि निर्माणाधीन परियोजनाओं को पूरा करने में तेजी लाई जाए.
ड्रिप और स्प्रिंकलर सिंचाई वाली लघु सिंचाई प्रणाली में कृषि क्षेत्र में जलोपयोग में सुधार लाने की गरज से खासी क्षमता है. राज्य सरकारों द्वारा विभिन्न प्रोत्साहनपूर्ण प्रयासों के बावजूद उन्हें अपनाने का स्तर और स्थानिक विस्तार नीचा ही रहा है. अध्ययनों से पता चलता है कि लघु सिंचाई प्रणाली जल बचाने, कृषि लागत कम करने और उपज बढ़ाने में सहायक होती है. विभिन्न अध्ययनों से पता चला है कि ड्रिप सिंचाई के जरिए प्रति इंच जलापूर्ति से मिलने वाला विशुद्ध प्रतिफल पारंपरिक सिंचाई प्रणाली की तुलना में 60-80 प्रतिशत ज्यादा होता है.
अलबत्ता, शुरुआती पूंजी की ऊंची लागत, विभिन्न मृदा स्थितियों के लिए उचित डिजाइनों, सब्सिडी पाने में दिक्कतें तथा छोटी जोतें आदि के अलावा अन्य तमाम कारणों से इस तकनीक को अपनाने में अड़चनें दरपेश हैं. सब्सिडी एक महत्त्वपूर्ण कारक है, जो इस तकनीक को अपनाने संबंधी किसानों के फैसले को प्रभावित करता है. धनी किसानों द्वारा भुगतान और विनियोग में विलंब से बड़ी संख्या में संसाधन-विहीन छोटे और सीमांत किसान प्रभावित होते हैं, वे इस तकनीक तक पहुंच नहीं बना पाते.
प्रधानमंत्री कृषि सिंचाई योजना एक अच्छी नीतिगत पहल है, जो लघु और मध्यम, दोनों दज्रे की सिंचाई परियोजनाओं में सार्वजनिक निवेश बढ़ाने में सहायक होगी. हाल में संपन्न इंडिया वॉटर वीक, 2016 के दौरान भारत ने भी इस्रइल, जो जलाभाव से जूझता देश है, के साथ भागीदारी की थी, ताकि वष्रा जल को सहेजने में नवोन्मेषी रणनीतियों को सीख और अपना सके. हिमाचल प्रदेश के सोलन में छोटे सब्जी उत्पादक किसान अरसे से इस्रइल की जल बचत तकनीक का उनसे ताजा सब्जियां खरीदने वाली मदर डेयरी रिटेल चेन के सहयोग से उपयोग करते आ रहे हैं. यही अवसर है जब इस तकनीक को बड़े स्तर पर अपनाया जाए.
आखिर में कहना चाहेंगे कि लोगों में इस दुर्लभ संसाधन को पूरे मनोयोग से सहेजने-संभालने के प्रति जागरूकता को प्रोत्साहित करके पेयजल की कमी की समस्या से उबरा जा सकता है. मीडिया रिपोर्टों के मुताबिक, केंद्र सरकार द्वारा पेयजल परियोजनाओं के लिए आवंटित किए गए धन का उन अनेक राज्यों ने उपयोग नहीं किया है, जो आज जल की कमी से जूझ रहे हैं. राज्यों को भी अपनी जिम्मेदारी समझनी होगी और जल संकट के मौजूदा हालात से बाहर निकलने के लिए कमर कस लेनी होगी.
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