जल प्रबंधन कब आएंगे अच्छे दिन!
भीषण सूखे से उपजे संकट और उससे जुड़ी ढेरों चिंताजनक खबरों के बीच इस महीने दो राहत भरी खबरें भी सुनने को मिलीं.
जल प्रबंधन कब आएंगे अच्छे दिन! |
अप्रैल महीने की शुरुआत प्रधानमंत्री फसल बीमा योजना के लागू होने से हुई. इसका मकसद किसानों की बदहाली रोकना है. अब फसल बरबाद होने पर उन्हें पूरा मुआवजा मिल सकेगा. अच्छी बात यह कि इसके लिए किसानों को ज्यादा प्रीमियम भी नहीं देना होगा. मुआवजे का दायरा अब सिर्फ खेतों में खड़ी फसल तक नहीं बल्कि कहीं ज्यादा व्यापक है. इस योजना में कैपिंग के प्रावधान को भी हटा दिया गया है, जिसके बाद किसानों को अधिकतम लाभ मिलने की उम्मीद है. काफी कुछ और भी नया है. मकसद है फसल बरबादी को लेकर किसान की अनिश्चितताओं को कम करना. यह अच्छी बात है.
हमारे मुल्क में सूखे और बाढ़ के चलते हर साल फसल का एक बड़ा हिस्सा बरबाद होता है. किसान कर्ज की दलदल में फंसता है. आत्महत्या करने को विवश होता है. 2012 में 13,754, 2013 में 11,772 और 2014 में 12,360 किसान और खेतिहर मजदूर खुदखुशी करने को मजबूर थे. ये सरकारी आंकड़े हैं. हकीकत इससे कहीं ज्यादा भयावह हो सकती है. दुर्भाग्यवश इन किसानों को समय पर पर्याप्त मदद तक नहीं मिल पाती. छत्तीसगढ़ में पिछले तीन साल में 309 किसानों ने आत्महत्या की, लेकिन सरकारी मदद मिल सकी केवल 3 को. ऐसे न जाने कितने छत्तीसगढ़ इस देश में हैं. वैसे यह उस मुल्क की तस्वीर है, जहां हर तीसरे माननीय सांसद खुद को किसान ही बताते हैं.
ऐसे में यकीनन ऐसी योजना वक्त की जरूरत है. लेकिन अभी भी कई चुनौतियां सामने हैं. मसलन, अफसरों की उदासीनता के बीच इस योजना का बेहतर क्रियान्वयन एक बड़ा सवाल है. मौजूदा बीमा योजना कवरेज का दायरा केवल 23 फीसद है! ऐसे में इस कम प्रीमियम वाली बेहतर योजना के प्रति भी जागरूकता बढ़ाना किसी चुनौती से कम नहीं. हमारे मुल्क में करीब 25 फीसद खेती बटाई पर होती है, लेकिन बीमे का लाभ सीधे बटाईदार को दिलाने में अभी भी मुश्किल है. इस दिशा में राज्य सरकारों को नियम बनाने हैं. वैसे, एक तबके को लगता है कि सूट-बूट की सरकार जैसे जुमलों और भूमि अधिग्रहण विधेयक जैसे विवादित मसलों के चलते बन रही अपनी किसान विरोधी छवि को मिटाने की कोशिश में सरकार ने इस योजना की पहल की है. अगर ऐसा है तो भी इस योजना का स्वागत करना चाहिए. विशुद्ध राजनीतिक लाभ के लिए ही सही, लेकिन यह योजना किसान हित की है. सवाल है कि करीब 18 लाख करोड़ रु. के सालाना बजट में 8,800 करोड़ रु. का प्रावधान करने में छह दशक क्यों बीत गए? यकीनन हम देर से आए हैं पर दुरुस्त आये हैं. यह बड़ी बात है.
मौसम विभाग के पूर्वानुमान से राहत
दूसरी राहत भरी खबर मौसम विभाग के पहले पूर्वानुमान से जुड़ी है, जिसके मुताबिक इस बार जून से सितम्बर तक सामान्य से अधिक बारिश होने की उम्मीद है. बदलते वक्त में अत्याधुनिक तकनीक से लैस मौसम विभाग ने अपनी साख पर लगते रहे सवालों को गलत साबित किया है. उम्मीद है कि जून में आने वाले आंकड़ों में भी अपेक्षाकृत ज्यादा बदलाव नहीं होगा. यकीनन, यह बड़ी राहत की बात है क्योंकि पिछले साल अल नीनो के कारण हुई कम बारिश के चलते आज देश के ढाई सौ से ज्यादा जिले सूखे की चपेट में हैं. 33 करोड़ से ज्यादा भारतीय सीधे तौर पर सूखे से प्रभावित हैं. ये अप्रैल के हालात हैं. मई और जून अभी बाकी हैं. गनीमत है कि अब जून से लेकर सितम्बर तक झमाझम बारिश की उम्मीद है. अच्छी बात यह भी कि इन चारों महीनों में किसान को जब-जब पानी चाहिए, उसे मिलेगा. उम्मीद जगी है कि खरीफ की फसल बेहतर रहेगी.
हालांकि अगले कुछ महीनों में होने वाली बारिश से समूचे जल संकट के सुलझने की उम्मीद कर लेना भूल होगी. बेहतर मॉनसून की खबर से लापरवाह नहीं बल्कि अधिक गंभीर होने की जरूरत है. समझना होगा कि हमारे मुल्क में दुनिया की 18 फीसद आबादी है, लेकिन पानी है दुनिया का केवल 4 फीसद! जितना है वह सारा भी साफ नहीं! नतीजतन हर साल लाखों लोगों की मौत अकेले गंदे पानी के कारण होती है. महंगे इलाज के चलते औसतन हर 10 मिनट पर एक भारतीय गरीबी रेखा के नीचे जा रहा है, जिसमें गंदे पानी से पैदा हुई बीमारियों की भी हिस्सेदारी है. यह तस्वीर तब है, जब अदालतें साफ पानी को नागरिकों का हक बता चुकी हैं.
मानवीय जीवन के साथ-साथ कृषि के लिहाज से भी बेहतर जल प्रबंधन पर विचार करना होगा; क्योंकि हमारे यहां भूजल की करीब 70 से 80 फीसद खपत अकेले सिंचाई में ही होती है. तब जबकि अभी तक हमारे मुल्क में बमुश्किल 45 फीसद खेती को ही सिंचाई नसीब हो पाई है. बाकी सब इंद्र देव की मेहरबानी पर ही निर्भर है. ऐसे में अगर मौजूदा व्यवस्था पर चलते हुए ही हर खेत को पानी पहुंचाने का चुनावी वादा पूरा किया तो समझिए हालात होंगे कैसे? पानी लाएंगे कहां से? जाहिर है अब बड़े बदलावों पर विचार करना ही होगा. गेहूं के मुकाबले गन्ने की खेती में 5 गुना ज्यादा पानी की खपत होती है, लिहाजा भीषण जल संकट वाले इलाकों में कम पानी वाली फसलों के लिए किसानों को प्रोत्साहित करना होगा.
हालांकि अतीत बताता है कि जल प्रबंधन पर हम गंभीर नहीं रहे. मनरेगा के तहत पिछले दस सालों में 2 लाख करोड़ रुपये जल संचयन पर खर्च हो गए, लेकिन हालात कमोबेश जस के तस ही रहे. महाराष्ट्र में सिंचाई के नाम पर हजारों करोड़ खर्च होने के बाद भी हालात जगजाहिर हैं. बाढ़ और सूखा भ्रष्ट अफसरशाही के लिए किसी पर्व से कम नहीं. जाहिर है कि सूखा सिर्फ प्राकृतिक समस्या नहीं बल्कि इंसान द्वारा बनाई गई विकराल आपदा भी है? इन हालात के लिए जितने दोषी इंद्र देव हैं, उससे कहीं ज्यादा हम हैं, और हमारी नीतियां हैं. इस बीच, फसल बीमा योजना से किसानों में पैदा होने वाले आत्मविश्वास और बेहतर मॉनसून से खत्म होती अनिश्चितता यकीनन अच्छी खबरें हैं. किसान की इस संभावित खुशी को देखकर उद्योग-धंधे भी उत्साहित हैं. यकीनन, गांव की बेहतर स्थिति ही विकास की परिकल्पना को साकार सकती है. लेकिन जरूरत जल संचयन और कृषि से जुड़ी नीतियों के ईमानदार क्रियान्वयन की है. इंतजार जल प्रबंधन के अच्छे दिनों का है.
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