अर्थव्यवस्था का चक्र और सूखे का दुष्चक्र
पिछले दिनों लातूर (महाराष्ट्र) पहुंची वॉटर ट्रेन ने समूचे देश का ध्यान खींचा था.
अर्थव्यवस्था का चक्र और सूखे का दुष्चक्र |
लेकिन इसने लाखों लोगों को लातूर जिले में सूखे के चलते उभरे कठिन और पानी की बेहद कमी के हालात से हर दिन जूझने के संघर्ष की चर्चा से थोड़ी देर के लिए ध्यान जरूर हटा दिया. प्रकृति की अनिश्चितताएं अपना खेल जारी रखे हुई हैं.इस भीतरी इलाके में किसानों के सामने कोई उपाय नहीं रह गया है. संकरे लातूर शहर में समूचा जल ढांचा चरमरा गया है, और आमजन इसका शिकार हुआ है.कलंतरी फूड प्रोडक्ट्स लि. के सीईओ नितिन कलंतरी, जो एक लातूर में दालों के अग्रणी निर्यातक और आपूर्तिकर्ता हैं, कहते हैं, ‘जल की कमी से कृषि उपज में कमी आई है, आमदनी घटीहै, और किसानों की खर्चने की शक्ति कम हुई है, शादियों का धूम-धड़ाका कम हुआ है.
त्योहार-उत्सवों का माहौल शहरों और ग्रामीण इलाकों में फीका हो गया है. ऐसा पहले कभी नहींहुआ.’ स्थानीय एग्रीकल्चर प्रोडय़ूस मार्केट कमेटी (एपीएमसी) ने जानकारी दी है कि उसका 2015-16 में कारोबार 905 करोड़ रहा. इससे पूर्व वर्ष में यह 1,460 करोड़ तथा वर्ष 2013-14 में 1,875 करोड़ रुपये था. विशेषज्ञों के मुताबिक, मटर की उपज में गिरावट आई है. पिछले वर्ष इसका उत्पादन जहां 1,500 क्विंटल था, जो इस बार गिरकर 5,000 क्विंटल रह गया है. यह धराशायीहोती अर्थव्यवस्था का संकेतक है. अन्य प्रभाव भी देखने को मिले हैं. गुरुकुल डेंटल क्लीनिक, जो लातूर का अग्रणी चिकित्सा केंद्र है, के डॉ. सतीश बिराजदार कहते हैं, ‘पानी की कमी से न केवल फफूंदीय संक्रमण और त्वचा रोग बढ़े हैं, बल्कि आमदनी में गिरावट से लोगों (पीड़ितों) को यथासंभव उपचार स्थगित करना पड़ रहा है. कुछ ऐसे भी हैं जो सस्ती सर्जरी, अगर यह सुविधा मिले तो, करवाना चाहते हैं.’
एक जटिल परिदृश्य
सूखे के विभिन्न कारण हैं, जो इस बात पर निर्भर करते हैं कि आप किससे जानना चाह रहे हैं. जिला प्रशासन प्रकृति की अनिश्चितताओं को जिम्मेदार ठहरा रहा है; तिलहन और दलहन लॉबी ज्यादा जल की खपत करने वाली गन्ने की फसल को जिम्मेदार ठहरा रही है; और कहना न होगा कि राजनेता एक दूसरे को जिम्मेदार ठहरा रहे हैं. भौगोलिक रूप से भी इस संकट के नाना प्रकार और रूप हैं. उत्तर-पूर्वी पट्टी-जलकोट, अहमदपुर, देवनी, नितूर, उदगिर-में जलीय सूखा और जलाभाव है. थोड़ी समृद्ध और हरित उत्तर-पश्चिमी पट्टी-रेनापुर, लातूर शहर और औसा-पर कृषि और मौसमी सूखे की मार पड़ी है. जलकोट में भूमिगत जल का स्तर खतरे की घंटी बजा रहा है. अभी यह -4.7 मीटर है. अहमदपुर में यह-4.38 मीटर; देवनी में -4.08 मीटर है. भूमिगत जल अधिनियम के मुताबिक, -1 मीटर का स्तर ‘संभाल सकने वाली कमी’ है, -2 मीटर का स्तर ‘गंभीर’ और -3 मीटर का स्तर ‘खतरे की घंटी’ है. जलकोट ने खतरे के निशान को गत अक्टूबर माह में ही पार कर लिया था, जब 10 तालुकाओं में औसत गिरावट -3.53 मीटर आंकी गई थी.
पूर्व के कुछ बैराज और बांध सूख गए हैं क्योंकि वहां लगातार तीन मॉनसून कमजोर रहे. अहमदपुर में 33 लघु जल परियोजनाएं हैं, जिनकी कुल क्षमता 14.4मिलियन क्यूबिक मीटर (एमसीएम) है, लेकिन मौजूदा जल उपलब्धता शून्य है. यही स्थिति जलकोट में है, जहां 10 जल परियोजनाएं (जिनकी क्षमता 25.26 एमसीएम) हैं. विडम्बना है कि यह इलाका ‘सुनिश्चित बारिश’ वाला क्षेत्र(यहां हर मानसून में 700-800 मिमी. बारिश होती है) है, जबकि समृद्ध पश्चिमी शक्कर पट्टी को ‘डीएपीपी (सूखा-आशंकित क्षेत्र के अधीन कार्यक्रम वाला-ड्रॉट प्रोन एरिया प्रोग्रोम) घोषित’ किया गया है. ऐसा इसलिए कि यह तीन शक्तिशाली चीनी मिलों का इलाका है, और यहां जल के प्रमुख स्रोत भी हैं, जिनमें मंजरा बांध और भंडारवाड़ी बैराज भी शामिल हैं.
एनएएएम (नाम) फाउंडेशन, जिसे अभिनेता नाना पाटेकर ने आरंभ किया है, के सुधीर माने कहते हैं, ‘पश्चिमी पट्टी तीन बड़े कारकों : मंजरा, रैना और विकास शुगर फैक्टरीज के आसपास विकसित हुई है.’ पाटेकर ‘नाम’ फाउंडेशन के माध्यम से किसानों को सूखा राहत के लिए धन मुहैया कराते हैं. ‘बैंक भी उन्हीं राजनेताओं से संबद्ध हैं. इसलिए चक्रीय अर्थव्यवस्था उस समय पूरी हो गई जब उन्हें इन बैराज से आसानी से पानी उपलब्ध होने लगा. यही अर्थव्यवस्था है, जो आज चरमरा जाने की आशंका का सामना कर रही है.’
लातूर ग्रामीण से कांग्रेस के पूर्व विधायक एवं पश्चिमी पट्टी में निवाली के निकट स्थापित विकास कोपरेटिव शुगर फैक्टरी के निदेशक वैजनाथराव शिंदे कहते हैं, ‘पूर्व में तो विकास के बारे में कभी सोचा ही नहीं गया.’ वह अपने कहे पर और प्रकाश डालते हुए बताते हैं कि इस क्षेत्र की ऊंचाई के कारण पानी कभी बहकर इस तक नहीं पहुंचा और यहां की ‘जमीन भी पश्चिम की तुलना में कम उपजाऊ है.’ उन्होंने इस अवधारणा, कि गन्ने की पैदावार में ज्यादा पानी की खपत होती है, के विपरीत विचार रखते हुए बताया कि गन्ने में इस्तेमाल होने वाली पानी बर्बाद नहीं होता बल्कि यह रिसकर जमीन में ही पहुंच जाता है.
जलवायु परिवर्तन
वर्षा का बदला ढर्रा उपज मारे जाने का सबसे बड़ा कारण है, जिससे इस बार खरीफ और रबी, दोनों फसलों पर मार पड़ी है. उदाहरण के लिए लातूर में 2013 और 2014 के जुलाई माह में औसत बारिश 331.54 मिमी.रही लेकिन 2015 में यह मात्र 31.7 मिमी. दर्ज की गई. लातूर और बीड़ में अब सालाना वर्षा-दिवसों की संख्या क्रमश: 36 और 37 ही रह गई है. जिले में 2014 में 50.12 प्रतिशतऔर 2015 में 47.94 प्रतिशत कम बारिश हुई. कम बारिश का अर्थ है भूमिगत जल में कमी आ जाना. आम तौर पर यहां जुलाई माह में बारिश का मौमस आरंभ होता है, लेकिन इसका ज्यादातर हिस्सा अगस्त माह में गिरता है. कुछ बारिश अक्टूबर माह में होती है. फिर, फरवरी माह में ओलावृष्टि के हालात बन जाते हैं. इसलिए मटर, उड़द और मूंग जैसे दलहन की पैदावार लेना किसानों के लिए किसी चुनौती से कम नहीं है. और तिलहन (सोयाबीन) की उपज लेने में आसानी रहती है. जिले में 141 छोटे-बड़े जल स्रोतों में मात्र 1.72 प्रतिशत जल बचे रहने के मद्देनजर जिला स्तरीय अधिकारियों का आकलन है कि खरीफ फसल में 70 प्रतिशत से ज्यादा कमी आएगी.
2015 में लातूर जिले में 106 किसानों ने आत्महत्या की थी. इस साल मार्च माह के अंत तक दुखी कर देने वाला यह आंकड़ा 35 दर्ज किया गया. मराठवाड़ा के आठ जिलों में 2015 में 1133 किसानों ने आत्महत्या की थी. इस साल 28 मार्च, 2016 को यह आंकड़ा 253 दर्ज किया गया. पर्यावरणविद् एवं महाराष्ट्र की कृषि विषयक अनेक पुस्तकें लिख चुके अतुल दिओलगांवकर कहते हैं, ‘बीते वर्षकुछ किसान उपज काट सके थे, लेकिन उसके बाद लंबे समय तक सूखे के दौर ने उन्हें इस बार फसल की बुवाई तक का मौका नहीं दिया. जहां बुवाई हो भी सकी तो वहां सूखे ने फसल को मार दिया. आंखों के सामने चौपट होती फसल और घर में किसी शादी की तैयारियां और दूसरे तमाम कारण हैं, जिनके चलते किसान आत्महत्या करने को विवश होते हैं.
| Tweet |