अमेरिका : ..पर उपदेश कुशल बहुतेरे

Last Updated 05 May 2016 05:34:44 AM IST

इंटरनेशनल रिलिजस फ्रीडम एक्ट, 1998 द्वारा स्थापित यूनाइटेड स्टेट्स कमीशन ऑनइंटरनेशनल रिलिजस फ्रीडम ने 2015 के लिए अपनी रिपोर्ट जारी कर दी है.


अमेरिका : ..पर उपदेश कुशल बहुतेरे

हैरत यह कि रिपोर्ट अमेरिका के बजाय अन्य देशों के बारे में तैयार की गई है. इस रिपोर्ट को मोदी सरकार ‘नकारात्मक रुख’ करार देते हुए नकार चुकी है, जबकि इसकी पूर्ववर्ती यूपीए सरकार ने ऐसी कई रिपोर्टों को अमेरिका की आंतरिक रिपोर्ट बताकर पूरी तरह से अनदेखा कर दिया था. इसके बावजूद भारत को एक बार फिर तीसअन्य देशों के साथ रिपोर्ट में टायर टू देश के तौर पर नामांकित किया गया है. टायर टू देश यानी ऐसे देश जो धर्म की स्वतंत्रता की हिफाजत करने में कदम उठाने में चूक गए हैं.

रिपोर्ट के पांच पृष्ठों में भारत का उल्लेख किया गया है. इस बात का जिक्र है कि भारत में धार्मिक अल्पसंख्यकों के अधिकारों की घोर उल्लंघना हुई है,और अमेरिकी सरकार से आग्रहकिया गया है कि भारत के साथ दुतरफा संबंधों संबंधी बातचीत में इसे एक मुद्दे की तरह शुमार किया जाए. अमेरिकी सरकार से यह आग्रह किया गया है कि वह भारत से उन सरकारी अफसरों और धार्मिक नेताओं को सार्वजनिक रूप से डपटने के लिए कहे जिन्होंने धार्मिक अल्पसंख्यकों के खिलाफ बेहद अपमानजनक टिप्पणियां की हैं.

हालांकि प्रधानमंत्री मोदी की रिपोर्ट में प्रशंसा की गई है कि उन्होंने फरवरी, 2015 को अपने भाषण में कैथॉलिक बिशपों को ‘पूर्ण धार्मिक स्वतंत्रता’ को लेकर आस्त किया था. इसी तरह, अमेरीकी राष्ट्रपति ओबामा के 2015 में दिए गए उस बयान को सकारात्मक करार देते हुए रिपोर्ट में स्थान दिया गया है, जिसमें उन्होंने कहा था कि भारत में असहिष्णुता के घृणित कारनामे महात्मा गांधी के लिए सदमे सरीखे होते. चूंकि अमेरिका ने हमें सीख दी है, तो यह जरूरी लगता है कि अमेरिका के तथाकथित ‘गैर-प्रतिष्ठान’ के विभिन्न आयामों तथा उसकी धर्मनिरपेक्षता की परख-पड़ताल कर ली जाए.

बेशक, बहुत कम देश नागरिक अधिकारों खासकर धार्मिक स्वतंत्रता के मामले में अमेरिका के पासंग ठहरतेहैं. लेकिन इसके बावजूद तस्वीर उतनी उम्दा भी नहीं है, जितनी कि दिखाई देती है. अमेरिका को ‘चर्च की आत्मा वाला देश’ कहा गया है. आपको वहां देश नहीं बल्कि एक विशाल चर्च मिलेगा.’ भले ही राष्ट्रपति ओबामा बार-बार कहते रहे हैं कि अमेरिका ईसाई राष्ट्र नहीं है, लेकिन दो-तिहाई अमेरिकी मानते हैं कि संविधान ने ही इसे एक ईसाई राष्ट्र के रूप में स्थापित किया है.

सच्ची धर्मनिरपेक्षता से हीसभी धर्मो तथा धर्म से मुक्ति की राह प्रशस्त होती है. धर्म की स्वतंत्रता का अच्छी नागरिकता और देश के प्रति निष्ठा से कुछ लेना-देना नहीं है. तमाम प्रगतिशील समाज अपने अल्पसंख्यकों की धार्मिक मान्यताओं का सम्मान करते हैं. भारतीय संविधान में यही अवधारणा निहित है, जो प्रत्येक व्यक्ति यहां तक कि विदेशियों को भी धर्म की स्वतंत्रता की गारंटी सुनिश्चित करती है. हम भारतीयों का अमेरिका के गैर-प्रतिष्ठान संबंधी अनुच्छेद को समर्थन है, और हम उसे एक स्थापित धर्मनिरपेक्ष गणराज्य के रूप में देखते हैं, लेकिन हमने कभी राजनीति से धर्म के पूरी तरह से अलग वजूद को नहीं स्वीकारा. मोदी सरकार ने सही कहा है कि रिपोर्ट हमारी विविधता और हमारे संवैधानिक मूल्यों को नहीं समझ पाई है.

अनेक अमेरीकियों का मानना था कि संविधान में ईसाइयत का जिक्र नहीं करने के कारण ही उनके देश को नागरिक युद्ध के रूप में दिव्य दंड भोगनापड़ा था. और पूर्वजों की भूल को सुधारने की गरज से 1864 में औपचारिक रूप से ‘ईसाई राष्ट्र’के रूप में संशोधन लाया गया था. एक दशक के उपरांत हाउस ज्यूडिशियरी कमेटी में इस बाबत प्रस्ताव को नामंजूर कर दिया गया. काफी अरसे बाद 1950 में इसे संविधान में शामिल करने की बाबत प्रस्ताव लाया जा सका. अनेक अमेरिकी राष्ट्रपतियों ने भी स्वीकारा था कि उनका देश ईसाई प्रकृति का राष्ट्र है. बुडड्रॉ विल्सन ने कहा था : ‘अमेरिका का ईसाई राष्ट्र के रूप में उदय हुआ था.’ हैरी ट्रूमैन ने कहा था, ‘यह ईसाई राष्ट्र है.’ और र्रिचड निक्सन ने कहा था, ‘हमें याद रखना चाहिए कि एक ईसाई राष्ट्र के रूप में..हमारा दायित्व और नियति है.’ सितम्बर,2011 में राष्ट्रपति जॉर्ज डब्ल्यू बुश ने भी कहा था, ‘यहधर्मयुद्ध, आतंकवाद के खिलाफ युद्ध का समय आ गया है.’

अमेरिका के विपरीत, भारत में किसी सरकारी संस्थान या अधिकारी ने कभी नहीं कहा कि भारत हिंदू राष्ट्र है. और हमारे यहां अल्पसंख्यक पूरी तरह से संरक्षित हैं, संविधान में उनकी सुरक्षा के लिए मुकम्मल प्रावधान किए गए हैं. संविधान के अनुच्छेद 25 के तहतधर्म की स्वतंत्रता में न केवल किसी धर्म को ‘स्वीकार करने’ और ‘अनुपालन’ करने की स्वतंत्रता शामिल है, बल्कि उसका ‘प्रचार’ करने की भी आजादी है. दरअसल, ‘प्रचार’ को संविधान में ईसाइयों के साथ एक समझौते के अंग के रूप में शामिल किया गया था. समझौते के तहत अल्पसंख्यकों ने आरक्षण त्याग दिया था, और स्पष्टत: इसे ‘धर्मपरिवर्तन की स्वतंत्रता’ को कवच देने के रूप में इस्तेमाल किया जाना था. रिपोर्ट में जिन धर्म-परिवर्तन विरोधी कानूनों का उल्लेख किया गया है, उनकी समीक्षा किया जाना आवश्यक है. ‘घरवापसी’काखात्मा होना ही चाहिए.

हमारी न्यायपालिका ने धर्म की स्वतंत्रता की पूरी सतर्कता के साथ हिफाजत की है, और अल्पसंख्यक अपनी समस्याओं को बिना किसी बाहरी सहायता के सुलझाने में समर्थ हैं. लेकिन रिपोर्ट में उल्लिखित कुछ तथ्य वास्तव में सही भी हैं. हमें स्वीकारना होगा कि अल्पसंख्यकों में असुरक्षा का भाव है. हम नकार नहीं सकते कि भाजपा के कुछ नेताओं ने नफरत फैलाने वाले भाषण दिए हैं. उनके खिलाफ कार्रवाई नहीं की गई. भीड़ द्वारा अल्पसंख्यकों पर हमले का रिपोर्ट में उल्लेख सही है. सरकार को इस दिशा में जरूर कुछ करना चाहिए.
(लेखक नलसार कानून विवि. के कुलपति हैं)

फैजान मुस्तफा
लेखक


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