श्रम सुधार : यह समय की मांग है
हाल ही में तीन मई को अंतरराष्ट्रीय मुद्रा कोष (आईएमएफ) ने अपनी नवीनतम रिपोर्ट में कहा कि भारत के तेज आर्थिक विकास के लिए श्रम सुधार और जीएसटी महत्त्वपूर्ण आवश्यकताएं हैं.
यह समय की मांग है |
हालांकि बहुप्रतीक्षित श्रम सुधार देश की जरूरत है. लेकिन देश में मजदूर संगठनों के विरोध को देखते हुए केंद्र सरकार ने श्रम सुधारों की अपनी महत्त्वाकांक्षी योजना को फिलहाल ठंडे बस्ते में डालदिया है. यद्यपि केंद्र में श्रम सुधार संबंधी कई चुनौतियां हैं, लेकिन कुछ राज्यों जैसे राजस्थान, मध्यप्रदेश और गुजरात ने श्रम कानूनों में कई व्यापक बदलाव किए हैं.
राजस्थान इस मामले में सबसे आगे है. राजस्थान ने फैक्टरी कानून, औद्योगिक विवादकानून, प्रशिक्षु कानून और अनुबंधित श्रम कानून के प्रावधानों में महत्त्वपूर्ण सुधार किए हैं. इसी तरह, मध्य प्रदेश ने कोई 20 श्रम कानूनों में संशोधन किए हैं. मौजूदा श्रम नियमों को सरल बनाने के लिए श्रम मंत्रालय 44 कानूनों को चार संहिताओं में करने की प्रक्रिया में है. ये संहिताएं औद्योगिक संबंध, मजदूरी, सामाजिक सुरक्षा एवं सुरक्षा हैं.
विश्व बैंक की नई अध्ययन रिपोर्ट के मुताबिक भारत के श्रम कानून दुनिया के सर्वाधिक प्रतिबंधनात्मक श्रम कानून हैं. देश के श्रम कानून लंबे समय से लाइसेंस राज की विरासत को ढोने वाले कानून बने हुए हैं.इकोनोमिस्ट इन्टेलीजेंस यूनिट (ईआईयू) की रिपोर्ट में रिपोर्ट में भारत को 46वां स्थान दिया गया है; जबकि चीन, दक्षिण कोरिया, मेक्सिको और थाईलैंड की रैंकिंग भारत से काफी ऊपर बताई गई है. उल्लेखनीय है किश्रम और औद्योगिक कानूनों की संख्या के मामले में हमारा देश दुनिया में सबसे आगे है.
केन्द्र सरकार के पास श्रम से संबंधित 50 और राज्य सरकारों के पास श्रम से संबंधित 150 कानून हैं. देश में कारोबार के रास्ते में कई कानून ऐसे भी लागू हैं जो ईस्ट इंडिया कंपनी और ब्रिटिश शासनकाल के दौरान 150-200 साल पहले बनाए गए थे. कई वर्षो से यह अनुभव किया जा रहा है कि श्रम कानून भी उत्पादकता वृद्धि में बाधक बने हुए हैं. इसी परिप्रेक्ष्य में विधि आयोग ने 1998 में ऐसे कानूनों का अध्ययन किया था और ऐसे कानूनों की एक लंबी सूची तैयार की थी, जिन्हें समाप्त कर संबंधित कार्यों को गतिशीलता दी जा सकती है.
उच्चतम न्यायालय भी कई बार अप्रासंगिक हो चुके ऐसे कानूनों की कमियां गिनाता रहा है, जो काम को कठिन और लम्बी अवधि का बनाते हैं. स्पष्ट है कि ऐसे कानूनों से सरकार और देश की अर्थव्यवस्था को नुकसान भुगतना पड़ रहा है. कई शोध अध्ययनों में यह तथ्य उभरकर सामने आया है कि भारत में उदारीकरण की धीमी और जटिल प्रक्रिया के पीछे श्रम सुधारों की मंद गति एक प्रमुख कारण है.
अब भारत में निवेश बढ़ाने और मेक इन इंडिया अभियान के सफल होने की संभावनाएं साकार करने के लिए श्रम सुधार जरूरी हो गए हैं. यह जरूरी है कि चीन की तरह श्रम कौशल प्रशिक्षण पर प्राथमिकता से ध्यान दिया जाए. चीन में श्रम कानूनों को अत्यधिक उदार और लचीला बनाकर कार्य संस्कृति विकसित की गई है. चीन में पुराने व बंद उद्योगों में कार्यरत श्रमिकों को नई जरूरतों केअनुरूप काम करने केलिए प्रशिक्षण ने की नीति भी अपनाई गई है.
वस्तुत: श्रम सुधार समय की मांग है. ऐसे सुधारों से आर्थिक विकास और रोजगार केनए रास्ते खोले जा सकते हैं. अब श्रम कानूनों में लचीलापन लाने और इंस्पेक्टर राज को समाप्त करने केलिए श्रम नियमों को सरलतापूर्वकलागू करना होगा. श्रम कानूनों की भरमार कम करनी होगी और ऐसी नीतियां और कार्यक्रम बनाने होंगे, जिनसे उत्पान बढ़े और उपयुक्त सुरक्षा ढांचे के साथ श्रमिकों का भी भला हो.श्रम कानूनों में बदलाव का मतलब श्रमिकों का संरक्षण समाप्त करना नहीं है वरन इससे उद्योग-कारोबार के बढ़ने की संभावना बढ़ेगी और उद्योगों में नए श्रम अवसर निर्मित होंगे.
उद्योग जगत को भी यह समझना होगा कि वह श्रमिकों को खुश रखकर ही उद्योगों को तेजी से आगे बढ़ा सकेगा. इस समय जब मोदी सरकार अपने कार्यकाल के दो साल पूरे करने जा रही है तब सरकार को अधिकतम प्रयास करना होगा कि श्रम संगठन और उद्योग संगठन श्रम और पूंजी के हितों में समन्वय बनाने के लिए खुले मन से संवाद करें. ऐसा होने पर ही सरकार श्रम एवं पूंजी के बीच संतुलन बनाने की कठिन चुनौती का समाधान निकाल सकेगी. इससे श्रमिकों और उद्योगपतियों की प्रसन्नता के साथ देश के विकास की डगर आगे बढ़ सकेगी.
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