थाली से हाली तक प्यास ही प्यास

Last Updated 04 May 2016 05:20:57 AM IST

महाराष्ट्र में लातूर गंभीर जल संकट का प्रतीक बन गया है. अनेक ‘जल दूतों’ (वॉटर ट्रेन) को लातूर की प्यास बुझाने के लिए चक्कर पर चक्कर लगाने पड़ रहे हैं.


थाली से हाली तक प्यास ही प्यास

महाराष्ट्र सरकार को जलाशयों/जल वितरण केंद्रों के आसपास शांति व्यवस्था बनाए रखने के लिए धारा 144 भी लगानी पड़ी. आईपीएल मैचों के मामले में उच्च न्यायालय ने हस्तक्षेप करते हुए मैचों को राज्य से बाहर खिलाने को कहा है ताकि लगभग 60 लाख लीटर पानी बचाया जा सके.

यह कोई पहली दफा नहीं है, और यकीनन न ही आखिरी बार होगा, कि ट्रेनों को जल-संकट से जूझ रहे क्षेत्रों में पेयजल पहुंचाना पड़ा. सुधारात्मक उपाय नहीं किए गए तो इन ट्रेनों के चक्कर और कवरेज क्षेत्र बढ़ाने ही होंगे. लगातार सूखे ने न केवल लातूर बल्कि भारत के 250 से ज्यादा जिलों (678 जिलों में से) में पानी  की कमी की गंभीरता उजागर कर दी है. घबरा जाने वाले लोग जहां कुदरत को कोसते हैं, वहीं बहादुर आगे बढ़कर चुनौती का सामना करते हैं, और संकट को भी ऐसे अवसर में बदल डालते हैं, जो जन-जन के हित में होता है. नितिन गडकरी ने 15 अप्रैल को एक कार्यक्रम में ध्यान दिलाया था कि महाराष्ट्र सिंचाई ढांचे पर जरूरत से कम निवेश कर रहा है. बताया कि उसने इस मद पर मात्र 7 हजार करोड़ रुपये व्यय किए जबकि तेलंगाना ने 25 हजार करोड़ रुपये.

महाराष्ट्र में कृषि रकबे का मात्र 18 प्रतिशत क्षेत्र ही सिंचित कवर के तहत है, जबकि अखिल भारतीय औसत 47 प्रतिशत और पंजाब जैसे राज्यों में तो यह आंकड़ा 97 प्रतिशत है. बेशक, सिंचाई ढांचे को विकसित करने के लिए और ज्यादा निवेश किए जाने की जरूरत है. अगर महाराष्ट्र बुलेट ट्रेन पर 90 हजार करोड़ रुपये की लागत वहन करने की सोच सकता है, तो अपने जल संसाधनों को विकसित करने के लिए इसी प्रकार की प्राथमिकता के साथ क्यों नहीं सोचता? सबसे पहले तो यह करे कि संसाधन आवंटन प्रक्रिया में श्रेष्ठ वर्ग की तरफदारी करना बंद कर दे.

सिंचाई की मद पर निवेश
आइए, देखते हैं कि 10वीं तथा 11वीं योजनाओं (वित्तीय वर्ष 03-12) के दौरान के दस वर्षो में महाराष्ट्र ने सिंचाई की मद पर कितने धन का निवेश किया और हासिल क्या किया. आंकड़ों को तुलना करने योग्य बनाने की गरज से हमने सालाना परिव्यय को 2014-15 की कीमतों के आधार पर परिवर्तित किया. महाराष्ट्र में इन दस वर्षो में सिंचाई के लिए समग्र सार्वजनिक परिव्यय 1,18,235 करोड़ रुपये बैठता है. इस अवधि के दौरान, निर्मित सिंचाई क्षमता (आईपीसी-इरिगेशन पोटेंशियल क्रियेटिड) 8.9 लाख हेक्टेयर तथा उपयोग में लाई गई सिंचाई क्षमता (आईपीयू-इरिगेशन पोटेंशियल यूटिलाइज्ड) मात्र 5.9 लाख हेक्टेयर थी. इससे पता चलता है कि आईपीयू की प्रति हेक्टेयर लागत 20 लाख रुपये थी. इसकी तुलना गुजरात से करें, जिसने इसी अवधि के दौरान मात्र 46,888 करोड़ रुपये व्यय (2014-15 की कीमतों के आधार पर) किए और 22.5 लाख हेक्टेयर की सिंचाई क्षमता का निर्माण और 17.3 लाख हेक्टेयर में उपयोग किया. इसकी आईपीयू लागत मात्र 2.71 लाख रुपये प्रति हेक्टेयर थी. मध्य प्रदेश में इसी अवधि में इसी प्रकार की कार्य लागत 4.26 लाख रुपये प्रति हेक्टेयर रही.

सो, महाराष्ट्र में सिंचाई पर कम व्यय असल मुद्दा नहीं है. असल मुद्दा है कि इसकी लागत (20 लाख रुपये प्रति हेक्टेयर) मध्य प्रदेश (4.26 लाख रुपये प्रति हेक्टेयर) और गुजरात (2.71 लाख रुपये प्रति हेक्टेयर) की तुलना में ऊंची है. क्या इसका कारण भौगोलिक स्थिति है, या सिंचाई प्रणालियों में बड़े स्तर पर रिसाव है? हालांकि कोई भी गडकरी के विचार से सहमत होगा कि महाराष्ट्र को सिंचाई ढांचे पर ज्यादा संसाधन जुटाने चाहिए लेकिन रिसाव पर ध्यान दिए बिना और ज्यादा धन जुटाए बिना अपेक्षित परिणाम हासिल नहीं किए जा सकते. महाराष्ट्र के लिए जरूरी है कि सिंचाई ढांचे पर परिव्यय, निर्मित सिंचाई क्षमता और उपयोग की अन्य राज्यों में इस प्रकार के प्रयासों के साथ तुलनात्मक परख करते हुए ेत पत्र जारी करे ताकि पता चल सके कि इतना ज्यादा निवेश के बावजूद अपेक्षित नतीजे हासिल नहीं किए जा सके.

गन्ने की कहानी बयां करती सच्चाई
आइए, अब गन्ने के मुद्दे पर गौर करते हैं. एक तथ्य से ही पूरी कहानी बयां हो जानी चाहिए. महाराष्ट्र के सकल फसली रकबे के लगभग 4 प्रतिशत क्षेत्र में ही गन्ने की खेती होती है, लेकिन राज्य में उपलब्ध सिंचाई के पानी का करीब दो-तिहाई इस फसल में खप जाता है. इस प्रकार की बड़ी असमानता किसी अन्य राज्य में देखने को नहीं मिलती. बाजार अर्थव्यवस्था में सिंचाई के पानी (और बिजली) की लागत और उसके उपयोग में उत्तरोत्तर वृद्धि की स्थिति इस विसंगति का समाधान कर सकती है. लेकिन जब खेती के लिए पानी और बिजली पर खासी ज्यादा सब्सिडी मिल रही हो तो बनावटी मांग-आधिक्य की स्थिति पैदा हो जाती है, जिससे इन कीमती संसाधनों के लिए झीना-झपटी शुरू के हालात बन जाते हैं.

कहना न होगा कि शक्तिशाली ही जीतता है, जो अन्य लोगों की संभावित समृद्धि का हरण कर लेता है. तथ्य यह भी है कि महाराष्ट्र में कपास के कुल रकबे में मात्र 3 प्रतिशत ही सिंचित है, जबकि गन्ने का शत-प्रतिशत. कपास को मात्र चार-पांच बार पानी लगाया जाता है, जबकि गन्ने को 20-25 बार. इसी से कहानी का अनैतिक पहलू उजागर हो जाता है. गुजरात में कपास का 57 प्रतिशत रकबा सिंचित है. तो फिर हैरत ही क्या कि गुजरात में उपज महाराष्ट्र की तुलना में दोगुनी है.

मांग प्रबंधन के लिहाज से क्या किया जा सकता है? सरकार ने फैसला कर लिया है कि आगामी पांच वर्षो में मराठवाड़ा में कोई नई चीनी फैक्टरी नहीं लगाई जाएगी. यह स्वागत योग्य फैसला है, लेकिन बीते तीन सालों में जो करीब 20 चीनी  फैक्टरी लगाई गई हैं, उनके बारे में क्या कहें? जब पानी दुलर्भ हो तो इसकी मांग पूरी करने के लिए एक ही रास्ता बचता है. यह कि इसके बढ़ते उपयोग के साथ-साथ इसके दाम बढ़ाए जाएं या इसकी मात्रा की राशनिंग की जाए. क्या सरकार इस दिशा में बढ़ सकती है, कि प्रत्येक मांगकर्ता को एक समान प्रति हेक्टेयर आधार पर पानी आपूर्ति करे और फिर उन्हें अपने तई प्रयास करने दे? यह भी किया जा सकता है कि महाराष्ट्र में गन्ने की उपज के लिए ड्रिप सिंचाई को अनिवार्य बना दिया जाए.

क्या सरकार चीनी फैक्टरियों को सुनिश्चित करने को कह सकती है कि आगामी तीन वर्षो में गन्ने के कम से कम 75 प्रतिशत रकबे को ड्रिप सिंचाई के तहत लाएं नहीं तो उनके पास परिचालन अधिकार नहीं रह जाएगा? ड्रिप सिंचाई प्रणाली लगभग 40-50 प्रतिशत पानी की बचत करेगी. ऐतिहासिक रूप से पूर्वी उत्तर प्रदेश और बिहार गन्ना उत्पादन के केंद्र रहे हैं, जहां प्राकृतिक रूप से जलाधिक्य है. लेकिन सहकारिताओं को लाइसेंसिंग प्राथमिकता के आधार पर देने के चलन से चीनी उद्योग उस पट्टी में पहुंच गया जहां पर्याप्त पानी नहीं है. इसलिए पानी को लेकर विवाद सर्वविदित हैं. और अब आईपीएल मैचों पर उच्च न्यायालय के फैसले पर आते हैं.

एक किग्रा. चीनी के उत्पादन में 2,000 लीटर से ज्यादा पानी की खपत होती है. मात्र तीन टन चीनी, जिसकी कीमत करीब एक लाख रुपये होती है, से ही इतना पानी आईपीएल मैचों के लिए आपूर्त हो जाता, जिनसे 100 करोड़ रुपये के राजस्व की प्राप्ति संभावित थी. तो इन नीतियों और घोषणाओं में कितनी ज्यादा भावुकता, नाटकीयता, तार्किकता और प्रचारबाजी है, पाठक खुद ही फैसला कर सकते हैं.

अशोक गुलाटी
कृषि अर्थशास्त्री


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