नागरिक-सामाजिक दायित्व का भान, निर्वहन जरूरी

Last Updated 04 May 2016 05:16:27 AM IST

राष्ट्रीय मीडिया में सूखे की भयावहता और पानी के संकट की खबरें कुछ राज्यों के कुछ क्षेत्रों तक सीमित हैं.


नागरिक-सामाजिक दायित्व का भान, निर्वहन जरूरी

इससे ऐसी तस्वीर उभरती है मानो देश के शेष भागों में बेहतर या कुछ अच्छी स्थिति होगी. सच है कि भयानक सूखा और जल संकट की गिरफ्त पूरे देश में है. कम से कम 300 लोगों के मरने की खबरें अभी तक आ चुकी हैं. आंध्र प्रदेश और तेलंगाना में सबसे ज्यादा मौतें हुई हैं. पिछले वर्ष गर्मी और सूखे के कारण 2035 लोगों की मौत का आंकड़ा हमारे सामने आया था. इसमें महाराष्ट्र और बुंदेलखंड का स्थान ऊपर नहीं था. गरमी से झुलसते जिन शहरों के तापमान 44 डिग्री से ऊपर गए उनमें देश के अनेक राज्यों के शहर शामिल हैं.

देश में 91 बड़ी झीलें और तालाब हैं, जो पेयजल, बिजली और सिंचाई के प्रमुख स्रोत हैं. इनमें औसत से 23 प्रतिशत पानी की कमी आई है. ये जलाशय किसी एक दो राज्य में तो हैं नहीं. जिसे पूर्व मॉनसून बारिस कहते हैं, वो अगर आकाश से धरती पर नहीं उतरा तो फिर इससे पूरा देश प्रभावित है, तो देश से बाहर निकलें तो पूरा एशिया, अफ्रीका, दक्षिण अमेरिका और इससे लगे इलाके बुरी तरह प्रभावित हैं. मौसम विभाग का रिकॉर्ड बताता है कि 1901 के बाद पिछला साल भारत का तीसरा सबसे गर्म साल रहा था. 1880 में शुरू हुए रिकॉर्ड के मुताबिक, 2015 में औसत तापमान 0.90 डिग्री ज्यादा था. 2016 भी उसी श्रेणी का वर्ष साबित हो रहा है. वास्तव में सूखे की समस्या और उससे जुड़ा पानी का संकट पूरे देश में है. हां, कुछ राज्य इससे ज्यादा ग्रस्त हैं. हिमाचल, तेलंगाना, पंजाब, ओडिशा, राजस्थान, झारखंड, गुजरात, महाराष्ट्र, उत्तर प्रदेश, उत्तराखंड, बिहार, मध्य प्रदेश, छत्तीसगढ़, तमिलनाडु, कर्नाटक और केरल जैसे राज्यों में पिछले साल के मुकाबले भी इस साल जल स्तर में काफी कमी देखी जा रही है.

बिहार में भी स्थिति नहीं कोई बेहतर
आपने बिहार में सूखा संकट के राष्ट्रीय स्तर पर चर्चा नहीं सुनी होगी. पूर्वी उत्तर प्रदेश एवं प. बंगाल की भी नहीं. बिहार के किसान बताते हैं कि पिछले आठ साल से ठीक से बारिश हुई ही नहीं. बारिश या तो देर से आई या कम आई. प्रदेश के दो तिहाई क्षेत्रों में जल स्तर इतना नीचे चला गया है कि पुराने हैंडपंप एवं बोरिंग बेकार हो रहे हैं. जिलों-जिलों के आंकड़े आ रहे हैं कि किस जिले में कितने हैंडपंप सूखे हैं, कितने कुएं सूख गए और आंकड़े भयावह हैं. नदियों वाले जिलों में भी कई सौ की संख्या में हैंडपंप सूखने की खबरें हैं. जमुई के बरहट प्रखंड के कई गांवों के लोग 10-12 किलोमीटर दूर जाकर पानी लाते हैं, या फिर नदी की बालू को खोद कर पानी निकाल रहे हैं. लखीसराय जिले में ऊल नदी मरु भूमि बन चुकी है. चानन में बरसाती पानी रोकने के लिए बनाए गए फाटक नवीनगर से कुंदर तक 5-7 किलोमीटर में जो थोड़ा पानी बचा है, वहां लोग बालू खोद कर पानी निकाल रहे हैं.

प. बंगाल के फरक्का में एक दिन पानी इतना कम हो गया कि वहां के पावर प्लांट को बंद करना पड़ा. यह घटना मार्च की है. इस समय क्या स्थिति होगी इसकी कल्पना करिए. अगर मौसम विज्ञान विभाग के अनुसार अल नीनो और ग्लोबल वार्मिग इसकी मुख्य वजह है, तो यह एक दो राज्यों के लिए तो नहीं हो सकता. इसी तरह पिछले दो सालों से कम बारिश होने के कारण गर्मी ज्यादा पड़ रही है, सूखे की समस्या सामने है तो यह भी देशव्यापी ही है. वास्तव में केंद्र सरकार ने भी सूखे को लगभग देशव्यापी मान लिया है.

19 अप्रैल को उच्चतम न्यायालय में पेश रिपोर्ट में सरकार ने माना कि कम से कम 10 राज्यों के 256 जिलों में करीब 33 करोड़ लोग सूखे की मार झेल रहे हैं. गुजरात सहित कुछ राज्यों के विस्तृत आंकड़े केंद्र के पास नहीं आ सके थे. केंद्र ने अदालत को बताया कि सूखाग्रस्त राज्यों की स्थिति के मद्देनजर उसने मनरेगा के तहत निर्धारित 38,500 करोड़ रु पये में से करीब 19,545 करोड़ रु पये जारी कर दिए हैं. दरअसल, सूखे से निपटने का बना-बनाया नियम हो गया है कि मनरेगा के तहत 100 दिनों के रोजगार की जगह 150 दिनों के रोजगार के अनुसार राशियां जल्दी जारी की जाती हैं, ताकि वहां गरीबों को काम मिले और जलाशयों या कुंओं आदि की सफाई, खुदाई हो सके.

निकालना होगा दूरगामी समाधान
इस संकट को देशव्यापी और एक हद तक वैश्विक मानकर और इसके तात्कालिक एवं दूरगामी समाधान पर विचार करना होगा. भारत में दुनिया की 16 प्रतिशत आबादी है जबकि उपयोग लायक पानी का केवल 4 प्रतिशत है. इस बात के प्रति जितनी जागरूकता पैदा की जानी थी, नहीं की गई और जल के प्रति हमारे यहां सामाजिक नागरिक दायित्व तो मानो कुछ है ही नहीं. जरा सोचिए, जिन क्षेत्रों में 200 सेंमी. से 1000 सेंमी. तक बारिश होती है, वहां तो कभी सूखा या जल संकट नहीं होना चाहिए. वहां क्यों है? साफ है कि जल प्रबंधन के पारंपरिक तरीके, जिनमें अपने उपयोग के साथ प्रकृति के संरक्षण के पहलू स्वयमेव निहित थे, हमने नष्ट कर दिए.

आज पहले की तरह पक्का कुआं खोदने वाले मजदूर आपको नहीं मिलेंगे. पुराने नष्ट और नए तरीके हमने जो विकसित किए वे अंधाधुंघ पानी के निष्कासन और असीमित खर्च का है. खेतों में सिंचाई ऐसी कि भारत के जल खर्च का 80 प्रतिशत केवल सिंचाई में जाता है, जबकि हमारी आधी भूमि भी सिंचित नहीं है. पहाड़ी इलाकों में पानी जमा करने के अनेक तरीके थे, सीढ़ीदार खेत थे. कहां गए वे? जिन गांवों ने उन तरीकों पर काम किया उनके पास आज भी संकट नहीं है. गांधी जी मानते थे, और यही संच है कि औद्योगीकीकरण और उसके साथ पैदा होते शहर गांवों और प्रकृति का खून चूसकर ही बढ़ते हैं. शहरों में प्रति व्यक्ति पानी की मांग जहां 135 लीटर वहीं गांवों में करीब 40 लीटर.

तो जो कारण हैं, उन्हें दूर करने की आवश्यकता है. यह आसान नहीं है. देश के स्तर पर राज्यों और राज्यों में भी कुछ क्षेत्रों के अनुसार समन्वित राष्ट्रीय नीतियों द्वारा रास्ता निकलेगा. साथ ही, जो हमारी सीमा से बाहर निकल कर जाती हैं, उनका उनके अनुसार समाधान करना होगा. हमारे यहां नदियों और झीलों का जुड़ाव चीन, बांग्लादेश, नेपाल और भूटान तक से है. अगर वे गड़बड़ियां करेंगे तो हम प्रभावित होंगे और होते हैं. तो यहां इस स्तर पर भी निदान करना होगा. इसी तरह ग्लोबल वार्मिंंग का इलाज अकेले भारत नहीं कर सकता. हां, भारत की जो जिम्मेवारी है, वह पूरी करेगा तभी वह दुनिया को करने की नसीहतें दे सकता है. लेकिन जल के प्रति नागरिक-सामाजिक दायित्व का भान और उसका निर्वहन सर्वोपरि है. प्रकृति के साथ व्यवहार का सरल सिद्धांत है कि उससे हम उतना ही लें जिससे वह सदा देने की स्थिति में रहे. यह हम सीखें, अपने बच्चों को सिखाएं और दुनिया को भी बताएं.

अवधेश कुमार
वरिष्ठ पत्रकार


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